Thursday, April 30, 2015

जानिये आर्य समाज क्या है????~ आर्य समाज श्रेस्ट पुरुषो का एक विश्व-कल्याण हेतु संगठन है यह कोई मत...

जानिये आर्य समाज क्या है????~

आर्य समाज श्रेस्ट पुरुषो का एक विश्व-कल्याण हेतु संगठन है यह कोई मत या सम्प्रदाय नही है । यह एक वैचारिक आंदोलन ओर क्रान्ति है ।।
आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने सन् 1875 में मुम्बई में की।

आर्य समाज की स्थापना के समय भारतवर्ष अंग्रेजो का गुलाम था।

स्त्रियों और शुद्रो (दलितों) पर अत्याचार हो रहे थे । धर्म तथा विद्या के नाम पर अधर्म और अविद्या फेल रही थी ।
ईसाई और मुसलमान लोग लालच देकर अथवा जोर-जबरदस्ती करके हिन्दुओ को ईसाई और मुसलमान बना रहे थे ।
हर तरफ पाखण्ड और अंध विश्वाश था।

स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना समाजसुधार के लिये

स्त्रियों एव शुद्रो के उद्धार के लिए

सच्चे वैदिक धर्म के प्रचार के लिए

स्वराज्य की स्थापना के लिए तथा अन्धविश्वाश पाखण्ड अधर्म आदि को दूर करने के लिए की थी ।।।
स्वामी जी आर्य समाज के छटे नियम में लिखते है~
“संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उध्येष्य है अर्थात शारीरिक , सामाजिक और आत्मिक उन्नति करना"।।

🙏 मित्रो आर्य समाज को समझे और वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर अपना अमूल्य जीवन सफल बनाये तथा ओरो को भी बताये ।।।। ।


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ये 24 जैन तीर्थकर की सुची है इसमे नाम तीर्थकर , देह की लम्बाई ,आयु बताई गई है। जैन मे पहले...

ये 24 जैन तीर्थकर की सुची है इसमे नाम तीर्थकर , देह की लम्बाई ,आयु बताई गई है।

जैन मे पहले तीर्थकर
1- ‘ऋषभदेव’ हुए जिनकी देह की लम्बाई 2500 फिट
और आयु 8400000 वर्ष थी

और
24वे तीर्थकर 

24- महावीर स्वामी
देह की लम्बाई 10 1/2फुट 
आयु 70 वर्ष

पाठयो स्वयं निर्णाय करे

मित्रो जो इस्लाम की जानकारी रखते ध्यान देवे

जैन के 21वे तीर्थकर 'नमिनाथ’ हुए
जिसकी देह की लम्बाई 70 फिट थी और आयु 1000 वर्ष थी

और इस्लाम के पहले मानव या पैग्मबर
हजरत आदम की देह की लम्बाई 70 फिट और आयु 1000 वर्ष थी


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🚩क्या है सत्यार्थ प्रकाश🚩 ऐसा क्या है इस सत्यार्थ प्रकाश में कि 1 जिसे पड़ कर बड़े बड़े मौलवी भी...

🚩क्या है सत्यार्थ प्रकाश🚩

ऐसा क्या है इस सत्यार्थ प्रकाश में कि
1 जिसे पड़ कर बड़े बड़े मौलवी भी हिंदु बन गए जैसे वर्तमान में महेन्द्रपाल आर्य जो की अमृतसर में फारसी भाषा के विद्वान मौलवी थे आज जाकिर नायक भी इनसे डिबेट करने से कतराता है

2 जिसे पढ़ कर लाला लाजपत राय ने वकालत छोड़ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में पूरा जीवन लगा दिया

3 जिसे पढ़ कर पन्डित लेखराम ने अपने मरते हुए बच्चे को भी छोड़ कर , मुस्लिम होने जा रहें लोगो को बचाने निकल पडे और ट्रेन न रुकने पर उसमे से छलांग लगा दी और उन्हेँ मुस्लिम होने से बचा लिया

4 जिसे पड़ कर पण्डित गुरुदत्त विधार्थी जो उस समय जगदीश चन्द्र बसु के आलावा विज्ञानं के इकलौते प्रोफेसर थे को ऐसा पागल कर दिया की वे अपने शरीर पर आर्यसमाज के नियम के लिखे कपड़े को पहन कर नुक्क्डो पर सत्यार्थ प्रकाश बाटा करते थे

5 जिसे पढ़ कर राम प्रसाद बिस्मिल जो की एक जमाने में बुरे व्यसनों में फसे थे सच्चे देश भक्त बन गए और पिता जी के कहने पर की
आर्यसमाज छोड़ दे या मेरा घर छोड़ दे
तो तत्काल घर छोड़ कर चल दिए
पिता जी ने कहा ये कपड़े भी मेरे दिए हे तो उन्हें भी उतार कर बन्डी में ही चल दिए

6 जिसे पढ़ कर व्यसनी मांसाहारी मुंशीराम बदल गए और सन्यासी श्रद्धानन्द बनकर अंग्रेजो की गोलियों के आगे सीना तान के खड़े हो गए
और दिल्ली आगरा के लगभग सवा तीन लाख मुसलमानो को शुद्धि आंदोलन से फिर से आर्य हिन्दु बना कर कट्टर मुस्लिम की गोली खा कर शहीद हो गए

7 जिसे पढ़ कर वीर सावरकर ने कहा कि जब तक ये पुस्तक भारतीयो के पास है तब तक कोई विधर्मी अपने मत की शेखी नही बघार सकता

8 जिसे पढ़ कर भगतसिह के दादा अर्जुनसिंह कट्टर आर्यसमाजी हो गए और अपने सब बेटो को देशभक्त बना गए और देश को भगत सिंह जेसा वीर दे गए

9 जिसके बारे में अबुल कलाम आजाद ने कहा कि
पता नही क्या है इस पुस्तक में जो हिन्दू एक बार इसे पढ़ ले तो वो अधिक जोशीला और दृढ़ देशभक्त बन जाता है

10 जिसे पढ़ कर भारत रत्न महामना मदनमोहन मालवीय जो आर्यसमाज के विरुद्ध थे ने अपने अंतिम समय जब कुछ ब्राह्मणों ने पूछा की अब हमे कौन मार्गदर्शन करेगा तो इस ग्रन्थ को देकर कहा की यही अब तुम्हे मार्ग दिखाएगा

11 जिसे पढ़ कर आज भी कुछ लोग रात रात भर जाग कर हिन्दुओ को जगाने के लिए प्राणपण से तत्पर है

तो मित्रो सोचिये ऐसा क्या है इस ग्रन्थ में
यदि जानना चाहते हो तो इसे एक बार पढ़ के देखो

ये आपको कहि भी आर्य समाज में मिल जायेगा अथवा इंटरनेट पर से इसे डाउनलोड कर सकते है ये ऑडियो में भी उपलब्ध है या एप के रूप में भी डाउनलोड कर सकते है

ओम् शांति शांति शांति।


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Wednesday, April 29, 2015

ईश्वर सर्वशक्तिमान है-इसका यह अर्थ नहीं कि ईश्वर कुछ भी कर सकता है - *क्या ईश्वर अपने को मार दूसरा...

ईश्वर सर्वशक्तिमान है-इसका यह अर्थ नहीं कि ईश्वर कुछ भी कर सकता है -

*क्या ईश्वर अपने को मार दूसरा ईश्वर अथवा अनेक ईश्वर बना सकता है ? 
*क्या ईश्वर छल कपट अन्याय अत्याचार पक्षपात कर सकता है ?
*क्या ईश्वर अजर अमर आत्माओ और परमाणुओं को बना सकता है ?( ईश्वर,जीव और प्रकृति तीन वस्तुएं अनादि हैं )
*क्या ईश्वर अजन्मा सर्वव्यापक होते हुए सिकुड कर किसी गर्भ में आ सकता है ?
*क्या ईश्वर अपनी प्रजा को हिन्दु,मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई,जैन,बौद्ध आदि वर्गों में बांट सकता है ?
*क्या ईश्वर अपना ज्ञान पुराण,कुराण,बाईबल आदि के रूप में भिन्न भिन्न प्रकार का दे सकता है ?(ईश्वर का ज्ञान सदैव अखण्ड एक रस और सृष्टि के आदि में होता है )
*क्या ईश्वर अपने ही बनाए सृष्टि नियमों को तोड सकता है ?

नहीं ,यह सब ईश्वर नहीं कर सकता| ईश्वर सर्वशक्तिमान का वास्तविक अर्थ है कि वह सृष्टि की उत्पति पालन संहार करने,कर्मफल देने,वेदज्ञान देने में पूर्णतया सक्षम है इन सब दिव्य कर्म करने में उसे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है|जो ईश्वर बिना हाथ पैर के सूर्य चांद तारे बना सकता है क्या रावण व कंस आदि दुष्टों को मारने के लिए जन्म लेना पडेगा ?? सर्वशक्तिमान का यह अर्थ कदापि नहीं कि वह जन्म ले सकता है,पत्थर की गाय से दूध निकाल सकता है,बिना बादलों के वर्षा कर सकता है…आदि आदि…


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💐⚡ ऒ३म् ⚡💐 🙏 सभी को सादर नमस्ते जी 🙏 ★वेद ही ईश्वरीय ज्ञान क्यूँ हैं?★ सर्वप्रथम तो किसी भी मत की...

