Thursday, December 10, 2015

६९. भावना — जो जैसी चीज हो उसमें विचार से वैसा ही निश्चय करना कि जिसका विषय भ्रमरहित हो...

६९. भावना — जो जैसी चीज हो उसमें विचार से वैसा ही निश्चय करना कि जिसका
विषय भ्रमरहित हो अर्थात जैसे को तैसा ही समझ लेना ; उसको “ भावना “ कहते है ।
७०. अभावना — जो भावना से उल्टी हो अर्थात जो मिथ्या ज्ञान से अन्य में अन्य
निश्चय मान लेना है जैसे जङ में चेतन और चेतन में जङ का निश्चय कर लेते हैं ;
उसको “ अभावना “ कहते हैं ।
७१. पण्डित — जो सत असत को विवेक से जानने वाला , धर्मात्मा सत्यवादी , सत्य –
प्रिय , विद्वान और सबका हितकारी है , उसको “ पण्डित “ कहते हैं ।
७२. मूर्ख — जो अज्ञान ,हठ , दुराग्रहादि दोष सहित है उसको “ मूर्ख “ कहते हैं ।
७३. ज्येष्ठ कनिष्ठ व्यवहार — जो बङे और छोटों से यथायोग्य परस्पर मान्य करना है ;
उसको “ ज्येष्ठ कनिष्ठ व्यवहार “ कहते हैं ।
७४. सर्वहित — जो तन , मन और धन सबके सुख बढाने में उद्योग करना है ; उसको
“ सर्वहित “ कहते हैं ।
७५. चोरी त्याग — जो स्वामी की आज्ञा के बिना किसी के पदार्थ का ग्रहण करना है, वह
“ चोरी “ और उसका छोङना “ चोरी त्याग “ कहाता है ।
७६. व्यभिचार त्याग — जो अपनी स्त्री के बिना दूसरी स्त्री के साथ गमन करना और अपनी
स्त्री को भी ऋतुकाल के बिना वीर्यदान देना तथा अपनी स्त्री के साथ भी वीर्य का अत्यन्त नाश
करना और युवावस्था के बिना विवाह करना है ; यह सब “ व्यभिचार “ कहाता है । उसको
छोङ देने का नाम “ व्यभिचार त्याग “ कहाता है ॥
७७. जीव का स्वरूप — जो चेतन , अल्पज्ञ , इच्छा , द्वेष , प्रयत्न , सुख , दुःख और
ज्ञान गुण वाला तथा नित्य है वह “ जीव “ कहाता है ॥
७८. स्वभाव — जिस वस्तु का जो स्वाभाविक गुण है जैसे कि अग्नि में रूप , दाह अर्थात
जब तक वह वस्तु रहे तब तक उसका वह गुण भी नहीं छूटता इसलिए इसको “ स्वभाव “
कहते हैं ।
७९. प्रलय — जो कार्य जगत का कारण रूप होना अर्थात जगत का करने वाला ईश्वर
जिन – जिन करणों से सृष्टि बनाता है कि अनेक कार्यों को रचके यथावत पालन करके
पुनः कारण रूप करके रखना है उसका नाम ‘ प्रलय ‘ है ।
८०. मायावी — जो छल , कपट , स्वार्थ में ही प्रसन्नता दम्भ , अहंकार , शठतादि
दोष हैं ; इसको ‘ माया ‘ कहते हैं । और जो मनुष्य इससे युक्त हो ; वह ‘ मायावी ‘
कहाता है ।
८१. आप्त — जो छलादि दोष रहित , धर्मात्मा , विद्वान , सत्योपदेष्टा , सब पर
कृपादृष्टि से वर्त्तमान होकर अविद्या अन्धकार का नाश करके अज्ञानी लोगों के आत्माओं
में विद्यारूप सूर्य का प्रकाश सदा करें ; उसको ‘ आप्त ‘ कहते हैं ।
८२. परीक्षा — जो प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण , वेदविद्या , आत्मा की शुद्धि और सृष्टिक्रम
से अनुकूल विचार सत्यासत्य को ठीक – ठीक निश्चय करना है ; उसको ‘ परीक्षा ‘ कहते है ।
