◆ भारत / विश्व के इतिहास पर करीब 300 pdfs
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◆ भारत / विश्व के इतिहास पर करीब 300 pdfs
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◆ जीवन चरित संग्रह: हिंदी / अंग्रेजी में महापुरुषों के करीब 170 जीवन चरित
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◆ वैदिक साहित्य : हिंदी / अंग्रेजी में करीब 280 पुस्तकें…
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◆ ईसाई मत खण्डन के लिए हिंदी/अंग्रेजी में करीब 380 पुस्तकें…
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नमस्ते जी
हमारे साथ जुड़े हुए पाठकगण यदि सोए हुए तो कृप्या अन्यों के लिए नही तो कमसे कम स्वयं के लिए जागे।
उक्त प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर इसप्रकार से जाने।
१ ) मनुष्य जीवन मे अर्थात मनुष्यरूपी शरीर के प्रयोजन का प्रयोजक साधन *धर्म* है।
२ ) अभ्युदय उसे कहते है जो लौकिक और पारलौकिक उन्नति से सम्पन हो। अर्थात *जो अर्थ और काम की प्राप्ति होती हो, वह निःश्रेयस में सहायक हो, और निःश्रेयस के लिए सम्पन्न हो।*
३) निःश्रेयस की प्राप्ति अत्यन्त दुःखों से छूटना अर्थात *नि: = नितान्त, श्रेयस= कल्याण निःश्रेयस धर्म की भूमि पर पनपता है और धर्म, अर्थ और काम को निःश्रेयस की छांव रहती है।* अर्थात इतरेइत्तराश्रय
४ शास्त्र *विषयी* है और तत्त्वज्ञान *विषय* अर्थात जिसमें विषय रहता हो वह विषयी = शास्त्र।
मुक्ति *कार्य* है और *तत्त्वज्ञान* कारण। अर्थात पदार्थो का वर्णन करने से ज्ञायक और पदार्थ ज्ञेय अर्थात जानने योग्य।
५ ) निःश्रेयस को ध्यान में रखते हुए अभ्युदय की प्राप्ति करनी चाहिए अर्थात हमारे पास साधन व कामनाएं हो वह धर्म के अनुकूल होने से निःश्रेयस के सहायक है और जो अभ्युदय में अन्याय युक्त साधन की प्राप्ति है अर्थात अधर्म से की गई प्राप्ति से भी अभ्युदय तो होता है केवल इसी जीवन में किन्तु आगे के लिए बाधक है।
शेष प्रश्नों का उत्तर देना का पाठकगण कृप्या प्रयास करें।
नमस्ते जी
पूर्णावर्तन में समस्त पाठकगण का स्वागत है।
अब तक हमने जो जाना - समझा है उन्ही में से प्रश्न होंगे, और इससे पाठकगण का अभ्यास भी ठीक हो जाएगा।
प्रश्न १ ) मनुष्य के प्रयोजन का प्रयोजक कौनसा साधन है ? अर्थात प्रयोजन का सहायक होने से उनका साधन है। मनुष्य को अपना प्रयोजन सिद्ध करना हो, तो साधन तो चाहिए और उस प्रयोजन को सिद्ध करने का सबसे उत्तम और अनिवार्य साधन है।
वह साधन कौनसा है ?
२ ) अभ्युदय किसे कहते है ?
३) निःश्रेयस की प्राप्ति किसे कहते है ? निःश्रेयस किस की भूमि पर पनपता है और किस की छांव है ?
४ ) शास्त्र और तत्त्वज्ञान में कौन विषय और विषयी है ? मुक्ति और तत्वज्ञान में कौन कारण है और कौन कार्य ?
५ ) किसे ध्यान में रखते हुए अभ्युदय को प्राप्त करते है, वही व्यक्ति सम्यक रूप से प्राप्त करेंगे।
६ ) इस शास्त्र के अनुसार लक्षण कितने प्रकार के होते है ?
कौन कौन से ?
७ ) जो द्रव्य धर्म रूप में था वह कार्यद्रव्य में आने से धर्मी बनजाता है उनका उदाहरण बताने का प्रयास करें
८) ईश्वर ने संसार क्यों बनाया है ?
९ ) वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है वह कैसे प्रमाणित होता है ?
१० ) क्या अधर्म को अधर्म बताना या कहना भी धर्म है ?
