Thursday, December 10, 2015

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि...

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥[v] ऋ01.164.20
उपर्युक्त मन्त्र का सार यह है कि एक वृक्ष है, उस पर दो पक्षी बैठे हुए हैं, उनमें से एक वृक्ष के फलों का भोग कर रहा है, जबकि दूसरा भोग न करता हुआ प्रथम को देख रहा है। उक्त मन्त्र में वृक्ष प्रकृति का प्रतीक है, वृक्ष का आशय है कि जिसका छेदन होता हो अर्थात् जिसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहे, जिसका रूप निरन्तर बदलता रहे, उस शक्ति का नाम वृक्ष है। इस वृक्ष पर दो सुपर्ण (पक्षी) हैं, वे परस्पर सखा हैं, जिनका नाम, काम और स्वभाव लगभग एक जैसा हो, वे मित्र कहलाते हैं। इन दोनों पक्षियों का नाम क्रमशः आत्मा और परमात्मा है, इनमें सभी कुछ समान है, भिन्नता मात्र इतनी है कि एक एकदेशीय है और दूसरा सर्वव्यापी। मन्त्र में सखा बताते हुए वेद ने इनके बीच में विभाजक रेखा भोक्ता और साक्षी की रक्खी है। जीव संसाररूपी वृक्ष का भोक्ता है, जबकि ईश्वर उस भोक्ता जीव का साक्षिमात्र है। जहाँ इस मन्त्र में जीव और ईश्वर की समानता प्रतिपादित की गयी है, वहीं उनकी परस्पर विलक्षणता को भी बताया गया है।


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