वैवाहिक रिश्तो में छोटी मोटी बाते एक विकराल रूप धारण करते हुवे दहेज के झूठे केसों जैसो सामाजिक समस्या पैदा कर रही है ।
इस बाबत एक सामूहिक चिंतन सार…👇🏼👇🏼
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समाज में आये दिन कहीं ना कही कोई दम्पति की गृहस्थी अनहोनी पर पहुच जाती है।
तत्काल प्रतिक्रया दहेज़ की आती है कि
ये एक दहेज़ ह्त्या या आत्महत्या है।
सवाल है कि अक्सर होने वाली इन विडम्बनाओं में क्या वाकई दहेज ही मुख्य कारण है?
व्यवहारिकता का कोई रोल नहीं होता..?
क्या वाकई दहेज़ या छोटी छोटी सी परम्पराये इसका कारण बनती है ।
देने वाले और लेने वाले दोनों ही दोषी होते है जो बचों की जीवनी से अपने अपने स्वार्थ हेतु खेलते है
ंदहेज़ की मांग कोई अपवाद स्वरूप ही होती है।
वास्तव में समाज में जो छोटी छोटी रीत बोलकर अवरोधकता है ये सब उसका परिणाम है।
क्षेत्रीय स्तर पर रीत बदल जाती है।
ऐसी रीत की कोई किताब भी नहीं है।
ये रीत सरासर व्यक्तिगत होती है।
जो बाद में सीधी अपने संम्मान से जोड़लि जाती है।
बस यही से गड़बड़ी शुरू हो जाती है।
कोई जरुरी नही की लड़के वाले विवाह के बाद कोई बड़ी मांग करते है।
और फिर भी कोई बात होती है तो मेरा अनुमान है की विवाह से पूर्व कोई कमिटमेंट होता होगा।
या मध्यस्त द्वारा कुछ बढ़ा चढ़ा कर दावे कर दिए हो।
असल कारण ये बनते है ।
अक्सर ऐसी घटना पर विरोध अधिकांश लड़केवालों का ही होता है ।
और सरकारी केस बनाई जाती है दहेज़ के नाम पर ।कुछ बात जनभुजकर छुपाई जाती है ।जो ववाह के पश्च्यात बडी दरार का कारण भी बनती है
बात नियम और रित रिवाज की हो रही है ।और ये अपने खुद के बनाये हुये नियम और रित रिवाज है ।तो इन्हे हम जैसी चाहे वैसी बना सकते है ।केवल मात्र “सोच"बदलने की जरुरत है ।
एक दूसरे के प्रति सम्मान की कमी अपना मान बड़ा अगले का छोटा ।संस्कार हीनता
सबसे सरल उपाय तो यह है कि जो बच्ची वाला सहर्ष बगैर किसी दबाव अपनी ईच्छा से करे वही रीत मान ले और सभी को बताये की हमारे तो "प्रेम की रीत” चलती है ।
जिसमे दोनो संगे हमेशा प्रेम से रहे, भला उससे बढिया कौनसी रीत हो सकती है ।
सुसंवाद का अभाव !
सुझबुझ का अभाव !
बुजुर्गो के मार्गदर्शन को दुर्लक्षित करना !
अपनेपन का अभाव !
शायद ऐसे ही अनेक कारणों से रिश्तो में खटास होती है !
जरूरत है अध्यात्म के ग्रंथो में लिखे गए अनेको संवादों को पढ़े आत्मसात करने का प्रयास हरदिन करे !