💐⚡ ऒ३म् ⚡💐
🙏 सभी को सादर नमस्ते जी 🙏
★वेद ही ईश्वरीय ज्ञान क्यूँ हैं?★
सर्वप्रथम तो किसी भी मत की धर्म पुस्तक को उसके अनुनायियों के दावे मात्र से ईश्वरीय ज्ञान नहीं माना जा सकता। हमे उसके दावे की परीक्षा करनी होगी ।
★1. ईश्वरीय ज्ञान सृष्टी के आरंभ में आना चाहिये न की मानव की उत्पत्ति के लाखो वर्षों के बाद ?
★★केवल एक वेद ही हैं जो सृष्टी के आरंभ में ईश्वर द्वारा मानव जाति को प्रदान किया गया था। बाइबल 2000 वर्ष के करीब पुराना हैं, कुरान 1400 वर्ष के करीब पुराना हैं, जेंद अवस्ता 4000 वर्ष के करीब पुराना है। इसी प्रकार अन्य धर्म ग्रन्थ हैं।
★★मानव सृष्टी की रचना कई करोड़ वर्ष पुरानी हैं जबकि आधुनिक विज्ञान के अनुसार केवल कुछ हज़ार वर्ष पहले मानव की विकासवाद द्वारा उत्पत्ति हुई हैं।
★★जब पहले पहल सृष्टी हुई तो मनुष्य बिना कुछ सिखाये कुछ भी सीख नहीं सकता था। इसलिए मनुष्य की उत्पत्ति के तुरंत बाद उसे ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता थी।
★2. ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक में किसी देश का भूगोल और इतिहास नहीं होना चाहिए।
★ईश्वरीय ज्ञान की धर्म पुस्तक संपूर्ण मानव जाति के लिए होनी चाहिए नाकि किसी एक विशेष देश के भूगोल या इतिहास से सम्बंधित होनी चाहिए। 
★★अगर कुरान का अवलोकन करे तो हम पाते हैं की विशेष रूप से अरब देश के भूगोल और मुहम्मद साहिब के जीवन चरित्र पर केन्द्रित हैं ।
★★जबकि अगर हम बाइबल का अवलोकन करे तो विशेष रूप से फिलिस्तीन (Palestine) देश के भूगोल और यहुदिओं (Jews) के जीवन पर केन्द्रित हैं ।
★★जिससे यह निष्कर्ष निकलता हैं कि ईश्वर ने कुरान की रचना अरब देश के लिए और बाइबल की रचना फिलिस्तीन देश के लिए की हैं। 
★★वेद में किसी भी देश विशेष या जाति विशेष के अथवा व्यक्ति विशेष के लाभ के लिए नहीं लिखा गया हैं अपितु उनका प्रकाश तो सकल मानव जाति के लिए हुआ हैं।
★3. ईश्वरीय ज्ञान किसी देश विशेष की भाषा में नहीं आना चाहिए।
★★ईश्वरीय ज्ञान मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए दिया गया हैं, अत: उसका प्रकाश किसी देश विशेष की भाषा में नहीं होना चाहिए।
★★किसी देश विशेष की भाषा में होने से केवल वे ही देश उसका लाभ उठा सकेगे, अन्य को उसका लाभ नहीं मिलेगा।
★★कुरान अरबी में हैं और बाइबल इब्रानी (Hebrew) में हैं जबकि वेदों की भाषा वैदिक संस्कृत हैं जो की सृष्टी की प्रथम भाषा हैं और सृष्टी की उत्पत्ति के समय किसी भी भाषा का अस्तित्व नहीं था तब वेदों का उद्भव वैदिक भाषा में हुआ जो की पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणियों की सांझी भाषा थी।कालांतर में संसार की सभी भाषाएँ संस्कृत भाषा से ही अपभ्रंश होकर निकली हैं.
★4. ईश्वरीय ज्ञान को बार बार बदलने की आवश्यकता या परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
★★ईश्वर पूर्ण और सर्वज्ञ हैं। उनके किसी भी काम में त्रुटी अथवा कमी नहीं हो सकती। वे अपनी सृष्टी में जो भी रचना करते हैं उसे भली भांति विचार कर करते हैं और फिर उसमें परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
★★जिस प्रकार ईश्वर नें सृष्टी के आरंभ में प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सूर्य और चंद्रमा आदि की रचना करी जिनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं हैं ।
★★★उसी प्रकार परमात्मा का ज्ञान भी पूर्ण हैं उसमे भी किसी भी प्रकार के परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं हैं। 
★★बाइबल के विषय में यह भी आता हैं की बाइबल के भिन्न भिन्न भाग भिन्न भिन्न समयों पर आसमान से उतरे ?
★★ इसी प्रकार मुस्लमान अभी तक ये मानते हैं की ईश्वर ने पहले जबूर, तौरेत, इंजील के ज्ञान प्रकाशित करे फिर इनको निरस्त कर दिया और अंत में ईश्वर का सच्चा और अंतिम पैगाम कुरान का प्रकाश हुआ ?
★★बाइबल 2000 वर्ष पहले और कुरान 1400 वर्ष पहले प्रकाश में आया इसका मतलब जो मनुष्य 2000 वर्ष पहले जन्म ले चुके थे वे तो ईश्वर के ज्ञान से अनभिज्ञ ही रह गए 
★★और इस अनभिज्ञता के कारण अगर उन्होंने कोई पाप कर्म कर भी दिया तो उसका दंड किसे मिलना चाहिए।
★★ईश्वर का केवल एक ही ज्ञान हैं वेद जोकि सृष्टी की आदि में दिया गया था और जिसमे परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं हैं क्यूंकि वेद पूर्ण हैं और सृष्टी के आदि से अंत तक मानव जाति का मार्गदर्शन करते रहेगे।
★★जैसे ईश्वर अनादी हैं उसी प्रकार ईश्वर का ज्ञान वेद भी अनादी हैं। वेद के किसी भी सिद्धांत को बदलने की आवश्यकता ईश्वर को नहीं हुई इसलिए केवल वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैं। 
★5. ईश्वरीय ज्ञान विज्ञान विरुद्ध नहीं होना चाहिए और उसमे विभिन्न विद्या का वर्णन होना चाहिए।
★★आज विज्ञान का युग हैं। समस्त मानव जाति विज्ञान के अविष्कार के प्रयोगों से लाभान्वित हो रही हैं। ऐसे में ईश्वरीय ज्ञान भी वही कहलाना चाहिए जो ग्रन्थ विज्ञान के अनुरूप हो।
★★उसमे विद्या का भंडार होना चाहिए। उसमे सभी विद्या का मौलिक सिद्धांत वर्णित हो जिससे मानव जाति का कल्याण होना चाहिए।
★★जिस प्रकार सूर्य सब प्रकार के भौतिक प्रकाश का मूल हैं उसी प्रकार ईश्वर का ज्ञान भी विद्यारूपी प्रकाश का मूल होना चाहिए। जो भी धर्म ग्रन्थ विज्ञान विरुद्ध बाते करते हैं वे ईश्वरीय ज्ञान कहलाने के लायक नहीं हैं।
★★Note:- बाइबल को धर्म ग्रन्थ मानने वाले पादरियों ने इसलिए गलिलियो (Galilio) को जेल में डाल दिया था क्यूंकि बाइबल के अनुसार सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता हैं ऐसा मानती हैं जबकि गगिलियो का कथन सही था की पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घुमती हैं।
★★Note:-उसी प्रकार बाइबल में रेखा गणित (Algebra) का वर्णन नहीं हैं इसलिए देवी हिओफिया को पादरी सिरिल की आज्ञा से बेईज्ज़त किया गया था क्यूंकि वह रेखा गणित पढाया करती थी। 
★★कुरान में इसी प्रकार से अनेक विज्ञान विरुद्ध बाते हैं जैसे धरती चपटी हैं और स्थिर हैं जबकि सत्य ये हैं की धरती गोल हैं और हमेशा अपनी कक्षा में घुमती रहती हैं.
★प्रत्युत वेदों में औषधि ज्ञान
(auyrveda)
★ शरीर विज्ञान (anatomy)
★राजनिति विज्ञान (political science)
★समाज विज्ञान (social science)
★अध्यातम विज्ञान (spritual science)
★सृष्टी विज्ञान (origin of life)
आदि का प्रतिपादन किया गया हैं।
★★आर्यों के सभी दर्शन शास्त्र और आयुर्वेद आदि सभी वैज्ञानिक शास्त्र वेदों को ही अपना आधार मानते हैं। अत: केवल वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैं, अन्य ग्रन्थ नहीं ।
★★♪वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने की वेद स्वयं ही अंत साक्षी देते हैं। अनेक मन्त्रों से हम इस बात को सिद्ध करते हैं जैसे :—
★1. सबके पूज्य,सृष्टीकाल में सब कुछ देने वाले और प्रलयकाल में सब कुछ नष्ट कर देने वाले उस परमात्मा से ऋग्वेद उत्पन्न हुआ, सामवेद उत्पन्न हुआ, उसी से अथर्ववेद उत्पन्न हुआ और उसी से यजुर्वेद उत्पन्न हुआ हैं- 
{ऋग्वेद 10/90/9, यजुर्वेद 31/7, अथर्ववेद 19/6/13}
★2. सृष्टी के आरंभ में वेदवाणी के पति परमात्मा ने पवित्र ऋषियों की आत्मा में अपनी प्रेरणा से विभिन्न पदार्थों का नाम बताने वाली वेदवाणी को प्रकाशित किया- 
{ऋग्वेद 10/71/1}
★3. वेदवाणी का पद और अर्थ के सम्बन्ध से प्राप्त होने वाला ज्ञान यज्ञ अर्थात सबके पूजनीय परमात्मा द्वारा प्राप्त होता हैं-  {ऋग्वेद 10/71/3}
★4. मैंने (ईश्वर) ने इस कल्याणकारी वेदवाणी को सब लोगों के कल्याण के लिए दिया हैं- {यजुर्वेद 26/2}
★5. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद स्कंभ अर्थात सर्वाधार परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं- {अथर्ववेद 10/7/20}
★6. यथार्थ ज्ञान बताने वाली वेदवाणियों को अपूर्व गुणों वाले स्कंभ नामक परमात्मा ने ही अपनी प्रेरणा से दिया हैं- {अथर्ववेद 10/8/33}
★7. हे मनुष्यों! तुम्हे सब प्रकार के वर देने वाली यह वेदरूपी माता मैंने प्रस्तुत कर दी हैं- {अथर्ववेद 19/71/2}
★8. परमात्मा का नाम ही जातवेदा इसलिए हैं की उससे उसका वेदरूपी काव्य उत्पन्न हुआ हैं । -{अथर्ववेद-5/11/2}
★★आइये ईश्वरीय के सत्य सन्देश वेद को जाने वेद के पवित्र संदेशों को अपने जीवन में ग्रहण कर अपने जीवन का उद्धार करें । ‎धन्यवाद
★आर्य ओमप्रकाश सिंह राघव★‬


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१७ वैशाख 30 अप्रैल 15 😶 “ तेरी इच्छा ” 🌞 🔥 ओ३म् अभ्रातृव्यो अना...

१७ वैशाख 30 अप्रैल 15
😶 “ तेरी इच्छा ” 🌞

🔥 ओ३म् अभ्रातृव्यो अना त्वमनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि । युधेदापित्वमिच्छसे ॥🔥
ऋ० ८ । २१ । १३ ; अथर्व० २० । ११४ । १

शब्दार्थ:– हे परमेश्वर ! तुम जन्म से ही, स्वभाव से ही सनातन हो, सनातन से ही ऐसे हो, पर तुम युद्ध द्वारा ही बन्धुत्व को चाहते हो ।

विनय :– हे परमेश्वर ! तुम्हारे लिए न कोई शत्रु है और न कोई बन्धु है । तुम जिस उच्च स्वरूप में रहते हो वहा शत्रुता और बन्धुता का कुछ अर्थ ही नही ; और तुम्हारे लिए कोई नायक व नियन्ता कैसे हो सकता है ? तुम ही एकमात्र सब जगत के नियन्ता हो, नेता हो । तुम जन्म से, स्वाभाव से ही ऐसे हो ।'जनुषा’ का यह तात्पर्य नही की तुम्हारा कभी जन्म होता है । तुम तो सनातन हो , सनातन रूप से ही शत्रुरहित और बन्धुरहित हो, पर निर्लिप्त होते हुए भी तुम हमारे बन्धुत्व को चाहते हो और इस बन्धुत्व को तुम युद्ध द्वारा चाहते हो, युद्ध द्वारा ही चाहते हो । अहा ! कैसा सुन्दर आयोजन है ! तुम चाहते ही की संसार के सब प्राणी सांसरिक युद्ध करके ही एक दिन तुम्हारे बन्धु बन जाए, तुम्हारे बन्धुत्व का साक्षात्कार कर ले ।

सत्य सनातन वैदिक धर्म
………………जय

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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मित्रो ! नीचे इस लेख में पढिये एक पढ़े लिखे मुर्ख की मानसिक दशा कैसी है आध्यात्म को लेकर...