यदि किसी सदस्य ने उत्तर दे दिया है और उसे ऐसा ज्ञात हो कि यह उत्तर मुझे भी ज्ञात था तो वह अपनी सहमति दे देवें।
यमुना नदी के किनारे सफेद पत्थरों से निर्मित ‘ताजमहल’ की न केवल भारत में, बल्कि पूरे विश्व में अपनी पहचान है। ताजमहल को दुनिया के सात आश्चर्यों में शामिल किया गया है। हालांकि इस बात को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं कि ताजमहल को शाहजहां ने बनवाया है या फिर किसी और ने। भारत के मशहूर इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने ताजमहल को हिंदू संरचना साबित किया था। पीएन ओक ने अपने शोध पत्रों के माध्यम से साबित किया था कि ताजमहल मकबरा नहीं बल्कि तेजोमहालय नाम का हिंदू स्मारक था। तब नेहरूवादी और मार्क्सवादी इतिहासकारों ने उनका खूब मजाक उड़ाया था, लेकिन अब अमेरिका के पुरातत्वविद प्रो. मार्विन एच मिल्स ने ताजमहल को हिंदू भवन माना है। उन्होंने अपने शोध पत्र में सबूत के साथ स्थापित किया है। इतिहास में झूठ और फरेब स्थापित करने में लगे नेहरूवादी और मार्क्सवादी इतिहासकारों को इससे चोट पहुंच सकती है।
अमेरिका के न्यूयॉर्क स्थित प्रैट इंस्टीट्यूट के प्रसिद्ध पुरात्वविद तथा प्रोफेसर मार्विन मिल्स ने ताजमहल का विस्तृत अध्ययन किया और उस पर अपना शोध पत्र भी लिखा। ताजमहल पर लिखा उनका शोध पत्र उस समय न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित हुआ था। उनके शोध से ही ताजमहल के बारे में नए तथ्य सामने आए हैं। जो भारतीय इतिहासकार ओक के दावों की पुष्टि करते हैं की ताजमहल मकबरा ना होकर एक हिन्दू संरचना हैं।
मिल्स ने अपने शोध पत्र में जोर देते हुए कहा है कि शुरू में ताजमहल एक हिंदू स्मारक था, जिसे बाद में मुगलों ने कब्जा कर उसे मकबरे में बदल दिया। उन्होंने अपने शोधपत्र में ताजमहल से जुड़े ऐसे-ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य दिए हैं कि कोई उसे झुठला नहीं सकता। ताजमहल की बाईं ओर एक भवन है जो अब मसजिद है। वह मसजिद पश्चिमाभिमुख है यानि उसका मुख पश्चिम की ओर है। सवाल उठता है कि अगर उसे मूल रूप से मसजिद के रूप में बनाया गया होता तो उसका मुख पश्चिम की बजाय मक्का की ओर होता। जबकि यह मसजिद पश्चिमोन्मुख है।
इसकी मीनारें भी बताती हैं कि यह मसजिद का नहीं बल्कि हिंदू स्मारक की प्रतीक हैं। ताज महल के चारों ओर बनाई गई मीनारें भी कब्र या मसजिद के हिसाब से उपयुक्त नहीं है। तर्क के साथ देखें तो इन चारों मीनारों को मसजिद के आगे होना चाहिए, क्योंकि यह जगह नमाजियों के लिए होती हैं। जबकि चारों मीनारें मसजिद की चारों ओर बनाई गई हैं। जो हिंदू स्मारकों की दृष्टि से बिल्कुल उपयुक्त है।
इस प्रकार उन्होंने अपने शोधपत्र के माध्यम से यह अपील की है कि ताजमहल के उद्भव को जानने के लिए कार्बन -14 और थर्मोल्यूमिनेन्सेंस के माध्यम से असली तारीख तय की जा सकती है। इसके लिए भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग को सरकार से इस कार्य को पूरा कराने का अनुरोध करना चाहिए। ताकि इस विश्व धरोहर की सच्चाई देश और देशवासियों के सामने आ सके।
मिल्स ने कहा है कि वैन एडिसन की किताब ताज महल तथा जियाउद्दीन अहमद देसाई की लिखी किताब द इल्यूमाइंड टॉम्ब में काफी प्रशंसनीय आंकड़े और सूचनाएं हैं। जो इनलोगों ने ताजमहल के उद्भव और विकास के लिए समकालीन स्रोतों के माध्यम से एकत्रित किए थे। इनमें कई फोटो चित्र, इतिहासकारों के विवरण, शाही निर्देशों के साथ-साथ अक्षरों, योजनाओं, उन्नयन और आरेखों का संग्रह शामिल है। लेकिन दोनों इतिहासकारों ने प्यार की परिणति के रूप में ताजमहल के उद्भव की बात को सिरे से खारिज कर दिया है। दोनों इतिहासकारों ने ताजमहल के उद्भव को मुगलकाल का मानने से भी इनकार कर दिया है।
मिल्स ने ताजमहल पर खड़े किए ये सवाल
ताजमहल के दोनों तरफ बने भवनों को गौर से देखिए। कहा जाता है कि इसमें से एक मसजिद के रूप में कार्य करता है तो दूसरे का अतिथि गृह के रूप में उपयोग किया जाता। जबकि दोनों भवनों की बनावट एक जैसी है। सवाल उठता है कि जो शाहजहां अपनी बीवी के प्रेम में ताजमहल बनवा सकता है क्या वे दो प्रकार के कार्य निष्पादन करने के लिए एक ही प्रकार का भवन बनवाया होगा। दोनों भवनो को भिन्न-भिन्न प्रकार से बनाया जाना चाहिए था?
