*जाति-*
_जाति-जो जन्म से लेकर मरणपर्यन्त बनी रहे, जो अनेक व्यक्तियों में एकरूप से प्राप्त हो, जो ईश्वरकृत अर्थात् मनुष्य, गाय, अश्व और वृक्षादि समूह हैं, वे ‘जाति’ शब्द से लिये जाते हैं।_ *--आ॰उ॰र॰मा॰38*
*धर्म-*
_धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यहभी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म है।_
*अधर्म और धर्म का स्वरूप-*
ये मनुष्याः ईश्वराज्ञापितं धर्ममाचरन्ति, अधर्मं न सेवन्ते, ते सुखं लभन्ते। यदीश्वरो धर्माऽधर्मौ न ज्ञापयेत्, तर्ह्येतयोः स्वरूपविज्ञानं कस्यापि न स्यात्। य आत्मानुकूलमाचरणं कुर्वन्ति, प्रतिकूलं च त्यजन्ति, ते हि धर्माऽधर्मबोधयुक्ता भवन्ति, नेतरे।
_जो मनुष्य ईश्वर के आज्ञा किये धर्म का आचरण करते और निषेध किये हुए अधर्म का सेवन नहीं करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं। जो ईश्वर धर्म-अधर्म को न जनावे तो धर्माऽधर्म्म के स्वरूप का ज्ञान किसी को भी नहीं हो। जो आत्मा के अनुकूल आचरण करते और प्रतिकूलाचरण को छोड़ देते हैं, वे धर्माधर्म के बोध से युक्त होते हैं, इतर जन नहीं।_
*--यजु॰भा॰19.77*
*भगवान्-*
(भज सेवायाम्) इस धातु से ‘भग’ इससे ‘मतुप्’ होने से ‘भगवान्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘भगः सकलैश्वर्यं सेवनं वा विद्यते यस्य स भगवान्’
_जो समग्र ऐश्वर्य से युक्त वा भजने के योग्य है, इसीलिये उस ईश्वर का नाम ‘भगवान्’ है।_ *--स॰प्र॰प्रथ॰समु॰*
*पूजा-*
_1. पूजा-जो ज्ञानादि गुणवाले का यथायोग्य सत्कार करना है, उसको ‘पूजा’ कहते हैं।_
_2. ईश्वर ने सब पदार्थों के बीच स्वतन्त्र गुण रक्खे हैं। जैसे उसने आँख में देखने का सामर्थ्य रक्खा है तो उससे दीखता है, यह लोक में व्यवहार है। इसमें कोई पुरुष ऐसा कहे कि ईश्वर नेत्र और सूर्य के विना रूप को क्यों नहीं दिखलाता है, जैसे यह शङ्का उसकी व्यर्थ है, वैसे ही पूजा-विषय में भी जानना। क्योंकि जो दूसरे का सत्कार, प्रियाचरण अर्थात् उसके अनुकूल काम करना है, इसीका नाम पूजा है।