मित्रो ! नीचे इस लेख में पढिये एक पढ़े लिखे मुर्ख की मानसिक दशा कैसी है आध्यात्म को लेकर
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आर्य समाज V/S हिन्दू समाज
हिंदू धर्म में ईश्वरवाद और अनीश्वरवाद दोनों का,
सर्वेश्वरवाद और बहुदेववाद दोनों का, आवागमन और
परलोकवाद दोनों का, शाकाहार और मांसाहार
दोनों का ऐसा अद्भुत समावेश किया गया है कि मैं
नहीं समझ पा रहा हूँ कि यह एक प्राचीन सभ्यता का
असीम औदार्य है या शेखचिल्लीपन। वेदों और
उपनिषदों की आवाज एक नहीं है। रामायण और
गीता एक दूसरे से भिन्न हैं। उत्तर का हिंदुत्व दक्षिण
से भिन्न है। स्वामी दयानंद का हिंदुत्व स्वामी
विवेकानन्द से भिन्न है। 19वीं सदी में जहां आर्य
समाज के संस्थापक ने हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करते
हुए मूर्ति पूजा, व्रत, उपवास, अवतारवाद,
तीर्थयात्रा आदि को पाखंड और मूर्खतापूर्ण
बताया वहीं रामकृष्ण परमहंस (1836-1886) और
रामकृष्ण मिशन के संस्थापक कर्मठ वेदांती स्वामी
विवेकानंद (1863-1902) ने समग्र हिंदुत्व का
प्रतिनिधित्व करते हुए मूर्ति पूजा, व्रत, उपवास,
अवतारवाद, तीर्थयात्रा आदि सभी को सार्थक और
अनिवार्य बताया है। हिंदू धर्म की इतनी स्थापनाएं
और उपस्थापनाएं हैं कि समझना और समझाना तथा
इसकी कोई खूबी बयान करना अत्यंत मुश्किल काम है।

👆👆👆👆👆👆👆👆

देखा आपने मित्रो ???
इन लोगों से क्या आशा कर सकते हैं ?

और एक जगह ये मुर्ख लिखता है कि

स्वामी दयानंद का हिंदुत्व स्वामी विवेकानंद से भिन्न है ।

जैसे इतिहास के केंद्र में विवेकानंद हो ।पढ़कर ऐसा लगता है जैसे विवेकानंद कोई प्रमाणिक आदर्श देने वाले इतिहास के परिवर्तन बिंदू थे जिसे बाद में दयानंद के वामपंथ ने झुठला दिया ।
इस मुर्ख को कोई समझाए कि दयानंद पहले हुए थे विवेकानंद बाद में । और इस बात को ऐसे लिखता तो बात का अर्थ कुछ समझ आता । कि -

स्वामी विवेकानंद का हिंदुत्व स्वामी दयानंद से भिन्न है ।


लार्ड मैकाले की पैदाइश विधर्मी होने के लिए तैयार बैठी है । आर्यों को ही कुछ करना पड़ेगा ।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


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वैदिक प्रश्नोत्तरी vedic quiz प्र.1 वेद किसे कहते है ? उत्तर- ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक को वेद कहते...

वैदिक प्रश्नोत्तरी vedic quiz

प्र.1 वेद किसे कहते है ?
उत्तर- ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक को वेद कहते है।

प्र.2 वेद-ज्ञान किसने दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने दिया।

प्र.3 ईश्वर ने वेद-ज्ञान कब दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में वेद-ज्ञान दिया।

प्र.4 ईश्वर ने वेद ज्ञान क्यों दिया ?
उत्तर- मनुष्य-मात्र के कल्याण के लिए।

प्र.5 वेद कितने है ?
उत्तर- चार।

प्र.6 वेदों का ज्ञान ईश्वर ने किन को दिया ?
उत्तर- चार ऋषियों को।

प्र.7 वेदों का ज्ञान ईश्वर ने ऋषियों को कैसे दिया ?
उत्तर- समाधि की अवस्था में।

प्र.8 वेदों में कैसे ज्ञान है ?
उत्तर- सब सत्य विद्याओं का ज्ञान-विज्ञान।

प्र.9 वेद कौन-कौन से हैं और किस-किस ऋषि द्वारा ज्ञान हुआ ?
उत्तर- वेद ऋषि विषय
ऋग्वेद अग्नि ज्ञान
यजुर्वेद वायु कर्म
सामवेद आदित्य उपासना
अथर्ववेद अंगिरा विज्ञान

प्र.10 वेद पढ़ने का अधिकार किसको है ? उत्तर- मनुष्य-मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है।

प्र.11 क्या वेदों में मूर्तिपूजा का विधान है ?
उत्तर- बिलकुल भी नहीं।

प्र.12 क्या वेदों में अवतारवाद का प्रमाण है ?
उत्तर- नहीं।

प्र.13 सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?
उत्तर- ऋग्वेद।

प्र.14 वेदों की रचना कब हुई ?
उत्तर- आज से लगभग 1 अरब 96 करोड़ वर्ष पूर्व।

प्र.15 वेद-ज्ञान के सहायक दर्शन-शास्त्र कितने हैं और उनके लेखकों का
क्या नाम है ?
उत्तर- न्याय दर्शन गौतम मुनि
वैशेषिक दर्शन कणाद मुनि
योगदर्शन पतंजलि मुनि
मीमांसा दर्शन जैमिनी मुनि
सांख्य दर्शन कपिल मुनि
वेदांत दर्शन व्यास मुनि

प्र.16 शास्त्रों के विषय क्या है ?
उत्तर- आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, जगत की उत्पत्ति, मुक्ति अर्थात सब प्रकार का भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान आदि।

प्र.17 प्रामाणिक उपनिषदे कितनी है ?
उत्तर- केवल ग्यारह।

प्र.18 उपनिषदों के नाम बतावे ?
उत्तर- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडू, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छंदोग्य,
वृहदारण्यक और श्वेतश्वतर ।

प्र.19 उपनिषदों के विषय कहाँ से लिए गए है ?
उत्तर- वेदों से। ज्यादा से ज्यादा शेयर करे :- http://ift.tt/1GHeoSA


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😶 “ भक्ति महान् ” 🌞  ओ३म् कदु प्रचेतसे महे वचो देवाय शस्यते । तदिद्धयस्य वर्धनम् ॥ साम०...

😶 “ भक्ति महान् ” 🌞

 ओ३म् कदु प्रचेतसे महे वचो देवाय शस्यते । तदिद्धयस्य वर्धनम् ॥
साम० पू० ३ । १ । ४ । २

शब्दार्थ:– महान् बड़े ज्ञानी इष्टदेव परमेश्वर के लिए कुछ भी थोडा सा भी वचन - स्तुतिरूप में कहा जाए वह ही निश्चय से इस वक्ता का बढानेवाला है ।।

विनय:– प्रभु की थोड़ी -सी भी भक्ति महान् फल देनेवाले होती है । हम लोग समझा करते है कि थोड़े-से संध्या-भजन से, एक आध मन्त्र द्वारा उसका स्मरण कर लेने से हमारा क्या लाभ होगा, या एक दिन यह भजन छोड़ देने से हमारी क्या हानि होगी, पर यह सत्य नही है । हमारी उपासना चाहे कितनी स्वल्प और तुच्छ हो, पर वह उपास्यदेव तो महान् है । ज्ञान और शक्ति में वह हमसे इतना महान् है कि हम कभी भी उसके योग्य उसकी पूरी भक्ति नही कर सकते और उसके सामने हम इतने तुच्छ है कि वह यदि चाहे तो अपने जरा- से दान से हमे क्षण में भरपूर कर सकता है ।

वैदिक धर्म की
………………जय

 वैदिक विनय से 


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वृद्धसेवया विज्ञानम् मनुष्य वृद्धों की सेवा से ही व्यवहारकुशल होता है और उसे अपने कर्तव्य की पहचान...

वृद्धसेवया विज्ञानम्

मनुष्य वृद्धों की सेवा से ही व्यवहारकुशल होता है और उसे अपने कर्तव्य की पहचान होती है ।
वृद्धों की सेवा से व्यक्ति को इस बात का पता चलता है कि कौन-सा कार्य करने योग्य है और कौन-सा न करने योग्य । इसका भाव यह है कि वृद्ध व्यक्ति ने अपने जीवन में बहुत कुछ सीखा है, उसने बहुत मामलों में अनुभव प्राप्त किया होता है । यदि कोई व्यक्ति सांसारिक कार्य-व्यवहार में कुशलता प्राप्त करना चाहता है तो उसे बूढ़े व्यक्तियों की सेवा करनी चाहिए । उनके अनुभवों से लाभ उठाना चाहिए । जो मनुष्य ज्ञान-वृद्ध लोगों के पास निरंतर उठता-बैठता है और उनमें श्रद्धा रखता है, वह ऐसे गुण सीख लेता है कि उसे समाज में अपने आचार-व्यवहार से सम्मान प्राप्त होता है । वह धोखे बाज और पाखंड़ी लोगों के चक्रव्यूह में नहीं फंसता ।
इस सूत्र में जो विज्ञानम् शब्द आया है उसका अर्थ केवल व्यवहारकुशल होना ही नहीं वरन् संसार की अनेक ऐसी बातें हैं जिनका ज्ञान वृद्ध लोगों के पास आने-जाने,उनके उपदेशों और उनकी संगति करने से प्राप्त होता है । वे अपने अनुभव से उनका जीवन सरल बनाने में सहायक होते हैं । इस प्रकार विज्ञान का अर्थ एक व्यापक जानकारी से है । जिसकी प्राप्ति केवल पुस्तकों से ही संभव नहीं । क्योंकि उन्हें पढ़ने, समझने और ज्ञान प्राप्त करने में काफी समय लगता है । वृद्ध पुरूषों के पास जीवन का निचोड़ होता है, इसलिए वृद्धों की सेवा श्रद्धा और भक्तिपूर्वक करने से मनुष्य संसार के अनेक महत्तवपूर्ण ज्ञान सरलतापूर्वक ग्रहण कर सकता है ।
चाणक्य
Ns.group. Ajmer.


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Sunday, April 26, 2015

खीरा या ककड़ी एक ऐसा खाद्द पदार्थ है जो लगभग पूरे भारतवर्ष में पाया जाता है। खीरा शरीर को शीतलता और...

खीरा या ककड़ी एक ऐसा खाद्द पदार्थ है जो लगभग पूरे भारतवर्ष में पाया जाता है। खीरा शरीर को शीतलता और ताजगी प्रदान करता है। इसको आप कई तरह से खा सकते हैं, जैसे- सलाद, सैंडवीच, या यूं ही नमक छिड़क कर भी खा सकते हैं। खीरे के स्वास्थ्यवर्द्धक और सौन्दर्यवर्द्धक गुण दोनों अनगिनत होते हैं,जैसे-