दूसरा सवाल है कि जब मुगलों ने भारत पर आक्रमण किया था उसी समय देश में तोपें आ गई थी, उसके बाद भी आखिर ताजमहल परिसर की दीवारें मध्ययूगीन, तोपखाने पूर्व तथा रक्षात्मक क्यों थीं? सवाल उठता है कि कि कब्र के लिए सुरक्षात्मक दीवार की आवश्यकता क्यों? (जबकि किसी राजमहल के लिए ऐसा होना अनिवार्य होता है )
तीसरा सवाल है कि आखिर ताजमहल के उत्तर दिशा में टेरेस के नीचे 20 कमरे यमुना की तरफ करके क्यों बनाए गए? किसी कब्र को 20 कमरे कि क्या जरूरत है? किसी कब्र को 20 कमरे कि क्या जरूरत है? जबकि राजमहल की बात अलग है क्योंकि कमरे का अच्छा उपयोग हो सकता था।
चौथा सवाल है कि ताजमहल के दक्षिण दिशा में बने 20 कमरों को आखिर सील कर क्यों रखा गया है। आखिर विद्वानों को वहां प्रवेश क्यों नहीं है ? विद्वानों को अंदर जाकर वहां रखी चीजों का अध्ययन करने की इजाजत क्यों नहीं दी जाती है?
पांचवां और सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर यहां जो मसजिद है वह मक्का की तरफ नहीं होकर पश्चिम की ओर क्यों है ? अगर यह सातवीं शताब्दी की बात होती तो इसमें कोई परेशानी नहीं थी।
छठा सवाल उठता है कि आखिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने ताजमहल की वास्तविक तारीख तय करने के लिए कार्बन -14 या थर्मो-लुमिनिस्कनेस के उपयोग को ब्लॉक क्यों कर रखा है? अगर इसकी इजाजत दे दी जाती है तो ताजमहल के उद्भव को लेकर उठने वाले विवाद तुरंत शांत होंगे क्योंकि इस विधि से आसानी से पता लगाया जा सकता है कि ताजमहल कब बना था? लेकिन न तो इसके लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण तैयार है न ही भारत सरकार।
अब जब ताजमहल को लेकर नए-नए तथ्य उजागर होने लगे हैं तो मुसलमानों ने अपनी मंशा जाहिर कर दी है। तामजमहल को लेकर अपनी धार्मिक बुनियाद मजबूत करने के लिए ही मुसलमानों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर नमाज अदा करने की इजाजत मांगी थी। लेकिन उनकी मंशा को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उनकी मांगें खारिज कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह विश्व धरोहर के साथ ही दुनिया के सात अजूबों में से एक है। इसलिए इसलिए इसे ध्यान में रखने हुए ताजमहल स्थित मसजिद में नमाज अदा करने की कोई अनुमित नहीं दी जाएगी। नमाज कहीं और भी अदा की जा सकती है।
*प्रश्न :- धर्म तो श्रद्धा और भावना का विषय है फिर उसमें तर्क करने की क्या आवश्यक्ता है ?*