वर्तमान निजी जीवन की अनेक समस्याओं का हल निकल जाएगा ! 🙏🏻
और समाज के लोगो को तो मौका देना ही नही चाहिये की आप इसमे कमी बेसी बताओ ।
नही तो वहाँ कमी के सिवाय कुछ मिलेगा ही नही ।बात कडवी जरूर है लेकिन सच्ची है ।ये अपने समाज का सबसे कटू सत्य है ।🙏🙏
बात रीती रिवाज नियम के अनुशार अच्छी लगती है।फर्क इतना कोई इन्शान अपने नियम के अनुशार चलता है अपनी हशियत के हिसाब से चलता है ।
अगर बाते होती है शादी में क्या कुछ लगाने की उमीद है सीधा बोल दो सोनी जी ये हमारे वशुल से बहार है इस पर्था से हम बिलकुल अलग है आपके और हमारे संजोग मुष्किल है।कोशिस करो रिस्तेदारी मिलीजुली हो।
एक छोटी सी चिंगारी आग लगा देती है ।
रित रिवाज की छोटी सी चुक एक बड़े सफल समारोह को भी धत्ता बताती नजर आती है ।ये वाकई विचारणीय बात है ।
हम 100 अच्छी बातो को 1 असहज बात से भूल जाते है ।
एक बार उत्पन्न हुई ये टिस अकसर लम्बी खींचती देखी गई है । यदि कुछ समय दरकिनार भी की जाए तो भी समय आने पर दोहराई जाती है । यही भावना टूटे धागे में एक गाँठ के सामान है ।….हमे सहनशील बनना चाहिए । दो परिवार का जुड़ाव एक पवित्र वैवाहिक बंधन द्वारा होता है । किसी छोटी सी बात के लिए इस बंधन में कमजोरी नही दिखाई देनी चाहिए ।
बड़ी अजीब बात लगती है…
जब दुल्हे के फूफा ने खाने में निम्बू माँगा हो और दुल्हन के परिवार वालो ने खटाई ना खिलाने की रित बताई हो…लो छप गया एक पन्ना हमेशा के लिए ।
बस….कुछ सहनशीलता दोनों पक्षों में से एक की भी हो तो 90% मामले सुलझ जाए ।
यदि सहनशील हो जाए तो कोई बात ही कहाँ बचती है?
पर यदि आवश्यक कोई रस्म समझता है कोई भी पक्ष तो अपने सम्बन्धी कोंकीनारे लकर कान में साफ़ बतादें ।
समय के बाद जो जिक्र होता है वो भी किसी एनी के सामने वो सबसे घातक काम हो जाता है और एक अच्छे खासे सम्बन्ध की होली जला डालता है।
इस बात को गहरा समझना और आत्मसात करना जाग्रुती है।
“हम चोडे बाजार सकडे” के अनुसार चलते है हम सभी समाज बन्धु ।वरना ये सफा झूठा दिखावा यदि हम बन्द कर दे ।तो शायद 75%समाज की समस्याये खत्म हो जाये
…और एक ख़ास बात ये है की ये समस्या आपस में नजदीक के एरिया वालो में ज्यादा होती है ।एक बार शुरू हुवा संवाद बार बार घूम के आता है । बात का बतंगड़ बनता ही रहता है ।
दूर के रिश्तोमें ऐसा बहत्त कम ।
अधिकतर सम्बन्ध मामूली बातो के भेंट चढ़ जाते है।
ये मा्मूलि बाते सामान्य शिष्टाचार केनाम पर कभी शुरू हुई होगी पर आज अधिकतर अव्यवहारिक और असामयिक हो चुकी है।
साथ ही विडम्बना ये है की विकृत हो चुकी ये रस्मे आज सौहार्दय के स्थान पर संबंधो की दीमक कही जाने लगी है ।
ऐसे में इनको सम्पूर्ण त्याग देना ही हितकारी होगा।
रस्मो को निभाना समझ आता है…निभानी भी चाहिए…
पर रस्मो में कोई भूलचूक या उंच नीच को बातो को या तो इग्नोर कर सकते है या जैसा की दादू ने जैसा कहा..समयपूर्व डिसकस करके रास्ता सुगम बनाये ।