शरीर को जलमिश्रित (hydrated) रखने में मदद करता है: खीरे में 95% पानी रहता है। इसलिए यह शरीर से विषाक्त और अवांछित पदार्थों को निकालने में मदद करके शरीर को स्वस्थ और जलमिश्रित रखने में मदद करता है।त्वचा को निखारने में मदद करता है: खीरा एक ऐसा सब्ज़ी है जो त्वचा को विभिन्न तरह के समस्याओं से राहत दिलाने में मदद करता है, जैसे- टैनिंग, सनबर्न, रैशेज आदि। रोजाना खीरा खाने से रूखी त्वचा में नमी लौट आती है। इसलिए यह नैचरल मॉश्चराइज़र का काम करता है। यह त्वचा से तेल के निकलने के प्रक्रिया को कम करके मुँहासों के निकलना कम करता है।यह हैंगओवर को कम करने में मदद करता है:शराब पीने के बहुत सारे दुष्परिणाम होते हैं उनमें अगले दिन का हैंगओवर बहुत ही कष्ट देनेवाला होता है। इससे बचने के लिए आप रात को सोने से पहले खीरा खाकर सोयें। क्योंकि खीरे में जो विटामिन बी, शुगर और इलेक्ट्रोलाइट होते हैं वे हैंगओवर को कम करने में बहुत मदद करते हैं।वज़न घटाने में मदद करता है: खीरे में कैलोरी कम और फाइबर उच्च मात्रा में होता है। इसलिए मीड डे में भूख लगने पर खीरा खाने से पेट देर तक भरा हुआ रहता है।कोलेस्ट्रोल को कम करने में मदद करता है: खीरा एक ऐसा सब्ज़ी है जिसमें कोलेस्ट्रोल बिल्कुल नहीं होता है। जिन लोगों को दिल की बीमारी होती है उनको तो खीरा रोज खाना चाहिए। अध्ययन के अनुसार खीरा में जो स्ट्रेरोल (sterols) नाम का यौगिक होता है वह कोलेस्ट्रोल को कम करने में मदद करता है।हजम शक्ति को बढ़ाने में मदद करता है: क्या आपको पता है कि रोज खीरा खाने से पेट की बीमारी से बहुत हद तक राहत मिल जाता है, जैसे- कब्ज़, बदहजमी, अल्सर आदि। क्योंकि इसमें जल की मात्रा ज़्यादा होने के कारण यह शरीर से विषाक्त पदार्थों को शरीर से बाहर निकाल देता है और उच्च फाइबर की मात्रा पेट को साफ करने में मदद करता है। और इसमें जो इरेप्सिन नाम का एन्जाइम होता है वह प्रोटीन को सोखने में मदद करता है।मुँह के बदबू से राहत दिलाता है: अगर मुँह से बदबू निकल रहा है कि कुछ मिनटों के लिए मुँह में खीरे का टुकड़ा रख लें क्योंकि यह जीवाणुओं को मारकर धीरे-धीरे बदबू निकलना कम कर देता है। आयुर्वेद के अनुसार पेट में गर्मी होने के कारण मुँह से बदबू निकलता है, खीरा पेट को शीतलता प्रदान करने में मदद करता है।तनाव को कम करता है: आजकल के भागदौड़ भरे जिंदगी में तनाव जिंदगी का अंग बन गया है जिससे शरीर को बहुत क्षति पहुँचती है। खीरा में जो विटामिन बी होता है वह  अधिवृक्क ग्रंथि (adrenal glands ) को नियंत्रित करके तनाव से हुए क्षति को कम करने में बहुत मदद करता है।कैंसर के खतरे को कम करने में मदद करता है:खीरा में जो लिग्नेन (lignans) नाम का फाइटोन्यूट्रीएन्ट होता है वह कैंसर को कम करने में मदद करता है। इसमें जो एन्टीऑक्सिडेंट का गुण होता है वह शरीर के प्रतिरोधी क्षमता (immunity) को उन्नत करने में और फ्री रैडिकल्स को नष्ट करने में मदद करता है।आँखों के तनाव को कम करने में मदद करता है:आजकल ज़्यादातर लोग अधिक से अधिक समय कम्प्यूटर और स्मार्टफोन पर व्यस्त रहते हैं जिसका परिणाम आँखों को झेलना पड़ता है। इसके दर्द और तनाव को कम करने के लिए आँखों पर खीरे का टुकड़ा कुछ देर के लिए रखकर लेट जायें। इससे धीरे-धीरे आँखों को आराम मिल जाता है।मानसिक रोग (Alzheimer’s) के खतरे को कम करने में मदद करता है: यह एक ऐसा रोग है जिससे सभी बचना चाहते हैं। इसलिए रोज खीरा खायें और मानसिक रोग के खतरे को कम करें।

खीरे के यह सारे गुण उसको सुपर फूड बना देते हैं, इसलिए अपने डायट में खीरे को शामिल करें और खुद को निरोग करें


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Saturday, April 25, 2015

हवन(यज्ञ) Vs भोग:- अग्नि में जब कोई पदार्थ डाला जाता है तो कुछ परिवर्तित होकर और अति सूक्ष्म होकर...

हवन(यज्ञ) Vs भोग:-
अग्नि में जब कोई पदार्थ डाला जाता है तो कुछ परिवर्तित होकर और अति सूक्ष्म होकर वातावरण में दूर तक पहुँचता है । 
एक प्रयोग स्वयं करके देख लें ।


थोड़ी हवन सामग्री एक थाली में रख कर देखिये कि उसकी सुगन्ध कितनी दूर तक जाती है और फिर अग्नि में डाल कर देखिये कि कितनी दूर तक जाती है । 
यह प्रयोग आप लाल मिर्च के पाउडर से भी कर सकते है।


प्रायः मूर्ति पर चढ़े सब पदार्थ कूड़े में जाते हैं । पशुओं को भी प्राप्त नहीं होते ।


१ )  हवन ओर मूर्ति पर भोग लगाने में अंतर :-
हवन करने से रोग जन्तु नष्ट होते है जबकि भोग लगाने से फलते फूलते है ..
हवन की अग्नि रोग जन्तुओ का नाश करती है जेसे सूर्य की किरणें जबकि भोग सड जाता है या मल्ल पर बेठी मखिया आ कर उसपर गंदगी कर देती है फिर उसे कोई मवेशी खाता है ओर रोगी बनता है …जबकि हवन में भस्म हो गये पधार्थ न कोई खाता है न सड़ता है …
ये भस्म खेतो में डाले तो एक अच्छी खाद का भी काम करते है …


२ ) आप एक अंधे को दर्पण दिखाओ ओर उससे कहो की अपनी शक्ल देखो क्या ये उसके साथ मजाक नही ….
या अनिल अम्बानी को १ रुपया देकर बोलो की टॉफी खा लेना तो क्या इनके साथ यह मजाक नही होगा …
इसी तरह सभी ऐश्वर्य से भरपुर ब्रह्म की मूर्ति बना कर एक रूपये चढ़ाना क्या उनका उपहास उठाना नही है …जो ब्रह्म इन्द्रियों से रहित है उसके आगे ५६ भोग लगाना क्या उसका अपमान नही!
–—————–––
महोदय जी मूर्ति पर चढ़ाए फल तो पण्डित या उसके परिवार वाले खा लेतें हैं परन्तु थोड़ी सी मिठाई जो मूर्ति के होठ पर लगाई जाती है उसको कौन खाता है ???


यद्यपि धूप में कुछ सामग्री हवन सामाग्री समान ही होती है परन्तु धूप का प्रभावित क्षेत्र बहुत कम होता है हवन के प्रभावित क्षेत्र की तुलना में ।
हवन का उद्देश्य केवल सुगंधि फैलाना नहीं क्योंकि सामग्री में औषधीय गुण भी होते हैं जबकि एक सेंट में केवल सुगंध होती है ।
हवन के लिये वह लकड़ी ( समिधा ) ही प्रयुक्त होती है जो घुन रहित हो ।


एक अवैदिक कृत्य ( मूर्ति पूजा ) को सही सिद्ध करने को कितने कुतर्क प्रस्तुत करोगे आप जी ???


ऋषियों ने यज्ञ को श्रेष्ठ कर्म कहा है !!
है कोई शास्त्र वचन जिसमें  मूर्ति पूजा को श्रेष्ठ कर्म माना हो ।


वेद जो कि धर्म का मूल है और परम प्रमाण है उसमें मूर्ति पूजा का कोई निर्देश नहीं है ।
उसमें तो केवल निराकार परमात्मा की उपासना का निर्देश है ।


वेदान्त दर्शन जो कि परमात्मा को समझने के लिये महर्षि व्यास रचित सर्वोत्तम दार्शनिक ग्रन्थ है उसमें स्पष्ट लिखा है ।
न प्रतीके न हि सः 
अर्थात् उस परमात्मा का कोई प्रतीक नहीं ।
सम्भवतः आपको वेदान्त दर्शन भी शब्दों की बाजीगरी लगे क्योंकि जड़ को पूजते पूजते बुद्धि भी जड़ हो जाती है ।


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जो दिन-रात योगविद्या के अध्ययन और अभ्यास में तत्पर रहता था, जिसे दिन-रात वेदों के प्रचार और प्रसार...

जो दिन-रात योगविद्या के अध्ययन और अभ्यास में तत्पर रहता था,
जिसे दिन-रात वेदों के प्रचार और प्रसार की चिंता लगी रहती थी,
जो दिन-रात आर्यावर्त(भारत) की स्वतन्त्रता की चिंता किये रहता था,
जो चाहता था की हमारे देश में फिर से वीर पैदा हों , ज्ञानी पैदा हों,
जिसका सपना था की प्रत्येक घर में स्वाहा-स्वाहा की ध्वनि गूंजें,
जिसकी हार्दिक इच्छा थी की जन्म व्यवस्था की रूढिवादिता समाप्त होकर समाज में कर्म व्यवस्था का पालन किया जाए,
जिसके मन में एक धुन थी की स्वयं धर्म पर बलिदान हों जाऊं और अनेक बलिदानी पैदा करूँ ,

वाह रे दयानंद , मेरे गुरु दयानंद, आर्यों की शान दयानंद कितनी तेरी चाहना लिखूं और किस-किस पर लिखूं

वो पुतला था चाहनाओं का ,पूरा सुधार चाहता था|
वैदिक धर्म का फिर से आर्यों में प्रचार चाहता था||
न जिया वो अपने लिए,सदा जिया औरों के लिये|
जगत में फिर से वो ऋषियों का राज चाहता था ||“’


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🚩ओउम् क्रन्वतोविश्वमार्यम् 🚩 न सा दीक्षा न सा भिक्षा न तद्दानं न तत्तपः । न तद् ध्यानं न तद् मौनं...

🚩ओउम् क्रन्वतोविश्वमार्यम् 🚩

न सा दीक्षा न सा भिक्षा न तद्दानं न तत्तपः ।
न तद् ध्यानं न तद् मौनं दया यत्र न विद्यते ॥

दया के बगैर दीक्षा, भिक्षा, दान, तप, ध्यान, और मौन सब निरर्थक है ।

सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत ।
सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च तत् कुर्यात् प्राणिनां दया ॥

हे भारत ! सब वेद, सब यज्ञ, सब तीर्थ, सब अभिषेक – जो नहि कर सकता है, वह (भी) प्राणियों पर दया तो कर हि सकता है ।


दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि ।
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते ॥

दयाहीन काम निष्फल है, उस में धर्म नहि । जहाँ दया न हो, वहाँ वेद भी अवेद बनते हैं ।


अहिंसा लक्षणो धर्मोऽधर्मश्च प्राणिनां वधः ।
तस्मात् धर्मार्थिभिः लोकैः कर्तव्या प्राणिनां दया ॥

धर्म का लक्षण अहिंसा है, और प्राणियों का वध अधर्म है । अर्थात् धर्म की इच्छावाले ने प्राणियों पर दया करनी चाहिए ।


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ओ३म् मारय-मारय, उच्चाटय- उच्चाटय, विद्वेषय- विद्वेषय, छिन्दी- छिन्दी, भिन्दी- भिन्दी, वशीकुरू-...