*उत्तर :-* यस्तर्केणानुसन्धते स धर्मम् वेद नेतरः ।। ( मनुस्मृति 12/106)
जो तर्क के द्वारा अनुसंधान करता है उसी को धर्म का तत्व बोधित होता है ।धर्म का ज्ञान सत्य जाने बिना प्राप्त नहीं होता।मानो तो देव ,ना मानो तो पत्थर ।ऐसा कहने वालो से एक बार पूछो की मै आपको दस का नोट सौ रुपए मान कर देता हूं ।आप दस के नोट को सौ रुपए मान कर रख लो।क्या आपका कहा मानकर वह दस रुपए का नोट सौ रुपए का मान कर रख लेगा ।कदापि नहीं मानेगा वो। वह उसे दस का ही नोट मानेगा।इसलिए कोई भी चीज केवल मान लेने से नहीं बल्कि सत्य मानने और होने से ही होती हैं।जैसे पत्थर की मूर्ति को भगवान मान लेने से वह भगवान नहीं कहलाएगी।वह पत्थर की मूर्ति जड़ ही कहलाएगी ।चेतन नहीं।और ईश्वर का स्वरूप चेतन है ।मूर्ति में ईश्वर अवश्य है क्युकी ईश्वर सर्वव्यापक है परन्तु पूजा और उपासना ईश्वर की वहा हो सकती जहां आत्मा और पमात्मा दोनों ही विराजमान हो।मूर्ति में ईश्वर तो है परन्तु आत्मा नहीं है क्युकी मूर्ति तो जड़ पदार्थ है ।मूर्ति प्रकृति के अंश से बनी है ।लेकिन आपके हृदय -मन मंदिर में आत्मा भी है और परमातमा भी है ।अत:अपने मन में आत्मा द्वारा योग विधि द्वारा हृदय में बसने वाले परमात्मा की पूजा करो।
किसी पदार्थ में श्रद्धा तो उस पदार्ध को यथार्थरूप में जानने पर ही होती है । तो यदि तर्क से धर्म के शुद्ध विज्ञान को न जाना तो श्रद्धा किस पर करोगे ? कटी पतंग की भांती इधर उधर उड़ना ठीक नहीं है ।
सत्य जानकर उस पर विशवास करना ही *श्रद्धा* कहलाती है ।
और सत्य जाने बिना विश्वाश कर लेने को *अंधश्रद्धा* कहते है ।
लोगो ने धर्म व ईश्वर के सम्बन्ध में अंधश्रद्धा को श्रद्धा समझ कर मानना प्रारम्भ कर दिया है ।
जैसे मुसलमानो की कब्रो , साईं जैसे पीरो, मजारो को भगवान् की तरह पूजना *अंधश्रद्धा* व उनकी सच्चाई जानकार की ये सभी तो दुस्ट मुसलमानो की कब्रे है , उन कब्रो का तिरस्कार करना ही *श्रद्धा* है ।
हनुमान व गणेश को बन्दर हाथी , शिवजी को भंगेडी, क्रष्ण को रसिया मान लेना *अंधश्रद्धा* , इन्हें महापुरुष मानना श्रद्धा है।
पुराणों की जादू चमत्कारों की झूठी कथाओं को सच मानना *अंधश्रद्धा* व वेदज्ञान को जान परख कर धर्म का आधार मानना *श्रद्धा* है ।
श्रद्धा और विश्वास के साथ सत्य का होना नितांत आवश्यक हैं ।क्युकी ज्ञान -विज्ञान से रहित आस्था ही अंधविश्वास कहलाती हैं।
और धर्म को अनुसन्धान बुद्धि विवेक से जाने 🙏🏼🙏🏼
ओ३म् .राहुल क्रांतिकारी आरय।
◆ क्या यीशु / जीसस ही एक मात्र उद्धारक है?