८३. आठ प्रमाण — प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान , शब्द , ऐतिह्य , अर्थापत्ति , सम्भव
और अभाव ये आठ प्रमाण हैं । इन्हीं से सब सत्यासत्य का यथावत निश्चय मनुष्य कर
सकता है ।
८४. लक्षण — जिससे लक्ष्य जाना जाय जो कि उसका स्वाभाविक गुण है । जैसे कि
रूप से अग्नि जाना जाता है इसलिए इसको ‘ लक्षण ‘ कहते हैं ।
८५. प्रमेय — जो प्रमाणों से जाना जाता है जैसा कि आंख का प्रमेय रूप अर्थ है ।
जो कि इन्द्रियों से प्रतीत होता है ; उसको ‘ प्रमेय ‘ कहते हैं ।
८६. प्रत्यक्ष — जो प्रसिद्ध शब्दादि पदार्थों के साथ श्रोत्रादि और मन के निकट सम्बन्ध से
ज्ञान होता है ; उसको ‘ प्रत्यक्ष ‘ कहते है ।
८७. अनुमान — किसी पूर्व दृष्ट पदार्थ के अंग को प्रत्यक्ष देखके पश्चात उसके अदृष्ट अंगी
का जिससे यथावत ज्ञान होता है , उसको ‘ अनुमान ‘ कहते हैं ।
८८. उपमान — जैसे किसी ने किसी से कहा कि गाय के समतुल्य नील गाय होती है ; जो
कि सादृष्य उपमा से ज्ञान होता है , उसको ‘ उपमान ‘ कहते हैं ।
८९. शब्द — जो पूर्ण आप्त परमेश्वर और पूर्वोक्त आप्त मनुष्य का उपदेश है ; उसी को
‘ शब्द प्रमाण ‘ कहते हैं ।
९०. ऐतिह्य — जो शब्द प्रमाण के अनुकूल हो ; जो कि असम्भव और झूठा लेख न हो ;
उसी को ‘ इतिहास ‘ कहते हैं ।
९१. अर्थापत्ति — जो एक बात के कहने से दूसरी बात बिना कहे समझी जाय उसको
‘ अर्थापत्ति ‘ कहते हैं ।
९२. सम्भव — जो बात प्रमाण युक्ति और सृष्टि क्रम से युक्त हो ; वह ‘ सम्भव ‘
कहाता है ।
९३. अभाव — जैसे किसी ने किसी से कहा कि तू जल ले आ । उसने वहां देखा कि
यहां जल नहीं है परन्तु जहां जल है वहां से ले आना चाहिये । इस अभाव निमित्त से
जो ज्ञान होता है ; उसको “ अभाव प्रमाण “ कहते हैं ।
९४. शास्त्र — जो सत्यविद्याओं के प्रतिपादन से युक्त हो और जिस करके मनुष्यों को
सत्य सत्य शिक्षा हो ; उसको “ शास्त्र “ कहते हैं ।
९५. वेद — जो ईश्वरोक्त , सत्यविद्याओं से ॠक् संहितादि चार पुस्तक हैं कि जिनसे
मनुष्यों को सत्य सत्य ज्ञान हो ; उनको “ वेद “ कहते हैं ।
९६. पुराण — जो प्राचीन ऐतरेय , शतपथ ब्राह्मणादि ॠषि मुनिकृत सत्यार्थ पुस्तक
हैं ; उन्हीं को “ पुराण “ , “ इतिहास “ , “ कल्प “ , “ गाथा “ , “ नाराशंसी “ कहते हैं ।
९७. उपवेद — जो आयुर्वेद वैद्यक्शास्त्र , जो धनुर्वेद शस्त्रास्त्र विद्द्या , राजधर्म जो
गन्धर्व वेद गानशास्त्र और अर्थवेद जो शिल्पशास्त्र है ; इन चारों को “ उपवेद “ कहते हैं ।
९८. वेदांग — जो शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरूक्त , छन्द और ज्योतिष आर्ष सनातन
शास्त्र हैं ; इनको ‘ वेदांग ‘ कहते हैं ।
९९. उपांग — जो ॠषि मुनिकृत मीमांसा , वैशेषिक , न्याय , योग , सांख्य और वेदान्त
छः शास्त्र हैं , इनको उपांग कहते हैं ।
१००. नमस्ते — मैं तुम्हारा मान्य करता हूं


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