ओ३म् मारय-मारय, उच्चाटय- उच्चाटय, विद्वेषय- विद्वेषय, छिन्दी- छिन्दी, भिन्दी- भिन्दी, वशीकुरू- वशीकुरू, खादय- खादय, भक्षय- भक्षय, त्राटय- त्राटय, नाशय- नाशय, मम शत्रुन् वशीकुरू- वशीकुरू, हुं फट् स्वाहा….!!“

आदि मोहिनीमारण के तन्त्रमन्त्रोच्चार ने पूरे वातावरण को भयप्रेत कर दिया। विशाल जन समुदाय "हर हर महादेव” की ध्वनि से अपनी उपस्थिति भान करवा रहा था।
सभी “बाबा जोगेन्दर पण्डित” जी को तरह तरह प्रसन्न करने में प्रयत्नरत थे। चढ़ावे पर चढ़ावा और फिर चढ़ावे पर चढ़ावा…..!
बाबा जी अद्भुत शक्तियों के स्वामी जो थे। पूरे इलाके में उनकी तान्त्रिक शक्तियों की चर्चा जोरों पर थी।
प्रबुद्धों के अनुसार उन्होंने अपनी कुण्डलिनी जागृत कर ली थी। लोग खड़े खड़े परस्पर कानाफूसी कर रहे थे। समीप से सुना तो पता चला “बाबा मन्त्र से ही हवनकुण्ड की अग्नि प्रज्वलित करने वाले हैं।”
सुना तो अन्तस में विनोदी पटाखे फूट पड़े।

घर से महोत्सव के लिए जब निकला था तभी पड़ोस के दादाजी ने मेरी चंचलता भाँप कर चेताया था कि “मनु (भवितव्य) आज कोई खुराफाती न करना।”

तब तो “हाँ” में सर हिला दिया था। परन्तु तनिक सोचो, शक्कर भी अपना शक्करत्व छोड़ता है भला?

वो भी तब जबकि अवसर स्वयं चलकर सम्मुख उपस्थित हुआ हो?

मुखिया जी के लाडले होने के कारण “बाबा जोगेन्दर पण्डित” के पार्श्व में ही बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
धूप, दशांग, सिन्दूर, रोली अक्षत , घी, सरसों, तिल तथा साथ ही अन्नादि हव्य पदार्थों से सुसज्जित थालें रखी थीं। बाबा जी भड़काऊँ काले परिधान में थे।
हवनकर्म प्रारम्भ ही होने वाला था। बाबा जी ने अपना विभत्स, अति भयानक मन्त्रोच्चार प्रारम्भ किया।
विज्ञान वर्ग का विद्यार्थी होने के कारण मेरी दृष्टि में बाबाजी की हर क्रियाकलाप संदेहपूर्ण प्रतीत हो रही थी। मैं पूर्णरूप से “बकोध्यानं” के आसन में था।

तभी अकस्मात् मन में अतितीव्र खुराफाती लहर कौंधी। अवसर पाते ही दृष्टि बचाते मैंने बाबाजी के सम्मुख रखी थाली की “सरसों, तिल व घी” अन्य थाल से बदल दी।

अन्तस में उमड़ते ठहाकों के ज्वार को बलपूर्वक पचाकर चुपचाप देखता रहा।

कुछ कर्मकाण्डी क्रियाकलापों के पश्चात् बाबाजी ने सम्मुख रखी थाल से “घी” लेकर हवनकुण्ड में डालनी प्रारम्भ कर दी।
बाबा ज्यों ज्यों कुण्ड में “घी” डालते त्यों त्यों उनके मन्त्रों का कोलाहल उच्च होता जा रहा था। घी छोड़ने के पश्चात् बाबा जोर जोर से “फू……फू……”. की ध्वनि करते हुए “तिल और सरसों” हवनकुण्ड में डाले जा रहे थे।

उपस्थित जनसमूह चमत्कार की प्रतिक्षा में लालायित था। बाबा पहले से उग्र प्रतीत हो रहे थे। बारम्बार थाल से सरसों-तिल हवनकुण्ड में डालकर जोर जोर से उच्चारित करते - “फू…….."।

कोई प्रभाव न होता देख बाबा तिलमिला गये।
उनकी मुखभंगिमा बदल चुकी थी। एकदम लाल…!!
बात प्रतिष्ठा की थी, अपने उक्त चमत्कार की पुरजोर घोषणा जो कर दी थी।
क्षण प्रतिक्षण मुख पर रूआँसी छा रही थी। वे कभी हाँथ में लिए सरसों व तिल को देखते तो कभी समीप बैठे यजमानों को, पूरी सन्देहभरी दृष्टि से।
उनका ये अभिनय-मंचन मुझसे सहन न हुआ, एक बलिष्ठ हँसी फूट पड़ी। वे मेरी समस्त खुराफातियों को भाँप गये।
बोले- "दे, दो…!”
मैंने हँसकर कहा - “क्या..?”
बोले- “चलो एक तिहाई तुम्हारा हुआ”
- क्या?
बोले- चढ़ावा।

तब तक मैं लोटपोट हो चुका था। चढ़ावे का नाम सुनकर अन्तस मेँ आग लग गयी। आचार्य को दी प्रतिज्ञा व “महर्षि दयानन्द” की वो पाखण्ड-खण्डनी छवि मानसचक्षुओं में नाच गयी।
अब वहाँ रूकना मेरी सामर्थ्य से बाहर था। बाबा मुझे लालायित दृष्टि से देख रहे थे।
बाबा के पाखण्ड का भाण्डा फूट चुका था।
शीघ्र ही पितामह तथा पंचो तक बात पहुँच गयी। उन्होंने पूरा विवरण गाँव के सम्मुख परोस दिया।
बाबा पकड़े गये।

मन्दिर के पुजारी जी ने बड़े चाव से बाबा जी को हनुमान जी का प्रसाद चखाया।
न जाने कहाँ-कहाँ से उनपर कृपा बरसी।
अन्ततः बाबा को ससम्मान पुलिस के तिहाड़ीधाम पहुँचाया गया। बाबा आज भी वहीं विराजमान हैं।

हा हा हा

घटना का वैज्ञानिक विश्लेषण:-
वे विद्यार्थी जो विज्ञान वर्ग से 9वीं से12 वीं कक्षा में अध्ययनरत हैं उन्हें इस अभिक्रिया (कथित चमत्कार ) को सिध्द करने के लिए कोई विशेष कठिनाईं नहीं होनी चाहिए।
मित्रों आपने “पोटैशियम परमैंगनेट (KMnO4)” का नाम तो सुना ही होगा, जो गाँवों में “लाल दवा” के नाम से सुलभ है। तथा दूसरा पदार्थ है “ग्लिसरिन"। जब इन दोनों पदार्थों की परस्पर अभिक्रिया करायी जाती है तो रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप इनका तीव्र "दहन” होने लगता है।
ऐसे में ढोंगी बाबा-गण पोटैशियम परमैंगनेट को “सरसों या तिल” की भाँति तथा श्वेत ग्लिसरिन को “घी” की भाँति प्रयुक्त कर अपने कथित चमत्कार का प्रदर्शन कर यज्ञ इत्यादि की अग्नि प्रज्वलित करते हैं।

दार्शनिक व्याख्या:- परमेश्वर शाश्वत तथा सनातन है। उसके अनुरूप ही उसके गुण-कर्म-स्वभाव भी शाश्वत, सनातन तथा अपरिवर्तनीय है। उसके बनाए सृष्टि नियमों को कोई भंग या दूषित नहीं कर सकता। यदि कोई ऐसा करता है तो ईश्वर “ईश्वर” नहीं कहला सकता। उसके कार्यों को भंग करने का सामर्थ्य किसी में भी नहीं।
यदि कोई बाबा चमत्कार प्रदर्शन कर स्वयं को ईश्वर से जुड़े होने की बात कहे तो निश्चित ही वह ढोंगी अथवा पाखंण्डी है क्योंकि चमत्कार (नियमभंग) ईश्वर के सत्ता की स्वीकृति नहीं बल्कि तामसी सत्ता के उपस्थिति की पुष्टि है। जो कि असम्भव है।

तमसो मा ज्योतिर्गमयः!
हे प्रभु, हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो!
ओ३म्!


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🙏 ओ३म् क्रन्वतोविश्वमार्यम् 🙏 ओ३म् ईश्वर का सर्वप्रमुख नाम है जिसके उच्चारण मात्र से...

🙏 ओ३म् क्रन्वतोविश्वमार्यम् 🙏

ओ३म् ईश्वर का सर्वप्रमुख नाम है जिसके उच्चारण मात्र से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है ।

यम नियमों का अभ्यास इसका सबसे बड़ा साधन है. यम व नियम संक्षेप से नीचे दिए जाते हैं
यम
१. अहिंसा (किसी सज्जन और बेगुनाह को मन, वचन या कर्म से दुःख न देना)
२. सत्य (जो मन में सोचा हो वही वाणी से बोलना और वही अपने कर्म में करना)
३. अस्तेय (किसी की कोई चीज विना पूछे न लेना)
४. ब्रह्मचर्य (अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना विशेषकर अपनी यौन इच्छाओं पर पूर्ण नियंत्रण)
५. अपरिग्रह (सांसारिक वस्तु भोग व धन आदि में लिप्त न होना)

नियम
१. शौच (मन, वाणी व शरीर की शुद्धता)
२. संतोष (पूरे प्रयास करते हुए सदा प्रसन्न रहना, विपरीत परिस्थितियों से दुखी न होना)
३. तप (सुख, दुःख, हानि, लाभ, सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, डर आदि की वजह से कभी भी धर्म को न छोड़ना)
४. स्वाध्याय (अच्छे ज्ञान, विज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयास करना)
५. ईश्वर प्रणिधान (अपने सब काम ऐसे करना जैसे कि ईश्वर सदा देख रहा है और फिर काम करके उसके फल की चिंता ईश्वर पर ही छोड़ देना)


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🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷 स्वास्ति पंथमनु चरेम सुरयचंद्रमसाविव । पुनदर्दताघ्नता जानता गमेमहि ।। 🍁🍁 अर्थात...

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स्वास्ति पंथमनु चरेम सुरयचंद्रमसाविव ।
पुनदर्दताघ्नता जानता गमेमहि ।।


🍁🍁 अर्थात 🍁🍁

हे मनुष्य ! सूर्य - चंद्रमा जिस प्रकार नियमित रूप से अपने निर्धारित पथ पर चलते रहते हैं , उसी प्रकार तुम्हे भी न्याय का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए ।

—– ऋग्वेद ५\५१\१५


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चमत्कारिक है ओ३म् का उच्चारण। चमत्कारिक है ओ३म् का उच्चारण। १- ओ३म् के उच्चारण मात्र से मृत...

चमत्कारिक है ओ३म् का उच्चारण।


चमत्कारिक है ओ३म् का उच्चारण।

१- ओ३म् के उच्चारण मात्र से मृत कोशिकाएँ जीवित हो जाती है।

२- मन के नकारात्मक भाव सकारात्मक में परिवर्तित हो जाते है।

३- तनाव से मुक्ति मिलती है।

४- स्टेरॉयड का स्तर कम हो जाता है।

५- चेहरे के भाव तथा हमारे आसपास के वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

६- मस्तिष्क में सकारात्मक परिवर्तन होते हैं तथा हृदय स्वस्थ होता है।

७- मन में संकल्पाें(विचारों) की संख्या कम हाेने लगती हैं, और जब मन में संकल्पाें(विचारों) की संख्या कम हाेते हैं तब मन धीरे-धीरे शांत हाेने लगता हैं।

८- मन शांत हाेने से निर्णय शक्ति मजबूत(शक्तिशाली) हाे जाती हैं।

९- ओ३म् के उच्चारण मात्र से आत्मा की सुषुप्त आंतरिक शक्तियाँ जाग जाती हैं। और आत्मा की सुषुप्त हुँई शक्तियाें के जग जाने पर इस जहान(संसार) का काेई भी कार्य करना असंभव नहीं हाेता आपके लिए। अर्थात हरेक कार्य सरलता पूर्वक आप कर सकते हैं।

१०- ओ३म के लंबे समय तक उच्चारण मात्र से आपके मन, वचन(बाेल) और कर्म में पवित्रता आने लगती हैं।

११- ओ३म के लंबे समय तक उच्चारण मात्र से आपके शरीर के सारे रोम-छिद्र खुल जाते हैं। शरीर के अंदर रक्त-प्रसार तेजी से हाेने लगता हैं। आपके शरीर की त्वचा में कसावट आने लगता हैं। जिससे आपका शरीर पहले की अपेक्षा धीरे-धीरे बहुत सुंदर हाे जाता हैं।

“अर्थात- केवल ओ३म के लंबे समय तक उच्चारण मात्र से आपके तन, मन, वचन(बाेल) और कर्म में पवित्रता (Purity) आ जाती हैं।“


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💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐 तेजोसि तेजो मयि धेहि । वीर्यमसि वीर्यम् महि धेहि । बलमसि बलं मयि धेहि । ओजोस्योजो मयि...

