शरीर का निर्माण पञ्च मूल तत्वों से होता है, जो स्वयं ही परिवर्तनशील हैं… और भरण-पोषण भी जिस भोजन वायु जल आदि से होता है, वह भी इन्ही परिवर्तनशील,विकारी(जिनमें बिगाड़ पैदा हो जाये) तत्वों से बनता है… तो बड़ी सीधी सी बात है कि शरीर भी विकारी(जिसमे बिगाड़ आ जाये) ही होगा… कितना भी सहेज कर रख लो इस देह को कोई न कोई रोग दोष होना ही है… कोई कोई यदि बहुत ध्यान रखकर स्वयं को सामान्य रोगों से बचा भी गया तो सबसे बड़ा रोग तो जरा यानि बुढ़ापा है; जो रोगों की खान है/ इस जरा से तो कोई स्वयं को बचा ही नही सकता… चाहे कोई कितना ही धनी, समाज में प्रतिष्ठित हो जरा ने तो उसको धरना ही धरना है।
यदि इस बात को व्यक्ति हृदय से मान ले कि ये रोग दोष जरा आदि सब शरीर के स्वाभाविक धर्म हैं तो फिर उसका मन इन स्थितियों के आने पर हड़बडाता घबराता नहीं, स्थिर रहता है, धैर्य से पूर्ण रहता है।
इससे लाभ यह होता है कि वह मन से कभी दुखी नही होता और रूग्ण होते हुए भी वह शांति की ओर बढ़ता चला जाता है।
इसके विपरीत तो इन्हें सहज रूप से स्वीकार नही कर पाता.. जो इनके लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार नही करता.. जो इन्हें देख हैरानी में पड़ जाता है.. जो इनके आ जाने पर अधीर होकर,घबराकर हड़बड़ाहट में अस्त व्यस्त हो जाता है….// ऐसा मनुष्य ये रोग आदि शारीरिक दुःख तो भुगतता ही है साथ में मानसिक दुःख से वह पागल सा हो जाता है…
आप क्या मानते हैं?
रोग आदि को स्वाभाविक मानकर उनके आने पर उन्हें सरलता से झेल जाते हैं या फिर………///……VKT
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