ईसाई लोगों की दृढ़ व प्रमुख मान्यता है कि मुक्ति केवल यीशु के माध्यम से ही मिल सकती है और ईसाई धर्मांतरण भी ठीक इसी बात पर आधारित है कि यीशु में विश्वास से सभी पाप धूल जाते है और हमेशा के लिए मुक्ति (salvation) मिल जाती है। इसलिए हिंदुओ व अन्य लोगों, जिसका धर्मांतरण करने की कोशिश की जाती है, के लिए ईसाईयत की इस प्रमुख मान्यता को समझना नितान्त आवश्यक हो जाता है।
ईसाई मत की नींव ही पाप (sin) और उससे उद्धार (Salvation) की विचारधारा है। ईसाई मत (बाईबल) के अनुसार आदम (Adam) और हव्वा (Eve) पहले पुरुष और महिला थे और बाइबिल के अनुसार वे शैतान (Satan) के बहलावे में आकर ईश्वर (God / Yahve / Jehovah) के विरुद्ध हो गए और अदन के बाग (Garden of Eden) में ज्ञान के वृक्ष (tree of knowledge) का फल खाकर पहला पाप (original sin) किया। उस पहले पाप का संक्रमण आदम और एव की आनेवाली सन्तानो (पूरी आदमजात) में हो गया और इसी कारण हम सभी (आदमी) जन्म से ही पापी पैदा होते हैं। (ज्ञान का फल खाने से मनुष्य पापी हो गया! क्यो? क्या ईसाइयों का गॉड नही चाहता था कि आदमी ज्ञानी हो? विचित्र!!) हमारा उद्धार ईश्वर के एक ही बेटे (दि ओन्ली सन ऑफ गॉड), जिसका नाम यीशु /जीसस है, उनके द्वारा होता है। यीशु को ईश्वर ने धरती पर हमारा उद्धार करने के लिए भेजा था। यीशु ने हमें हमारे और आदम और हव्वा के पहले पाप से बचाने के लिए सूली / सलीब /cross पर अपनी जान दी, और उनके खून ने वे पाप धो दिए! (यदि ज्ञान के वृक्ष का फल खाना पाप है, तो पाप एक ने किया; दोषी कोई दूसरा हुआ; और पाप धोने के लिए कोई तीसरा ही भेजा गया !!) अस्तु।
जो यीशू को अपना मुक्तिदाता (saviour) स्वीकार करके ईसाई बनते हैं, उनको तुरंत पापों से बचाने का विश्वास दिलाया जाता है। यीशु पर विश्वास ही पाप से मुक्ति का एक मात्र आधार है, न कि हमारे अपने के कर्म!! ईसाई मत के अनुसार, यीशू को स्वीकार किए बिना आप चाहे कितना ही अच्छा जीवन जिओ या कितने ही अच्छे पुण्य कर्म करो, आप (आदम-ईव का पाप जो आप में संक्रमित हुआ है उनसे) मुक्ति नहीं पा सकते! आपका उद्धार नहीं हो सकता!! जो लोग यीशू को स्वीकार नहीं करते वे हमेशा के लिए अभिशप्त (cursed / damned) हो जाते हैं, चाहे वो कितने ही अच्छे और विवेकशील क्यों ना हों। यीशू को स्वीकार करने या ना करने का निर्णय लेने के लिए हर इंसान को सिर्फ एक ही जीवन मिलता है; इसके बाद यह निर्णय अनंतकाल तक बदला नहीं जा सकता।
यह बाईबल का एक संक्षिप्त वृत्तान्त है। इन शॉर्ट, बिना यीशू के कोई ईसाईयत नहीं और यीशू में विश्वास के अलावा कोई उद्धार नहीं। यीशू में विश्वास के द्वारा उद्धार और स्वर्ग में जगह पाने की धारणा ही ईसाई धर्मपरिवर्तन के प्रयत्नों और ईसाई बनाने के लिए किये जाने वाले ‘बप्तिस्मा’ (baptism) का आधार है।
हमारे यहाँ ईसाई मत की पाप से मुक्ति (salvation) की मान्यता और सनातन धर्म के ‘मोक्ष’ को एक जैसा मानने की एक सतही सोच और बिना प्रश्न किये कुछ भी स्वीकार कर लेने का तरीका चला आ रहा है। यही बात संस्कृत शब्द ‘धर्म’ को आस्था, मत, पंथ (religion) के ही बराबर मान लेने की बात के बारे में कही जा सकती है। वैदिक / सनातन / हिन्दू धर्म में पूर्वजों या शैतान के कोई ‘पहला पाप’ की धारणा नहीं है, जिसके लिए हमें प्रायश्चित करना पड़े। ग़लत कर्म और अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है। यह अज्ञानता सत्य के ज्ञान और