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तेजोसि तेजो मयि धेहि । वीर्यमसि वीर्यम् महि धेहि ।
बलमसि बलं मयि धेहि । ओजोस्योजो मयि धेहि ।
मन्युरसि मन्युम मयि धेहि । सहोसि सहो मयि धेहि ।

🍁🍁 अर्थात 🍁🍁


हे परमात्मा ! आप तेजरूप हैं , हमें तेज से संपन्न बनाइये । आप वीर्यवान हैं , हमें पराक्रमी साहसी बनाइये । आप बलवान हैं , हमे बलशाली बनाइये । आप ओजवान हैं , हमें ओजश्वी बनाइये । आप मन्यु रूप हैं , हमें भी अनीति का प्रतिरोध करने की क्षमता दीजिये । आप कठिनाइयों को सहन करने वाले हैं , हमें भी कठिनाइयों में अडिग रहने की , उन पर विजय पाने की शक्ति दीजिये ।


- यजुर्वेद १९\९

🙏ॐ परम पिता परमातने नमः 🙏

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जैसे कूडा कर्कट से भरे पात्र में सूखे मेवों से युक्त खीर हलवा आदि डालना व्यर्थ है ऐसे ही अन्धविश्वास...

जैसे कूडा कर्कट से भरे पात्र में सूखे मेवों से युक्त खीर हलवा आदि डालना व्यर्थ है ऐसे ही अन्धविश्वास पाखंड से भरे चित्त रुपी पात्र में शुद्ध ज्ञान विज्ञान से युक्त उपदेश डालना व्यर्थ है|इसलिए जोरदार खंडन मंडन से इस चित्त रुपी पात्र को मांजना भी बहुत आवश्यक है अन्यथा परिणाम शून्य हो सकता है|प्राय: देखने में आया है कि वर्षों से वेद उपदेश सुनते आ रहे हैं और पत्थर प्लास्टिक मिट्टी वा कागज से बनी मूर्तियों के आगे माथा रगड रहे हैं वा उनको भोग लगा रहे हैं !! पाषाण पूजा आदि के संस्कारों को पनपने ही न दें इसके लिए आवश्यक है कि माता पिता प्रारम्भ से ही बच्चों को गायत्री आदि वेद मंत्रों का अभ्यास करवाएं,नमस्ते करना सिखाएं और किसी प्रकार की मूर्ति पूजा घर में नकरें|महापुरुषों
के चरित्र से प्रेरणा लेने हेतु उनके चित्र अवश्य लगाएं |माता द्वारा गायत्री आदि वेद मंत्रों का जप करने से गर्भस्थ शिशु पर भी बहुत अच्छा प्रभाव पडता है |बच्चों को धर्म कर्म की सही शिक्षा देना माता पिता का परम कर्तव्य है वरन् वह जिन्दगी भर अन्धविश्वासों व पाखंड की बेडियों में जकडा रह सकता है |
–डा मुमुक्षु आर्य


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हिन्दुओं द्वारा गाई जाने वाली प्रसिद्ध आरती के लेखक पं. श्रद्धाराम जी है। सारा जीवन महर्षि दयानन्द...

हिन्दुओं द्वारा गाई जाने वाली प्रसिद्ध आरती के लेखक पं. श्रद्धाराम जी है। सारा जीवन महर्षि दयानन्द का विरोध और मूर्तिपूजा का समर्थन करते रहे। और उन्होंने जो आरती पौराणिक जनता के लिए लिखी उसमें वह निराकार ईश्वर की उपासना करते दृष्टिगोचर हो रहे हैं। आरती की पहली पंक्ति को लेते हैं—‘ओ३म् जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे, भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे।‘ इस पंक्ति में वेद द्वारा बताये गये ईश्वर के निज नाम ओ३म् को आरम्भ में प्रयोग किया गया है। यहां हरे शब्द आरती के लिए है। जगदीश संसार का स्वामी होने के कारण उसे जगदीश कहते हैं। उस जगदीश से भक्त स्तुति कर कहता है कि वह ईश्वर हमारे सभी संकटों को क्षण भर में दूर करता है। इसी प्रकार से पूरी प्रार्थना व आरती है। पौराणिक देवों ब्रह्मा, शिव, विष्णु, राम, कृष्ण अथवा किसी देवी व अन्य देवता का नाम कहीं नहीं आया है। यह आरती न मूर्तिपूजा की पोषक है और न अवतारवाद की। महर्षि दयानन्द के विचारों को पुष्ट करने वाली क्या बढि़या पंक्ति आपने लिखी—‘तुम पूरण परमात्म तुम अन्तरयामी, प्रभु तुम अन्तरयामी, पार ब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी।‘ यह पूरी आरती ही महर्षि दयानन्द जी के विचारों, मान्यताओं की समर्थक है। हमें तो यह महर्षि दयानन्द का जादू लगता है जो विपक्षी के सिर चढ़ कर बोला है। यह आरती पौराणिक मान्यतओं की समर्थक न होकर वेद और महर्षि दयानन्द की मान्यतओं की समर्थक व पोषक है। हमें यह देखकर भी आश्चर्य हुआ कि जिस व्यक्ति ने सारा जीवन महर्षि दयानन्द का विरोध किया, वह ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना के लिए जिस गीत वा आरती को लिख रहा तो कहीं तो उसे मूर्तिपूजा जिस कारण से वह अन्त तक महर्षि दयानन्द के विरोध के साथ उनको अपमानित करने का प्रयास करता रहा, उनका भी तो कहीं उल्लेख करता। यह या तो महर्षि दयानन्द का प्रभाव था या फिर ईश्वर ने उससे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। जो भी हो, इसे हम ‘सत्यमेव जयते नानृतं’ और महर्षि दयानन्द की दिग्विजय के रूप में देखते हैं।


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नकटों का ढोंग BY VEDICPRESS · APRIL 23, 2015 प्राचीन काल में राजाओं के न्याय में अपराधी को हाथ, पैर,...

नकटों का ढोंग
BY VEDICPRESS · APRIL 23, 2015
प्राचीन काल में राजाओं के न्याय में अपराधी को हाथ, पैर, कान, नाक काटने व आँखें निकालने का दंड भी दिया जाता था। इसी प्रथा के अनुसार एक अपराधी को अपराध करने पर राजा ने उन्हें नाक कटवाने का दंड दिया। अपराधी की नाक काट दी गयी। अपराधी बड़ा ही धूर्त था। वह नाक के कटते ही कूद-कूद कर नाचने लगा और बड़ा प्रसन्न होने लगा। लोगों ने पूछा – “तू इतना प्रसन्न क्यों होता है?” उसने कहा – “नाक की ओट में परमेश्वर था, सो मुझे तो नाक कटने से परमेश्वर दिखने लगा।” यह सुनकर लोगों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि यदि नाक कटवाने से परमेश्वर मिलता है तो हम भी नाक कटवाएँगे। इस विचार से कई व्यक्ति नाक कटवाने के लिए तैयार हुए और धूर्त अपराधी पर विश्वास करके अपनी-अपनी नाकें कटवा ली। नाक काटने पर धूर्त ने तुरंत उनसे कहा – “कि अब तो आप की नाकें कट ही गई। अब नाक फिर से जुड़ नहीं सकती, इसलिए तुम भी नाचने लगो और कह दो कि हमें भी परमेश्वर दिखने लगा है, नहीं तो दुनिया में तुम्हारी निंदा होगी।” यह सुनकर सभी मनुष्य नाचने लगे और यह कहने लगे कि हमें भी नाने से परमेश्वर दिखने लगा है। इसी क्रम से होते-होते नकटों की संख्या बढ़ती गई और नकटों का एक समुदाय बन गया।

यह घटना जब राजा को मालूम हुई तो उसके मन में भी यही विचार आया कि यदि नाक कटवाने से परमेश्वर दीखता है तो नाक कटवाई जावे। ऐसा सोचकर राजा ने नकटों को बुलावाया। राजा को देखकर सभी नकटे ज़ोर-ज़ोर से उछलने कूदने व नाचने लगे और बोले – “महाराज, हमें परमेश्वर दीखता है।” हजारों की संख्या में मनुष्यों को नाचते देख व विश्वास कर महाराज बोले – “यदि ऐसा है तो हम भी नाक कटवाएँगे।” यह सुनकर राजा के दीवानजी को बाद आश्चर्य हुआ। दीवानजी वृद्ध थे, अनुभवी व बुद्धिमान भी थे। दरबार में उनकी काफी प्रसिद्धि थी। दीवान तुरंत राजा के दरबार में उपस्थित हुए और बोले “महाराज, मैंने सुना है की आपने नाक कटवाने का निर्णय लिया है।” महाराज बोले – ‘हाँ’। दीवान ने कहा कि महाराज मुझे इस पर कुछ संदेह हो रहा है। यदि आपकी आज्ञा हो तो आपसे पहले मैं नाक कटवाकर परीक्षण कर लूँ, यदि मुझे परमेश्वर दिखाई पड़ा तो तत्पश्चात आप भी नाक कटवा लेना।” राजा को दीवानजी पर पूरा विश्वास था अत: उन्हें आज्ञा दे दी।
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राजा ने नकटों को बुलाकर एकत्र किया और दीवानजी को बुलाकर उनसे कहा कि “लो, इनकी नाक काटो और परमेश्वर दिखाओ।” उनमें से एक ने बहुत तीक्ष्ण छुरे से दीवानजी की नाक काट दी। दीवान को बड़ा ही कष्ट हुआ। बेचारे दीवान जी हाथ में कटी नाक पकड़कर रह गए। पुन: नकटों ने दीवानजी के कान में अपना वही गुरु मंत्र दोहराया। लेकिन दीवानजी उनके कहने पर न नाचे, न ही यह कहा कि परमेश्वर दिखता है। दीवान जी सीधे राजा के पास पहुंचे और साफ-साफ कह दिया- “ये सब बड़े ही धूर्त हैं, इनहोने हजारों आदमियों की नाकें कटवा डाली। नाक कटने पर परमेश्वर नहीं दिखाई पड़ता, बल्कि नाक के कटने पर इनहोने मेरे कान में ऐसा-ऐसा कहा। उनके इस गुरुमंत्र का भेद जानकार उन सबको राजा ने पकड़वाकर उचित दण्ड दिया और उस महाधूर्त अपराधी को मृत्युदण्ड मिला।

शिक्षा :- भारत में ऐसे ही पाखंडी मतों ने प्रचार किया है, जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है। हमें इन पाखंडी मतों से बचना चाहिए और अन्धविश्वास नहीं करना चाहिए। हमें सच्चे पूर्ण वैज्ञानिक वैदिक धर्म को अपनाकर समस्त प्राणिमात्र के सुखार्थ कर्म करने चाहिए। इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करें मित्रो ! http://ift.tt/19RaSta


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💐।। वेदामृतम् ।। 💐 *********************************** 💥विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो...

