जिज्ञासा : धर्म और अधर्म किसे कहते हैं? और आपात् धर्म क्या होता है?
समाधान : जिन गुणों को धारण करने से एक मनुष्य सही मायनों में मनुष्य बनता है उस को ‘धर्म’ कहते हैं अर्थात् जिन गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करने से मनुष्य का वर्तमान और भविष्य (इह लोक और परलोक) सुधरता है उसे ‘धर्म’ कहते हैं।
विशेष : धर्म और अधर्म की प्रमाणों सहित विस्तृत जानकारी के लिये पाठकवृन्द मेरी लिखी सर्वप्रथम पुस्तक ‘शंका-समाधान’ को पढ़ सकते हैं!
धर्म : शुभ कर्म करना तथा अच्छे गुणों को धारण करने का नाम ‘धर्म’ और इसके विापरीत ‘अधर्म’ है। मनुष्य की आत्मा को शुभ-अशुभ और अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है। अब आप ही बताइये कि - क्या चोरी करना चाहिये? नहीं! इसका अर्थ यही हुआ कि चोरी न करना ‘धर्म’ है और चोरी करना ‘अधर्म’! इसी प्रकार जिस-जिस कार्य के करने में हमें शंका, भय तथा लज्जा की अनुभूति होती हो वह कार्य त्यागने योग्य है अर्थात् वह अधर्म का काम है और जिस-जिस कार्य के करने पर मन में निःशंका, निर्भयता तथा उत्साह की भावना उत्पन्न हो वह कार्य अवयय करना चाहिये अर्थात् वह धर्म का कार्य है।
अधिक सरल भाषा में कहें तो जिन कार्यों के करने से स्वयं का तथा सब का भला होता है (पुण्य होता है) उस कार्य को धर्म-कार्य कहते हैं। जैसे अग्निहोत्र करना, सुपात्र को दान देना, बच्चों को शिक्षा प्रदान करना, संन्ध्या करना अर्थात् प्रातः और सायं ईश्वर का ध्यान स्मरण करना, वाणी से सत्य, प्रिय और परहितकारी वचन बोलना, किसी का दिल नहीं दुखाना आदि।
अधर्म : धर्म के विपरीत न करने योग्य सब कार्यों को अधर्म कहते हैं। अधार्मिक कार्य (पाप-कर्म) करने से कर्त्ता को ही नहीं, उसके सम्पर्क में आने वाले अन्य लोगोंको भी हानि होती है। अधर्म के बदले में सुख कभी नहीं मिलता अपितु दुःख ही दुःख प्राप्त होता है। अधर्म कर्मों का प्रभाव उसके परिवार के सदस्यों को भी भुगतना पड़ता है।
व्यभिचार करना, बलात्कार करना, पर-स्त्री गमन करना, शराब पीना, जुआ खेलना, चोरी, डकैती करना, धोखा देना, भ्रष्टाचार करना, देशद्रोही कार्य करना, अभद्र या अश्लील शब्द बोलना, गाली-ग़लोच करना, अपमान करना, निरापराध को दण्ड देना आदि-आदि कर्म अधर्म की श्रेणी में आते हैं। इनसे सदा दूर रहना ही धर्म है।
आपद्धर्म : इस प्रकारके कर्म जिनको सामान्य परिस्थितियों में करना उचित नहीं समझा जाता परन्तु असामान्य परिस्थिति धर्म-संकट की सिथति में यदि करना पड़े तो ऐसे कर्मों को हम आपात््धर्म कहते हैं।
आपात्धर्म की एक प्रसिद्ध मिसाल दी जाती है कि मानलो कि आप किसी चौराहे पर खड़े हैं। एक लहू-लूहान गाय एक ओर से भागती हुई आती है और दूसरी दिशा में भागती हुई चली जाती है। कुछ देर में आपने देखा कि दो कसाई भी भागे आ रहे हैं और उनके हाथों में ख़ून लगा हुआ छुरा भी है और वे आप ही से उसी गाय का पता पूछ रहे हैं – ‘क्या आपने किसी गाय को यहाँ से भागते हुए देखा है, वह हमारे हाथों से फिसल गई है? अब आप क्या जवाब देंगे? सोचिये! आप उस भागती हुई गाय को उन कसाइयों के हाथों कटने से बचाने के लिये क्या कहेंगे? आप भली-भाँति जानते हैं कि यदि आप सच बोलेंगे तो गाय ही हत्या अवश्य होगी और यदि उस समय झूठ का सहारा लेते हैं तो गाय बच जाएगी। यहाँ आपात्धर्म का सहारा लेकर आपका जवाब होगा – ‘जी नहीं, मैंने किसी गाय को नहीं देखा है’! यही है आपात्धर्म! यहाँ झूठ बोलना आपात्धर्म कहाता है।
आपात्धर्म भी जायज़ है। जैसे अपनी जान की रक्षा के लिये किसी ख़ूँखार जंगली जानवर की हत्या करना, सीमा पर देश की रक्षा के लिये शत्रुओं का सर्वनाश करना, जंगल में नरभक्षी शेर का शिकार करना, अनजान द्वीप पर या परदेश में भूख के मारे अपने प्राणों की रक्षा के लिये मजबूरी में माँसाहार करना आदि। ऐसी आपात्कालीन परिस्थितियों में धर्म और अधर्म को भूलकर अपनी जान की रक्षा करना ही ‘धर्म’ होता है। इसी को आपात्धर्म कहते हैं।
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