एक उच्चतर चेतना के विकास से दूर होती है, न कि सिर्फ आस्था से। हमारी वर्तमान स्थिति हमारे कर्मों के परिणाम स्वरुप हैं और इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। कुछ कर्म स्वाभाविक रूप से गलत होते हैं। ये किसी देवता की आज्ञा पर निर्भर नहीं करते, बल्कि धर्म और प्राकृतिक नियमों को तोड़ने पर निर्भर करते हैं। हमारे यहां उद्धार या आध्यात्मिक बोध ईश्वर के इकलौते पुत्र या अंतिम नबी के रूप में किसी प्रतिनिधि द्वारा नहीं होता। न यीशु और न ही कोई दूसरी हस्ती आपको आपके कर्मों के फल से बचा सकती है, न आपको सत्य का बोध करवा सकती है। केवल किसी पर विश्वास कर लेने / ईमान लाने या किसी को अपना उद्धारक / अंतिम रसूल मान लेने से व्यक्ति अपने कर्मों और अज्ञानता से परे नहीं जा सकता। यह केवल खयाली पुलाव है। जिस प्रकार कोई दूसरा व्यक्ति आपके बदले खाना नहीं खा सकता या आपके बदले शिक्षित नहीं हो सकता, उसी प्रकार आपको अपने पुण्य कर्मों से, ईश्वर की उपासना से सार्वभौमिक चेतना तक पहुँचने के लिए के स्वयं ही आध्यात्मिक उन्नति करनी होती हैं।
यदि बाइबल के नये करार (New Testament) की प्रथम चार पुस्तके, जिसे सुसमाचार - Gospels कहा जाता है, में वर्णित यीशु को एक ऐतिहासिक व्यक्ति मान कर चले (हालांकि पिछले 200 - 250 वर्षों में पश्चिम के विद्वानों ने यीशु के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है), तो हम यीशु के द्वारा दिखाई गयी करुणा का सम्मान कर सकते हैं, लेकिन पाप और उद्धार की ईसाई धारणा सत्य से बहुत दूर है, हास्यास्पद है।
ઈ-પુસ્તક ई-पुस्तक
મહર્ષિ દયાનંદ સરસ્વતી महर्षि दयानन्द सरस्वती
જીવન ચરિત્ર લેખક :- સ્વામી સચ્ચિદાનંદ जीवन चरित्र लेखक :- स्वामी सच्चिदानन्द
પ્રકાશક :- ગુર્જર સાહિત્ય ભવન - અમદાવાદ प्रकाशक :- गुर्जर साहित्य भवन
સ્વામી સચ્ચિદાનંદ આર્ય સમાજ ના સભ્ય કે અનુયાયી નથી છતાં મહર્ષિ દયાનંદ જી પ્રત્યે માનભાવ રાખે છે. આ જીવન ચારિત્રમાં સ્વામી દયાનંદજી ના અને આર્ય સમાજ નાં ઉપકારોને ધ્યાન માં રાખીને અને પોતાના સ્વતંત્ર વિચારો, મતભેદ સાથે રજુ કરેલ છે. વાંચન કરવા જેવું પુસ્તક છે.
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स्वामी सच्चिदानन्द आर्य समाज के सदस्य या अनुयायी न होते हुए भी महर्षि दयानन्द जी के प्रति आदर भाव रखते हैं | इस जीवन चरित्र में स्वामी दयानन्द जी के और आर्य समाज एक उपकारों को ध्यान में रख कर लेखक ने अपने स्वतन्त्र विचारों, मतभेदों सहित प्रस्तुत किया है | पुस्तक पठनीय है |
http://mavjibhai.com/EB…/Maharshi%20Dayanand%20Saraswati.pdf
http://mavjibhai.com/ebooksection.htm
સાદર
વિશ્વપ્રિય વેદાનુરાગી
आश्चर्यजनक, दुखद लेकिन सत्य
पुष्टिमार्ग के संस्थापक श्री वल्ल्भाचार्य जी के पूज्य पिताजी श्री लक्ष्मण भट्ट जी/दीक्षितजी के दो पत्नियां थीं, जिनमें से एक पत्नी यल्लामागारू, अपने पति के निधन के बाद सती हुई थीं ।
श्रीवल्ल्भदिग्विजयम् नामक पुस्तक में लिखा है कि :- “विद्यानगर के राजपुरोहित काश्यप गोत्री सुशर्मा जी की कन्या यल्लमागारू और इल्लमागारू के साथ आपका परिणयन हुआ।”
पूज्य वल्ल्भाचार्य जी का काल सन्न 1478-1530 है।
इसी पुस्तक के पृष्ठ 65 में लिखा है कि “और मकरार्क आने पर दीक्षित जी वैकुण्ठ को प्राप्त हुए। आपकी दूसरी पत्नी यल्लमा जी आपके ऊपर सती हुई।”
कितना आश्चर्य है की वेद के विद्वान् पति के पीछे एक विदुषी-पत्नी सती हुई ?