💐।। वेदामृतम् ।। 💐
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💥विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी ।
वैश्वानरं ब्रिभती भूमिरग्निमिंद्रऋषभा द्रविणे नो दधातु ।।
- (अथर्व.भूमि सूक्त-12/6)
🍀पदार्थ- (विश्वम्भरा) सब का भरणपोषण करने वाली अथवा सब को अपने ऊपर धारण करने वाली (वसुधानी) सब प्रकार के ऐश्वर्य को अपने में धारण करनेवाली (प्रतिष्ठा) सब का आधार, सब को आश्रय और प्रतिष्ठा देने वाली (हिरण्यवक्षा:) सुवर्ण को अथवा हितकारी और रमणीय पदार्थो को अपने वक्ष:स्थल में रखने वाली (जगत:) सब जगत् को (निवेशनी) अपने में बसाने वाली अथवा कल्याण में प्रविष्ट कराने वाली (वैश्वानरम्) सब लोगों के हितकारी (अग्निम्)अग्नि को (बिभ्रती) अपने में रखने वाली (इंद्र ऋषभा) इंद्र अर्थात् चुना हुआ सम्राट है अधिपति जिसका ऐसी (भूमि:) वह हमारी मातृभूमि (नः) हमें (द्रविणे) बल और धन में (दधातु) धारण करे - इनका प्रदान करे ।
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💐सुभाषितम् ।।💐
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💥अक्षुध्या अतृष्या स्त ।
- अथर्व.7/60/4
- (कोई भी भूखा प्यासा न रहे )
💥अश्मा भवतु ते तनु: ।
-अथर्व. 2/13/4
- (शरीर पत्थर की तरह दृढ हो )
💥अस्माकेन वृजनेना जयम ।
-ऋग्.10/42/10
-(अपने पुरुषार्थ से विजयी हों )
💥ओजश्च तेजश्च सहश्च बलं च ।
- अथर्व.12/5/7
-(ओज, तेज, साहस और बल मिले)
💥उच्च तिष्ठ महते सौभगाय ।
- अथर्व.2/6/2
-(महान् सौभाग्य के लिए उठो और बढ़ो)
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Friday, April 24, 2015

कभी आपने सोचा कि……. १. जिस सम्राट के नाम के साथ संसार भर के इतिहासकार “महान” शब्द...

कभी आपने सोचा कि…….
१. जिस सम्राट के नाम के साथ

संसार भर के इतिहासकार “महान” शब्द लगाते हैं……

२. जिस सम्राट

का राज चिन्ह अशोक चक्र भारत देश अपने झंडे में लगता है…..

३.जिस सम्राट का राज चिन्ह चारमुखी शेर को भारत देश

राष्ट्रीय प्रतीक मानकर सरकार

चलाती है……

४. जिस देश में सेना का सबसे बड़ा युद्ध

सम्मान सम्राट अशोक के नाम पर अशोक चक्र दिया जाता है…..

५. जिस

सम्राट से पहले या बाद में कभी कोई ऐसा राजा या सम्राट

नहीं हुआ, जिसने अखंड भारत (आज का नेपाल, बांग्लादेश,

पूरा भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान) जितने बड़े भूभाग पर एक

छत्री राज किया हो……

६. जिस सम्राट के शाशन काल

को विश्व के बुद्धिजीवी और इतिहासकार

भारतीय इतिहासका सबसे स्वर्णिम काल मानते हैं…..

७.जिस सम्राट के शाशन काल में भारत विश्व गुरु था, सोने

की चिड़िया था, जनता खुशहाल और भेदभाव रहित

थी……

८. जिस सम्राट के शाशन काल

जी टी रोड जैसे कई हाईवे रोड बने, पूरे रोड पर

पेड़ लगाये गए, सराये बनायीं गईं इंसान तो इंसान जानवरों के लिए

भी प्रथम बार हॉस्पिटल खोले गए, जानवरों को मारना बंद कर

दिया गया…..

ऐसे महन सम्राट अशोक कि जयंती उनके

अपने देश भारत में

क्यों नहीं मनायी जाती, न किकोई

छुट्टी घोषित कि गई है??

अफ़सोस जिन लोगों को ये

जयंती मनानी चाहिए, वो लोग अपना इतिहास

ही नहीं जानते और जो जानते हैं

वो मानना नहीं चाहते ।

1. जो जीता वही चंद्रगुप्त ना होकर…

जो जीता वही सिकन्दर “कैसे” हो गया… ???

(जबकि ये बात सभी जानते हैं कि…. सिकंदर

की सेना ने चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रभाव को देखते

हुये ही लड़ने से मना कर दिया था.. बहुत

ही बुरी तरह मनोबल टूट गया था…. जिस

कारण , सिकंदर ने मित्रता के तौर पर अपने

सेनापति सेल्युकश

कि बेटी की शादी चन्द्रगुप्त से की थी)

2. महाराणा प्रताप “”महान””” ना होकर………

अकबर “””महान””” कैसे हो गया…???

जबकि, अकबर अपने हरम में

हजारों लड़कियों को रखैल के तौर पर

रखता था…. यहाँ तक कि उसने

अपनी बेटियो और बहनोँ की शादी तक पर

प्रतिबँध लगा दिया था जबकि..

महाराणा प्रताप ने अकेले दम पर उस अकबर के

लाखों की सेना को घुटनों पर

ला दिया था)

3. सवाई जय सिंह को “””महान वास्तुप्रिय”””

राजा ना कहकर शाहजहाँ को यह

उपाधि किस आधार मिली …… ???

जबकि… साक्ष्य बताते हैं कि…. जयपुर के

हवा महल से लेकर तेजोमहालय{ताजमहल}तक ….

महाराजा जय सिंह ने ही बनवाया था)

4. जो स्थान महान मराठा क्षत्रिय वीर

शिवाजी को मिलना चाहिये वो………. क्रूर

और आतंकी औरंगजेब को क्यों और कैसे मिल

गया ..????

5. स्वामी विवेकानंद और आचार्य चाणक्य

की जगह… ….. गांधी को महात्मा बोलकर ….

हिंदुस्तान पर क्यों थोप दिया गया…??????

6. तेजोमहालय- ताजमहल……… ..लालकोट-

लाल किला……….. फतेहपुर सीकरी का देव

महल- बुलन्द दरवाजा…….. एवं सुप्रसिद्ध

गणितज्ञ वराह मिहिर की

मिहिरावली(महरौली) स्थित वेधशाला-

कुतुबमीनार….. ……… क्यों और कैसे

हो गया….?????

7. यहाँ तक कि….. राष्ट्रीय गान भी…..

संस्कृत के वन्दे मातरम की जगह

गुलामी का प्रतीक””जन-गण-मन हो गया””

कैसे और क्यों हो गया….??????

8. और तो और…. हमारे अराध्य भगवान् राम..

कृष्ण तो इतिहास से कहाँ और कब गायब

हो गये……… पता ही नहीं चला……….आखिर

कैसे ????

9. यहाँ तक कि…. हमारे अराध्य भगवान राम

की जन्मभूमि पावन अयोध्या …. भी कब और

कैसे विवादित बना दी गयी… हमें पता तक

नहीं चला….!

कहने का मतलब ये है कि….. हमारे दुश्मन सिर्फ….

बाबर , गजनवी , लंगड़ा तैमूरलंग…..ही नहीं हैं…… बल्कि आज के

सफेदपोश सेक्यूलर भी हमारे उतने ही बड़े दुश्मन

हैं…. जिन्होंने हम हिन्दुओं के अन्दर हीन

भाबना का उदय कर सेकुलरता का बीज उत्पन्न किया।


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Wednesday, April 22, 2015

पादरी आर्य उपदेशक बन गया यह घटना सन १९५४ या १९५५ की हैं। उन दिनों मिस्टर गिल नमक एक ईसाई पादरी...

पादरी आर्य उपदेशक बन गया

यह घटना सन १९५४ या १९५५ की हैं। उन दिनों मिस्टर गिल नमक एक ईसाई पादरी अम्बाला में रहते थे जिन्हें लोग लाट साहिब के नाम से पुकारते थे। उन्हें उच्च स्तर के ईसाई मत का संरक्षण प्राप्त था। एक दिन पादरी साहिब ने घोषणा करी की वे ईसा मसीह पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखते हैं और किसी भी मृत व्यक्ति पर अगर वे हाथ फेर दे तो वह मृतक पुनर्जीवित हो जायेगा। डॉ हरीप्रकाश गुरुकुल कांगड़ी के स्नातक थे और पक्के आर्यसमाजी थे। उन्होंने इस चुनोती को स्वीकार कर लिया और यह निर्धारित कर लिया की जो भी पक्ष पराजित होगा वह जितने वाले के मत को स्वीकार कर लेगा। शास्त्रार्थ के लिए आर्यसमाज के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ महारथी पंडित शांतिप्रकाश जी को बुला लिया गया पर समस्या यह हो गयी की शास्त्रार्थ से पहले दिन तक आर्यसमाज को किसी मृतक का शव प्राप्त नहीं हुआ। शास्त्रार्थ के दिन आर्यसमाज के मंत्री श्री चुनीलाल जी को प्रात भ्रमण करते हुए एक मृत कौवा मिल गया। उन्होंने उसे एक थैले में रख लिया और शास्त्रार्थ स्थल पर अपने साथ ले गए। पंडित शांति प्रकाश जी ने शास्त्रार्थ आरंभ होते ही पुछा की आप मनुष्य के शव को ही जीवित कर सकते हैं अथवा किसी पशु-पक्षी के मृत शरीर में भी आप प्राण डाल सकते हैं। पादरी ने कहाँ हम किसी भी मृतक के शरीर में प्राण डाल सकते हैं। पादरी को यह विश्वास था की आर्यसमाज के लोग किसी भी मृतक के शरीर को ला नहीं पाएंगे तो मेरी घोषणा की परीक्षा ही नहीं हो सकेगी। पंडित शांति प्रकाश जी ने घोषणा करी की हम तो किसी मृतक का शरीर नहीं ला पाए उपस्थित लोगो में से कोई यदि किसी व्यक्ति ने किसी भी प्राणी के शव का प्रबंध किया हो तो ले आये। यह सुनकर श्री चुन्नीलाल जी ने मंच पर मृत कौवा लाकर रख दिया। पंडित जी ने उसे पादरी साहिब के आगे रख कर कहाँ- पादरी जी, इसे जीवित करके दिखाए। पादरी साहिब निरंटर १५ मिनट तक उस कौवे के शरीर पर हाथ फेर कर प्रार्थना करते रहे। लोग दम साधे इस दृश्य को देखते रहे, पर कौवा जिन्दा नहीं हुआ। १५ मिनट के बाद आर्यसमाज की जय, स्वामी दयानंद की जय, पंडित शांति प्रकाश की जय के गगन भेदी नारों से समारोह स्थल गूंज उठा। पादरी गिल साहिब ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और ईसाई मत त्याग कर आर्यसमाज में प्रवेश कर लिया। उनका नाम बदल कर सुरजन दास रखा गया था और उन्होंने आर्यसमाज का अगले १० वर्ष तक आजीवन प्रचार किया।
अगर इसी प्रकार सभी ईसाई पादरियों की सत्य मार्ग दिखाया जाये तो न केवल उनका उद्धार होगा अपितु अनेक हिन्दुओं को धर्मांतरण से भी बचाया जा सकता हैं


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👉क्या सरस्वती ज्ञानकी देवी है ? अगर है तो इन शंकाओँ का समाधान करेँ 1.इसके बिना इसाई, मुसलमान,...

