आर्यों के विमर्श के लिए…
आइए कुछ विचार करते हैं – ईश्वर और जीवात्मा के परिमाण और सूक्ष्म-स्थूल स्वरूप के विषय में
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महर्षि दयानन्द जी की दृष्टि में ईश्वर और जीवात्मा दोनों चेतन (conscious), अदृश्य (invisible), अभौतिक (non-material or non-physical) सत्ताएं हैं।
ईश्वर अनन्त (infinite or endless) है, उसकी सत्ता अनन्त है। ऐसा कह सकते हैं कि वह इतना महान् है कि वह स्वयं भी अपना अन्त नहीं जानता, स्वयं को अनन्त ही समझता है ! यह विचित्र बात है जो आसानी से समझ में नहीं आती है। ईश्वर जैसी सत्ता भी स्वयं को अनन्त जाने अर्थात् अपनी ही विद्यमानता (presence) अवकाश (space) में कहां तक –कितने स्थान पर्यन्त है, इसका उसे ही ज्ञान न हो, अथवा स्वयं को अनन्त ही जाने – यह बात हम महर्षि दयानन्द जी के ग्रन्थ को प्रमाण मानकर स्वीकार तो कर लेते हैं, परन्तु इसे ठीक से – स्पष्ट संकल्पना पूर्वक (conceptually) समझना आसान नहीं है।
जैसे ईश्वर की अनन्त विद्यमानता (infinite presence) को समझना कठिन है, उसकी थाह पाना असम्भव-सा (unfathomable) है, वैसे ही जीवात्मा का अणु-स्वरूप, उसकी सूक्ष्म सत्ता, उसकी परिच्छिन्नता (finitude or boundedness) को समझना कठिन है, क्योंकि वह भी हम जान न पाए इतना छोटा (infinitely or immeasurably small) है।
जैसे क्षेत्र (domain, occupation, region, area, presence) की दृष्टि से ईश्वर अनन्त चेतन सत्ता है, वैसे ही जीवात्मा भी अत्यन्त अणु सत्ता है। जैसे अनन्त ईश्वर की सत्ता की कोई सीमा (border or limit) नहीं है, वैसे जीवात्मा ससीम होते हुए भी उसकी सूक्ष्मता (smallness or minuteness) भी एक प्रकार से ‘अनन्त’ है, वह इतना अत्यन्त अल्प है, छोटा है।
व्यापकत्व (pervasiveness or the quality of being pervaded, permeated or penetrated in others) की दृष्टि से विचार किया जाए तो ईश्वर सर्वव्यापक है, अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर है। इस गुण को लेकर दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में जीवात्मा को ईश्वर से स्थूल और ईश्वर को जीवात्मा से सूक्ष्म लिखा है। जीवात्मा में यह व्यापकत्व गुण नहीं है, ऐसा मैं समझता हूं।
एक कठिन विषय को मैंने अपनी अल्प मति से जैसा समझ पाया हूं, यहां प्रस्तुत करने का प्रयास किया है – इस आशा के साथ कि सुविज्ञ आर्य पाठक इन बातों पर सम्यक् विचार करेंगे जिससे सत्य की गवेषणा हो सके। मैंने यहां जो लिखा है वही सत्य है, ऐसा मैं मन में भी नहीं सोचता हूं। प्रत्युत मैं ऐसा समझता हूं कि यह विषय गहन है, अतः चिन्तनशील आर्यों को धैर्यपूर्वक विचार-विमर्श करना होगा।
जिन आर्यों ने ‘जीवात्मा सर्वथा निराकार नहीं है’ इस प्रकार की बातें प्रसारित की हैं, मैं नहीं समझता हूं कि उन्होंने किसी अ-भद्र भावना से ऐसा किया है। यह विषय ही ऐसा है कि कुछ लोग अन्यथा विचार या निर्णय कर सकते हैं।
लेखक : भावेश मेरजा ( आर्यसमाज, भरूच)
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