एक ही पत्नी सती क्यों हुई ? दोनों क्यों नहीं ?
या
कितना ही अच्छा होता यदि दोनों ही सती न होतीं ?
खैर जो भी हो लेकिन दुखद आश्चर्यजनक बात है |
संदर्भ प्रमाण- आधार साभार :- [[श्रीवल्ल्भदिग्विजयम्, (श्रीयदुनाथदिग्विजयनाम्ना प्रसिद्धम्), लेखक :- आदिषष्ठपीठाधीश्वराचार्य गोस्वामि-श्रीयदुनाथ-महाप्रभुणा प्रणीतम्, पृष्ठ 59-65, श्री वल्ल्भ पब्लिकेशन्स बड़ौदा-दिल्ली)
धन्यवाद
विदुषामनुचर
विश्वप्रिय वेदानुरागी
*(इस पोस्ट का उद्देश्य केवल जानकारी सांझा करना है, न की किसी व्यक्ति विशेष का अपमान करना है। )*
◆ *गांधी और नाथूराम गोडसे*
आज 15 नवम्बर है। आज ही के दिन नाथूराम गोडसे को फांसी दी गई थी। उन पर महात्मा गाँधी की हत्या का आरोप था। आज़ादी के बाद करीब 60 वर्षों गोडसे को एक “आतंकवादी” के रूप में प्रदर्शित किया गया, परंतु क्या गोडसे हिंसा का समर्थन करते थे? बिल्कुल नहीं। इस संदर्भ में गांधी के किन किन विचित्र विचारों तथा क्रियाकलापों की अंतिम परिणति उनकी हत्या में हुई, यह जानना भी नितांत आवश्यक है।
“मुझे पता हे इसके [ गांधी हत्या के ] लिए मुझे फांसी होगी; मैं इसके लिए भी तैयार हूँ।… यदि मातृभूमि की रक्षा करना अपराध हे तो मैं यह अपराध बार बार करूँगा, हर बार करूँगा।… जब तक सिन्ध नदी पुनः अखंड हिन्द में न बहने लगे तब तक मेरी अस्थियो का विसर्जन नहीं करना।… मुझे फ़ासी देते वक्त मेरे एक हाथ में केसरिया ध्वज और दूसरे हाथ में अखंड भारत का नक्शा हो।… मैं फ़ासी चढ़ते वक्त अखंड भारत की जय बोलना चाहूँगा हे "भारत माँ। मुझे दुःख हे मैं तेरी इतनी ही सेवा कर पाया।” - क्या ये शब्द किसी आतंकी के हो सकते है?
◆ गांधी हत्या के वास्तविक इतिहास और कारणों को जानबूझकर दबाकर नाथुराम गोडसे को एक “हत्यारा” और “आतंकी” (जिहादी आतंक के साथ संतुलन करने के लिए आजकल “हिन्दू हत्यारा” और “भगवा आतंकी”) के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है, यह पूरे घटनाक्रम का एक पहलू है। दूसरा पहलू और गांधी हत्या की वास्तविकता जानने के लिए पढ़े…
◆ *गांधी वध क्यों?* (गोपाल गोडसे)
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◆ *अहिंसा का गांधी दर्शन* (डॉ. शंकर शरण)
https://drive.google.com/file/d/1H-znuOQiHkCXAvr2vLwMvdHr30wZ_ooe/view?usp=drivesdk
◆ *गांधी-जिन्ना-नेहरू* (डॉ. शंकर शरण)
https://drive.google.com/file/d/1CWxJv8E_DUF-VLCfw7Kr3zLJcvLGPPYy/view?usp=drivesdk
◆ *देश के प्रति गांधी के अपराध* (विजय कुमार सिंघल)
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◆ *आर्यसमाज और गांधी* (पं. चमूपति जी)
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◆ *गोडसे की आवाज सुनो* (गोपाल गोडसे)
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◆ *Gandhi, Khalifat and Partition* (Dr. N.S. Rajaram)
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◆ *Gandhi and Godse* (Dr. Koenraad Elst)
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◆ *Murder of Mahatma* (Justice G.D. Khosla)
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◆ *ગાંધી હત્યા અને ગોડસે*
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◆ *ગાંધી: ભારત માટે અભિશાપ* (આંનદ પ્રકાશ મદાન)
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