हाँ यह सत्य है रस्म जहाँ 1 रुपया भी मान का होता है वहां 1000 या 10000 का दिखावा क्यों
आवश्यक रश्मो को ठीक से साफ़ साफ़ बताया जाए या फिर बड़ा दिल रखा जाए कोई चूक होगयी तो अपने से सुधारे या उसे अनदेखा करदें।
जबकि उसका चर्चा वो अपने अन्य संबंधियो में कर डालते है और सहज रस्म घातक स्वरूप लेलेता है।
सीधा प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखा जाने लगता है।
पारम्परिक रस्म और रिवाज़ अब पारम्परिक नहीँ रही उनमें शक्ति प्रदर्शन की भवनाओ का समावेश हो चुका है. जो काम एक के सिक्के से हो सकता है वहाँ चाँदी और सोने के सिक्के यही क्रमबध सभी स्तर पर कर्यक्रम मे दिखाई देता है. परम्परा बुरी नहीँ होती उसमें नित नये आविष्कार उसको विकृत रूप प्रदान करते है
मारवाड़ी में कहावत है-
“पानी पिणों छाण ने,
रिश्तो करणों जाण ने”…
….अच्छी तरह देख परख कर ही, अपने खुद के निभाव से ही रिश्ते ना करना हमारी ही गलती होती है ।
फिर हम अपनी ही गलती को छुपाने के लिए दुसरो को येन केन किसी भी रित रिवाज के बहाने से दोषी सिद्ध करने की कोशिश करते है । ताकि हम अपना पक्ष मजबूत दिखाए ।
हम झगड़ा करने के लिए बहाना खोजते है जबकि असल जड़ वो होती ही नही है ।
असलियत में तो हम खुद दोषी होते है ।
शादी के बाद पति पत्नी में छोटी मोटी नोक झोक होती है तो परिवार के बड़े बुजुर्गो चाहे लड़के वाले हो या लड़की वाले दोनों लड़के और लड़की दोनों को समझाना चाहिए न कि लड़की के पिता अपनी लड़की का पक्ष लेकर चाहे गलती उसी की हो लड़के वालो से और लड़के वाले चाहे लड़के की गलती हो भीड़ जाए इस स्थिति में दोनों को ये समझाने की जरुरत होती की विवाह जन्म जन्मान्तर का बंधन होता है छोटी मोटी बातो पर कोई भी बड़ा कदम उठाने से पहले बहुत बार सोचले जब दोनों को ये बात समझ आजायेगी तो इन सब बातो की नोबत आने की आसंका कम रहती है। आजकल दहेज़ के मामले बहुत कम होते है किन्तु जब भी कोई डिस्ट्रिब्यूट होता है तो ये मामला न होते हुए भी इसको ही हत्यार बनाया जाता है।क्योंकि आज के समय में हमारे समाज बंधुओ की आर्थिक स्तिथि भी बहुत अछि है तो इसके साथ ही हमारे समाज बंधुओ में ego की भावना भी बढ़ गयी है कोई भी अपने आपको किसी से कम नही समझते और इस ego की भेट ये रिश्ते चढ़ते जा रहे है। ये जो भी संस्कार हमारी संस्कृति में है ये हमारे रिश्तों को प्रगाढ़ता देते है किन्तु EGO हमारे राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन रहा है जब तक हम सब इसका परित्याग नही करेंगे तब तक किसी समस्या का हल ढूँढना मुश्किल है “दुनिया के सब लोग अच्छे है किन्तु वे लोग ज्यादा अच्छे है जो इन्शान अच्छे है "।
परम्पराओ को दिखावे से अलग रखना होगा। रीति-रिवाज तो दिनो दिन कम हो रहे है ।और दिखावा ज्यादा बढ रहा है ।
पुराने रीति-रिवाज आधे से ज्यादा तो विलुप्त प्राय: हो गये ।और यदि ऐसे ही चलते रहा तो आगामी कुछ दशको में तो सब कुछ चेंज हो जायेगा ।
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