ओ३म् ओ३म् ओ३म्
सभी को सादर वैदिक नमस्ते जी
जब हम मूर्ति पूजा का ख़ंडन करते हैँ तो लोग ये तर्क करते हैं—-
वे कहते है की अगर आप अपने पिता की तस्वीर पर नहीं थूक सकते तो फिर मूर्ति का तिरस्कार क्यों करते है ।
उत्तर : हम मूर्ति का तिरस्कार नहीं वरन मूर्ति को ईश्वर मान उसको पूजने का विरोध करते हैं।हम पिता की तस्वीर अपने घर में लगाते है क्योंकि वह हमारे प्रिय हैँ हमारे आदर्श हैँ ,हमारे पूर्वज हैँ ।किन्तु उस तस्वीर को पिता समझ कर पिता की तरह व्यवहार नही करते। तस्वीर से धन नही मांगते ,सहायतानही मांगते ।क्योकि यह जानते है कि यह पिता की तस्वीर है पिता नहीं ,पिता की तरह चेतन नही है , यह जड़ है, ना सुनती है , ना देखती है ओर ना प्रतिक्रिया करती है।सबसे बड़ी बात , अगर पिता जीवित है तो सिर्फ उस चेतन पिता से चर्चा करके ही कुछ प्राप्त किया जा सकता , उनकी जड़ तस्वीर या मूर्ति से नही। अगर हमारे जीवित पिता हमे अपनी तस्वीर से बात करते देंखे तो वे हमें मूढ़ समझेंगे, बुद्धिहीन समझेंगे ओर क्रोध भी करेंगे ।क्या यही गलती हम उस चेतन ईश्वर के सम्बन्ध में नही कर रहे है??वह परमपिता परमात्मा जीवित है , चेतन है , हमारे ह्र्दय में है , फिर भी हम उसकी जगह मूर्तियों से मांगते है, जो जड़ है , हम जड़ वस्तुओं से बात करते है ईश्वर समझ कर । क्या ईश्वर यह देखकर प्रसन्न होगा??ईश्वर का कोई रूप रंग आकर नहीं होता फिर एक मनुष्य जैसी आकृति ईश्वर का प्रतिक कैसे आभासित करवासकती है??और चलो करवा भी दिया तो फिर मूर्ति में जरा भी टूट होते ही फेंक क्यों देते हो , फिर उसका भगवान् मर गया ?? गायब हो गया??क्यों नहीं सड़को पर पड़ी टूटी फूटी मूर्तियो को भी उठा लाते हो ??सच तो ये है तुम लोग मूर्तियो में ईश्वर का प्रतिक नहीं देखते बल्कि मूर्ति को ही भगवान् माने बैठे हो , वो भी एक ख़ास समय और स्तिथि में जब उसमे कोई मुर्ख पाखंडी पंडा आकर प्राण ना फूँक देतभी और जब तक वह खंडित ना हो जाए तब तक ।इससे आगे पीछे की स्तिथियों में वे ही मूर्तियां सड़को पर पड़ी रहती है।
2 : दूसरा तर्क है मूर्ति में भी भगवान है क्योकि वह कण कण में है तो मूर्ति को ही क्यों नहीं पूजते?
उत्तर : ईश्वर तो कण कण में है परंतु मूर्ति उसने नहीं बनाई , मूर्ति तो मनुष्य ने बनाई , ईश्वर ने बनाया फूल तो बताओ कौन बड़ा मूर्ति या फूल , तुम छोटी वस्तु पर बड़ी वस्तु चढ़ाते हो ।वह ईश्वर सर्वव्यापक है और तुम उसे एक छोटी सी मूर्ति में सिमित कर देते हो ।जब किसी से मिलना होता है तो उस स्थान पर हमारा ओर जिससे मिलना हो उसकी एक साथ उपस्तिथि आवश्यक है ।उदाहरण के लिए , अगर मुझे अपने मोदी जी से मिलना हो तो या तो दिल्ली जाना पड़ेगा या मोदी जी को मुजफ्फरनगर आना पड़ेगा ।इसी प्रकार अगर ईश्वर का साक्षत्कार करना है तो ईश्वर ओर हमे एक स्थान पर उपस्थित होना पड़ेगा ।हम से आशय हमारा शरीर नही बल्कि हमारी आत्मा से है।अर्थात वह स्थान बताइये जहां हमारी आत्मा ओर ईश्वर एक साथ उपस्थित हो।ईश्वर तो सर्वव्यापक होने से मूर्ति में भी है, आपके शरीर के भीतर भी है।अब आप कहाँ कहाँ है ??क्या आप मूर्ति के भीतर है ??क्या आप संसार की किसी भी वस्तु के भीतर है??आप सिर्फ अपने शरीर के भीतर है , यही वह स्थान है जहां आपका ईश्वर से साक्षात्कार सम्भव है , अन्यथा कही नही।यह मेरे विचार नही अपितु वेद वाणी है जो तर्क की कसौटी पर भी खरी उतरती है।वेद अंतिम प्रमाणवेद निंदक नास्तिकों अस्तिचिंतन करे, ओर ईश्वर को अपने भीतर खोजे ओर उसका तरीका भी वेदो में ही है जिसे महृषि पतंजलि ने अष्टांग योग के नाम से प्रचारित किया है।
3: तीसरा तर्क एकाग्रता के लिए मूर्ति जरुरी है, उत्तर : मूर्ति पर एकाग्रता किस लिए बढ़ा रहे हो , क्या मूर्ति भगवान् है , नहीं मूर्ति भगवान नहीं । मूर्ति को एकाग्रचित होकर भगवान् समझने से भी वह भगवान् नहीं बनेगी , मूर्ति ही रहेगी ।और किसी दिन टूट गयी 20 साल की एकाग्रता को ठेष पहुचेगी किन्तु आप फिर भी आप बिना मूर्ति के उपासना नही करेंगे बल्कि दूसरी मूर्ति खरीद लाओगे।सभी मूर्तिपूजक ये दावा करते है कि एक दिन मूर्तिपूजा करते करते एकाग्रता इतनी अधिक हो जाएगी किमूर्ति छूट जाएगी और ध्यान निराकार पर लग जायेगा।यह झुठ है क्योंकि निराकार पर ध्यान तभी लगेगा जब निराकार उपासना विधि आर्थत अष्टांग योग का प्रयास करोगे।इसीलिए एक 10 साल का बालक मूर्तिपूजा करते करते 80 साल का हो जाता है किंतु मूर्तिपूजा नहीछोड़ताअष्टाङ्ग योग विधि अपना कर कोई भी व्यक्ति एकाग्रता भी बढ़ा सकता है और निराकार ईश्वर का ध्यान भी कर सकता है ।
from Tumblr http://ift.tt/2yfosWs
via IFTTT
No comments:
Post a Comment