“वैदिक मांसाहारी नहीं हैं”
वर्तमान में कुछ स्वार्थी तत्त्वों द्वारा यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि वेदों में भी पशुओं की बलि और गौ मांस के सेवन का विधान है ।
मैं उन्हें यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वेदों में गौ मांस का कहीं कोई विधान नहीं है | राष्ट्र या साम्राज्य के वैभव, कल्याण और समृद्धि के लिए समर्पित यज्ञ ही अश्वमेध यज्ञ कहलाता है | “गौ” शब्द का अर्थ पृथ्वी भी होता है | पृथ्वी तथा पर्यावरण की शुद्धता के लिए समर्पित यज्ञ गौमेध कहलाता है |अन्न,इन्द्रियाँ,किरण,पृथ्वी, आदि को पवित्र रखना गोमेध है | इसी प्रकार जब मनुष्य मर जाय, तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहलाता है |
यजुर्वेद के कुछ उल्लेख देखिए -
“यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत: तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत:।”
सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं |
(यजुर्वेद ४०। ७)
“अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि।”
हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |(यजुर्वेद १।१)
“द्विपादव चतुष्पात् पाहि।”
हे मनुष्य ! दो पैर वाले की रक्षा कर और चार पैर वाले की भी रक्षा कर |(यजुर्वेद १४।८)
“पशूंस्त्रायेथां।"पशुओं का पालन करो |(यजुर्वेद ६।११)
"ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।”
सभी दो पाए और चौपाए प्राणियों को बल और पोषण प्राप्त हो | (यजुर्वेद ११।८३)
इसी प्रकार अथर्ववेद के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
“ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च।”
हे दांतों की दोनों पंक्तियों ! चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ |यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं | उन्हें मत मारो जो माता – पिता बनने की योग्यता रखते हैं |(अथर्ववेद ६।१४०।२)
इसी प्रकार वहीं कहा है-
“य आमं मांसमदन्ति पौरुषेयं च ये क्रविः
गर्भान् खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि।”
वह लोग जो नर और मादा, भ्रूण और अंड़ों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खाते, हमें उन्हें नष्ट कर देना चाहिए।(अथर्ववेद ८। ६।२३)
“अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः।”
निर्दोषों को मारना निश्चित ही महा पाप है | हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार |
(अथर्ववेद १०।१।२९)
मनुस्मृति में कहा है -
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः
मारने की आज्ञा देने वाला, पशु को मारने के लिए लेने वाला, बेचने वाला, पशु को मारने वाला,मांस को खरीदने और बेचने वाला, मांस को पकाने वाला और मांस खाने वाला यह सभी हत्यारे हैं।
(मनुस्मृति ५।५१)
वैदिक साहित्य में मांस भक्षकों को अत्यंत तिरस्कृत किया गया है | उन्हें राक्षस, पिशाच आदि की संज्ञा दी गई है जो दरिन्दे और हैवान माने गए हैं तथा जिन्हें सभ्य मानव समाज से बहिष्कृत समझा गया है |कुछ अर्थ देख सकते हैं -
१• क्रव्य दा – क्रव्य (वध से प्राप्त मांस ) + अदा (खानेवाला) = मांस भक्षक |
२•पिशाच — पिशित (मांस) +अस (खानेवाला) = मांस खाने वाला |
३•असूत्रपा – असू (प्राण )+त्रपा(पर तृप्त होने वाला) = अपने भोजन के लिए दूसरों के प्राण हरने वाला |
विचारणीय है कि जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी कैसे सकते हैं ?
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