*प्रश्न-* *सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:। गीता १८/६६*
इस श्लोक का क्या अर्थ होता है?
*उत्तर"*
अर्थ : “सब धर्मों(वर्णाश्रम कर्त्तव्यों) को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जा । मैं तुझ को सब पापों से छुड़ा दूंगा ,चिन्ता मत कर ।
*भावार्थ-* सर्वत्र ब्रह्म को व्यापक देखने का अभ्यास करते-करते अब और आगे बढ़ें और वर्णाश्रम के धर्मों(कर्त्तव्यों) की परवाह छोड़कर सारा समय और अपनी सारी शक्ति ब्रह्म तन्मय हो जाने (समाधि आदि) में लगादें (उस के शरण में जाने का तात्त्पर्य यही है।) तो परमात्मा सर्व पापों से छुड़ा देगा ।
*प्रश्न-* *क्या परमेश्वर पाप को माफ़ कर देंगे? ,फल नहीं भुगवाएँगे?*
*उत्तर-* योग(ध्यान,धारणा,समाधि) तथा ज्ञानरुपी अग्नि में पापरुपी मल दग्ध हो जाता है । परंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि ईश्वर पापों को क्षमा कर देगा,पाप कर्म का दण्ड तो अवश्य मिलेगा ।
परंतु योग व ज्ञान से पापों की निवृत्ति होती है यहि अर्थग्रहण करना चाहिए, यही बात मुण्डकोपनिषद् में कही है : *मुण्डक :२ काण्ड :२ श्लोक संख्या :८ ) भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।*
*पदार्थ-* (भिद्यते) टूट जाती है। (हृदयग्रन्थिः) रोहे की गांठ अर्थात् सूक्ष्म शरीर से वियोग हो जाता है। जन्म-मरण में तो सूक्ष्म शरीर साथ रहता है, परन्तु उस दशा में पृथक् हो जाता है। (छिद्यन्ते) नष्ट हो जाते हैं। टूट जाते हैं। (सर्वसंशयाः) सब प्रकार के सन्देह। (क्षीयन्ते) क्षीण हो जाते हैं। (च) और (अस्य) उस ब्रह्मज्ञानी के। (कर्माणि) सब कर्म। (तस्मिन्) उस अवस्था में। (दृष्टे) जब साक्षात् देख लेता है। (परावरे) जो इन्द्रियों से अनुभव होने योग्य नहीं है। *भावार्थ-* जब कोई पुरुष इन्द्रियों से अनुभव न होने योग्य परमात्मा को भीतर ज्ञान-चक्षु से देख लेता है, तब उसके रोहे की गांठ अर्थात् सूक्ष्म शरीर का सबन्ध टूट जाता है। सब संदेहों का सबन्ध मन से है और मन का सूक्ष्म शरीर से। जब सूक्ष्म शरीर ही न रहा, तो मन कहां? जब मन ही नहीं तो उसमें उत्पन्न होने वाले संदेह कहां? *अतः सपूर्ण सन्देह दूर हो जाते हैं। और जब मन ही न रहा, जिसमें सब कर्मों के संस्कार रहते हैं तो उसमें रहने वाले कर्म किस प्रकार रह सकते हैं? उस ज्ञानी के सब कर्म नष्ट हो जाते हैं। इसी बात की उक्त "गीता” के श्लोक में सङ्गति करें ।*
*प्रश्न-क्या सपूर्ण कर्म ब्रह्मज्ञानी होने पर नष्ट हो जाते हैं?*
*उत्तर-* जब तक (वर्णाश्रम धर्मोंका) कर्मों का अभिमान बना है, तब तक ब्रह्मज्ञान या मुक्ति हो ही नहीं सकती। जब मुक्ति होती है, तब कोई कर्म शेष नहीं रहता। जैसे जब दीवाला निकल जावे तब लेने और देने की समाप्ति हो जाती है।
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