Tuesday, June 14, 2016

सत्यार्थ प्रकाश कवितामृत काव्यरचना : आर्य महाकवि पं. जयगोपाल जी स्वर : ब्र. अरुणकुमार...

सत्यार्थ प्रकाश कवितामृत
काव्यरचना : आर्य महाकवि पं. जयगोपाल जी
स्वर : ब्र. अरुणकुमार ‘‘आर्यवीर’’
ध्वनिमुद्रण : श्री आशीष सक्सेना (स्वर दर्पण साऊंड स्टूडियो, जबलपुर)

प्रथम समुल्लास भाग (१३)

प्रश्न
महाराज इक संशय भारी,
यह शंका मम करो निवारी।
ग्रन्थारम्भ आपने कीना,
प्रथम मंगलाचरण न दीना।
ग्रन्थकार हौं देखे जेते,
मंगलचार लिखें सब तेते।
ग्रन्थ आदि मध्य रु अवसाने,
सब मँह मंगलाचरण लखाने।

उत्तर
मगङलाचरणं शिष्टाचारात् फल दर्शनाच्छुतितश्चेति। - सांख्य दर्शन। अ. ५। सू. १
सांख्य शास्त्र ने ऐसा गाया,
प्रथम सूत्र पंचम अध्याया।
उचित नहीं यह मंगलचारा,
भेड़ चाल सा यह व्यौहारा।
आदि मध्य अरु अन्त स्थाने,
मंगलचार उचित जो माने।
तो उनके जो मध्य ठिकाना,
उन मँह आदि मध्य अवसाना।
उन ठौरन मँह रहे अमंगल,
इन बातों से होय न मंगल।
सुनहु तात हौं तोहे समझाऊँ,
सांख्य शास्त्र का भाव बताऊँ।
सत्य न्याय अरु वेदनुकूला,
पक्षपात को कर निर्मूला।
प्रभु आज्ञा अनुकूलाचारा,
जो आचरहि सो मंगलचारा।
इस विश्व आदि अन्त परयन्ता,
लिखे ग्रंथ साँचा श्री मन्ता।
ऐसा मंगलाचरण कहावे,
जो जन लिखे सो सिद्धि पावे।
तैत्तिरेय ऋषि की यह बानी,
क्या सुन्दर उपयुक्त बखानी।

‘‘यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि’’ - तैत्तिरीयोपनिषत् प्र. ७। अनु. १६

सुनहु कर्म जो धर्मनुसारा,
नित्य करहु उनका व्यवहारा।
कबहुं अन्य करे नहीं काजा,
याते लगे धर्म को लाजा।
आज कल्ह के लिखने हारे,
वेद शास्त्र नहीं पढ़ें बेचारे।
आदौ गुरु गणेश कँह ध्यावहिं,
कोउ शिव राधाकृष्ण मनावहिं।
कोऊ सिमरें दुर्गा हनुमाना,
सरसुति सों चाहें कल्याना।
यह सब वेद शास्त्र विपरीते,
निष्फल सगरे फल ते रीते।
आर्ष ग्रंथ बहु हमने देखे,
ऐसे मंगलचार न पेखे।

‘अथ शब्दानुशासनम्’ अथेत्ययं शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते, इति व्याकरण महाभाष्ये।
‘अथातो धर्मजिज्ञासा’ अथेत्यानन्तर्ये वेदाध्ययनानन्तरम् इति पूर्व मीमांसायाम्।
‘अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः’। अथेति धर्मकथनानन्तरं धर्मलक्षणं विशेषेण व्याख्यास्यामः - वैशेषिक दर्शने।
‘अथ योगानुशासनम्’। अर्थत्ययमधिकारार्थः - योग शास्त्रे।
‘अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृतिरत्यन्तपुरुषार्थः।’ सांसारिकविषयभोगानन्तरं त्रिविधदुःशात्यन्तनिवृत्यर्थः प्रयन्तः कर्त्तव्यः। - सांख्य शास्त्रे
‘अथातोब्रह्मजिज्ञासा’। चतुष्टयसाधनसंपत्त्यनन्तरं ब्रह्म जिज्ञास्यम्। - इदं वेदान्त सूत्रम्।
‘ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत’। - इदं छान्दोग्योपनिषद्वचनम्
‘ओमित्येतदक्षरमिद सर्वं तस्योपव्याख्यानम्’। - इदं च माण्डूक्योपनिषद्वचनम्

यह आरम्भिक पद हैं सारे,
इनते अन्य ग्रंथ हैं न्यारे।
कहीं न देखा मंगलचारा,
यह आधुनिक मूढ़ व्यौहारा।
‘अथ’ अरु ओ३म् शब्द दो आए,
ग्रंथारम्भे मुनिन लगाए।

दोहा
‘ये त्रिषप्ता परियन्ति’, आदौ वाक्य सुहाय।
‘अग्नि’ ‘इट्’ अरु ‘अग्नि’ यह, चारहु वेद लखाय।।

गुरु गणपति आदिक कहुं नाँही,
वेदशास्त्र ग्रंथन के माँही।
‘हरि ओ३म्’ यह वाक्य प्रयोगा,
नहीं आदि में रखने योगा।
यह तांत्रिक पौराणिक रीति,
वेद विरुध यह निपट अनीति।
अथ अरु ओ३म् आदि मँह ध्यावहिं,
जो ध्यावहि निश्चय फल पावहिं।

।। इति श्री आर्य महाकवि जयगोपाल रचिते
सत्यार्थप्रकाशकवितामृते
प्रथमः समुल्लासः समाप्तः।।

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