Sunday, September 24, 2017

। ओ३म् ।। श्राद्ध - तर्पण विषयक शङ्का समाधान शङ्का - वेद के कुछ मन्त्रों में मरे हुए पितरों का...

। ओ३म् ।।
श्राद्ध - तर्पण विषयक शङ्का समाधान
शङ्का - वेद के कुछ मन्त्रों में मरे हुए पितरों का तर्पण-श्राद्ध की प्रतीती है , “ये अग्निदग्धा अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते” इत्यादि मन्त्र , जिनका बहुत स्पष्ट होने से अर्थ बदला भी नहीं जा सकता , क्योंकि “दह भस्मीकरणे” धातु रूप ही दग्ध होता है अर्थात् ‘जो पितर अग्नि से जले व अग्नि से न जले हों, ऐसे पितरों को हविष्य खाने के अर्थ में बुलाता हूं ।’
समाधान - शङ्का में प्रस्तुत मन्त्र विचारने योग्य है कि अग्नि से पितरों का जलना कैसे हो सकता है ? पितर नाम यदि शरीर का रखो , तो यह बात घट सकती है कि अग्नि से जले पितर, परन्तु जो शरीर अग्नि से जला दिया गया , वह उसी समय भस्म गया , अब उसको श्राद्ध में बुलाना वा उसके लिये श्राद्ध का फल पहुंचाना , दोनों बातों में असम्भव दोष घट रहा है - पुनरपि यदि पितर नाम जीवात्मा का मानो, जिसका बुलाना मान भी लिया जाये परन्तु वह अग्नि से नहीं जलाया गया, क्योंकि शरीर के जलने से पहले ही वह निकल गया और उसके निकल जाने से ही शरीर जलाया गया । तो उन जीवात्माओं के साथ अग्निदग्ध विशेषण लग ही नहीं सकता । यदि पुनः कोई कहे कि चेतन शरीर पितर है तो मन्त्र के अनुसार वह तो जलाया ही नहीं गया । इस प्रकार इस मन्त्र द्वारा किसी भी रीति से मृतकों के श्राद्ध पक्ष का अर्थ नहीं बन रहा है - इसी प्रकार जीवात्मा को किसी का पितर , पुत्र आदि नहीं कह सकते - दृष्टव्य - नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।। श्वेताशवतरोपनिषद् ।।
शङ्का - अथर्ववेद में स्पष्ट ही मरे हुए पितरों का तर्पण लिखा है - ये च जीवा ये च मृता ये जाता ये च यज्ञियाः - मन्त्र कहता है 'जो मरे , जीते , प्रकट हुए और यज्ञ सम्बन्धी पितर हैं , उन सबके लिये सहतयुक्त जल की धारा प्राप्त हो ।
समाधान - अथर्ववेद के इस मन्त्र में भी तर्पण का विधान नहीं है । अर्थात् जो कोई लोग इस (ये जीवा ..) मन्त्र से मृत पद को देखकर मरों का तर्पण निकालते हैं , उनको “जीवाः” पद से जीवितों का भी तर्पण निकालना चाहिये । यदि कोई कहे कि जीवा पद मृत शब्द का विशेषण है , तो उसके मत में समुच्चय अर्थ के लिये पढ़ा 'चकार’ निरर्थक हो जायेगा अर्थात् समुच्चार्थ पढ़े 'चकार’ से स्पष्ट प्रतीत होता है कि मृता और जीवा दोनों भिन्न पद हैं । और सर्वनामवाची यत् शब्द के चार प्रयोग मन्त्र पूर्वाध में ही पढ़े हैं । उनसे भी सबका पृथक् होना सूचित होता है । कथन कोई कुछ भी करे , किन्तु उक्त अथर्ववेद के मन्त्र का अर्थ मरे हुए पितरों के तर्पण पक्ष में यथावत् कोई नहीं घटा सकता है । इस कारण इस मन्त्र से मरों के तर्पण का नाम भी नहीं निकलता , किन्तु संसार का उपकार करने वाली एक प्रकार की विद्या इससे निकलती है , इस मन्त्र का संक्षिप्त व्याख्यान प्रस्तुत किया जाता है -
पदार्थ - *ये जीवाः* - जो किसी प्रकार कष्ट के साथ अन्न जलादि को पाकर प्राण धारण करते *च* - और *ये मृताः* - जो शीघ्र प्रकट हुए थोड़ी अवस्था के पशु पक्षी आदि के बच्चे वा अंकुररूप वृक्षादि *च* - और *ये याज्ञयाः* - यज्ञ कर्म में उपयुक्त होने वाले ओषधि, वनस्पति वा अन्नादि हैं *तेभ्यः* - उनके अच्छे प्रकार होने के लिये *घृतस्य* - जल की *व्युन्दती* - शीतलता गुण पहुंचने वाली *मधुधारा* - खारीपन आदि दोष रहति ऐसी *कुल्या* - कृत्रिम बनावटी नदी - नहर *एतु* - प्राप्त हों , जिससे जगत् में सब चराचर प्राणियों की रक्षा हो ।।
भावार्थ - जिस - जिस मरु आदि देश में जल नहीं मिलता वा बड़े कष्ट से मिलता है , उन - उन प्रदेशों में सुगमता से सर्वदोष रहित मीठा जल प्राप्त होने के लिये देशहितैषी धनाढ्य वा प्रजापालन में तत्पर राजपुरुषों को नवीन नदी - नहर निकालनी चाहिये , क्योंकि जल से ही सब चराचर की उत्पत्ति होना और स्थति रहना सम्भव है ।।
।। ओ३म् ।।


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