👉क्या सरस्वती ज्ञानकी देवी है ?
अगर है तो इन शंकाओँ का समाधान करेँ
1.इसके बिना इसाई, मुसलमान, प्रकृतिपूजक.नास्तिक आदि कैसे ज्ञान प्राप्त कर पा रहे हैँ।
2. सरस्वती कितनी भाषाएँ जानती हैँ ?
3.हड़प्पा सभ्यता की लिपि अब तक
नहीँ पढ़ी गई। इस संबंध मेँ सरस्वती का क्या मास्टर प्लान है ?
4.सरस्वती के होते हुए स्कूलोँ मेँ
शिक्षकोँ की जरूरत क्योँ पड़ती है ?
5.अंग्रेजोँ के पहले भारत मेँ
अंग्रेजी क्योँ नहीँ थी. क्या सरस्वती पहले अंग्रेजी नहीँ जानती थी ?
6. कई देश शतप्रतिशत साक्षर हो गए, जबकि भारत सरस्वती के होते हुए भी साक्षरता मेँ पीछे हैँ. क्योँ ?
7. मनु ने मनुस्मृति मेँ शूद्रोँ का पढ़ना दंडनीय माना है। आज तक इस मामले मेँ सरस्वती ने कोई एक्शन क्योँ नहीँ लिया ?
क्या सरस्वती भी इस षडयंत्र मेँ शामिल
थी ? ज्ञान तो सरस्वती देती है. क्या यह ज्ञान मनु को सरस्वती ने ही दिया था ?
8. कई भाषाएँ लुप्त हो गई और कई लुप्त हो रही हैँ। सरस्वती उन्हेँ क्योँ नहीँ बचा पा रही हैँ?
क्या इतनी सारी भाषाओँ को याद रखना उनके लिए मुश्किल हैँ ?


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[5:37pm, 4/11/2015] himanshu animator87 hp32@: [5:46pm, 1/29/2015] himanshu animator87 hp32@: ्...

[5:37pm, 4/11/2015] himanshu animator87 hp32@: [5:46pm, 1/29/2015] himanshu animator87 hp32@: ् राष्ट्र पितामह महर्षि दयानंद सरस्वती।

महर्षि दयानन्द सरस्वती उन महापुरूषो मे से थे जिन्होनेँ स्वराज्य की प्रथम घोषणा करते हुए, आधुनिक भारत का निर्माण किया । हिन्दू समाज का उद्धार करने मेँ आर्यसमाज काबहुत बड़ा हाथ है। - नेता जी सुभाष चन्द्र बोस

यदि हम महर्षि दयानन्द की नीतियोँ पर चलते तो देश कभी नही बंटता । आज देश मेँ जो भी कार्य चल रहे है। उनका मार्ग स्वामी जी ने वर्षो पूर्व बना दिये थे । - सरदार वल्लभ भाई पटेल

महर्षि दयानन्द महान नायक और क्रान्तिकारी महापुरुष थे। उन्होने स्वराज्य और स्वदेशी की ऐसी लहर चलाई कि जिससे इण्डियन नेशनल कांग्रेस के निर्माण कीपृथ्ठभूमि तैयार हो गयी। - लाल बहादुर शास्त्री

महर्षि दयानन्द सरस्वती राष्ट्र के पितामह थे। वे राष्ट्रीय प्रवृत्ति और स्वाधीनता के आन्दोलन के प्रथम प्रवर्तक थे । - अनन्त शयनम्‌ आयंगर

स्वराज्य आन्दोलनके प्रारम्भिक कारण स्वामी दयानन्द की गिनतीभारत के निर्माताओ मेँ सर्वोच्च है। वे भारत के कीर्ति स्तम्भ थे जहाँ-जहाँ आर्यसमाज वहाँ-वहाँ क्रान्ति (विद्रोह)की आग है। - ग्रास ब्रोण्ड(एक अंग्रेज अधिकारी)

स्वामी दयानन्द मेरे गुरु है मैने संसार मेँ केवल उन्ही को गुरु माना है वे मेरे धर्म के पिता है और आर्यसमाज मेरीधर्म की माता है, इन दोनोकी गोदी मे मै पला हूँ, मुझे इस बात का गर्व है कि मेरे गुरु ने मुझे स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया । -पंजाब केसरी लाला लाजपत राय

महर्षि दयानन्द के क्रान्तिकारी विचारोँ से युक्त सत्यार्थ प्रकाश ने मेरे जीवन के इतिहास मेँ एक नयापृष्ठ जोड़ दिया। -अमर क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल.

महर्षि दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्ध और हिन्दू जाति के रक्षक थे। स्वतन्त्रता के संग्राम मे आर्य समाजियोँ का बड़ा हाथ रहा है । महर्षि जी का लिखा अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश हिन्दू जाति की रगो मेँ क्रान्तिकारी (उष्ण रक्त) का संचार करने वाला है । सत्यार्थ प्रकाश की विद्यामनता मे कोई विधर्मीअपने मजहब कीशेखी नहीँ बघार सकता । - स्वातन्त्र्य वीर सावरकर

डी॰ए॰बी॰ यानी दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल मेँ हम सब भाइयोँ को सत्यार्थ प्रकाश पढने का अवसर मिला। हमारे विचारोँ और मानसिक उन्नति के निर्माण मे सबसे बडा हाथ आर्य समाज काहीहै। हम सब इसके लिए आर्यसमाज के ऋणी है। - अमर क्रान्तिकारी भगत सिँह

स्वामी दयानन्द दिव्य ज्ञान वेद का सच्चा सैनिक, विश्व को प्रभु की शरण मेँ लाने वाला योद्धा, धर्म तथा देश की स्वतन्त्रता के लिए मनुष्य व संस्थाओँ का शिल्पी तथा प्रकृति द्वाराआत्मा के मार्ग मे उपस्थित की जाने वाली बाधाओँ का वीर विजेता था। - योगी अरविन्द घोष

मेरा सादर प्रणाम है उस महान गुरु दयानन्द को जिनके मन ने भारतीय जीवन के सब(राजनैतिक,सामाजिक तथा धार्मिक) अंगो को प्रदीप्त कर दिया। मै आधुनिक भारत के मार्गदर्शक उस दयानन्द को आदर पूर्वक श्रद्धांजलिदेता हुँ। -रवीन्द्रनाथ टैगोर

स्वामी दयानन्द एक विद्वान थे। उनके धर्म नियमोँ की नीव ईश्वर कृप वेदोँ पर थी। उन्हे वेद कण्ठस्थ थे उनके मन और मस्तिक मेँ वेदोँ ने घर किया हुआ किया हुआ था। वर्तमान समय मेँ संस्कृत व्याकरण का एक ही बडा विद्वान साहित्य का पुतला, वेदोँ के महत्व को समझने वाला अत्यन्त प्रबल नैयायिक और विचारक यदिभारत मेँ हुआ है तो वह महर्षि दयानन्द सरस्वती ही था। - मैक्स मूलर

महर्षि दयानन्द इतने अच्छे और विद्वान आदमी थे कि प्रत्येक धर्म के अनुयायियो के लिएसम्मान के पात्र थे। - सर सैयद अहमद खाँ

अगर आर्यसमाज न होता तो भारत की क्या दशाहुई होती इसकी कल्पनाकरना भी भयावह है। आर्यसमाजका जिस समय काम शुरु हुआ था कांग्रेस का कहीँ पताहीनही था । स्वराज्य का प्रथम उद्‌धोष महर्षि दयानन्द ने ही किया था यह आर्यसमाज ही था जिसने भारतीय समाज की पटरी से उतरी गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने का कार्य किया। अगर आर्यसमाज नहोता तो भारत-भारत न होता। - अटल बिहारीबाजपेयी

आर्यसमाज दौडतारहेगा तो हिन्दू समाज चलता रहेगा। आर्यसमाज चलता रहेगा, तो हिन्दूसमाज बैठ जायेगा। आर्यसमाज बैठ जायेगा तोहिन्दूसमाज सो जायेगा। और यदि आर्यसमाज सो गया तो हिन्दूसमाज मर जायेगा। - पंडित मदनमोहन मालवीय

सारे स्वतन्त्रतासेनानियोँ का एक मंदिर खडा किया जाय तो उसमेँ महर्षिदयानन्द मंदिर की चोटी पर सबसे ऊपर होगा। - श्रीमती एनी बेसेन्ट

सत्यार्थ प्रकाश का एक-एक पृष्ठ एक-एक हजार का हो जाय तब भीमै अपनीसारी सम्पत्ति बेचकर खरीदुंगा उन्होने सत्यार्थ प्रकाश को चौदह नालो का तमंचा बताया। -पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी

मै उस प्रचण्ड अग्नि को देख रहा हूँ जो संसार की समस्त बुराइयोँ को जलाती हुई आगे बढ़ रही है वह आर्यसमाज रुपी अग्नि जो स्वामी दयानन्द के हृदय से निकली और विश्व मे फैल गयी । - अमेरिकन पादरी एण्ड्‌यू जैक्सन

नत मस्तक सब आर्यजन, करते तुम्हे प्रणाम। अजर-अमर है विश्व मे, दयानन्द का नाम॥
[2:58pm, 2/2/2015] himanshu animator87 hp32@: महर्षि दयानन्द की विश्व को सर्वोत्तम देन - वेदों का पुनरूद्धार।

1. महर्षि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में देश को जो कुछ दिया है वह महाभारत काल के सभीउत्तरवर्ती एवं उनके समकालीन किसीमहापुरूष ने नहीं दिया है। मनुष्य कीसबसे बड़ीआवश्यकता क्या है? मनुष्य की सबसे बड़ीआवश्यकता ज्ञानहै। सृष्टि के आदिकाल में जब ईश्वर ने मनुष्यों को उत्पन्न कियातो, भोजन से पहले भी उन्हें जिस किसीवस्तु की आवश्यकता पड़ीथी, वह ज्ञान व भाषा थी। इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्तिकरने वाला तब न किसी का कोई माता-पिता, न गुरू, न आचार्य और न कोई और था। ऐसे समय में केवल एक ईश्वर ही था जिसने इस जंगम संसार कोबनाया था और उसी ने सभीप्राणियों को भी बनाया था। अतः ज्ञान देने का सारा भार भी उसी पर था। यदि वह ज्ञान न देता तोहमारे आदि कालीन पूर्वज बोल नहीं सकते थे और न अपनी आवश्यकताओं – भूख व प्यास आदिको जान व समझ हीसकते थे। इन दोनों व अन्य अनेक कार्यों के लिएहमें भाषा सहित ज्ञान की आवश्यकता थी जिसे ईश्वर ने सबको भाषा देकर व चार ऋषियों को चार वेदों का शब्द, अर्थ व सम्बन्ध सहित ज्ञान देकर पूरा किया। इन चार ऋषियों के नाम थे अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा जिन्हें क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद काज्ञान ईश्वर से इनऋषियों की अन्तरात्मामें अपने जीवस्थ, सर्वान्तर्यामी व सर्वव्यापक स्वरूप से प्राप्त हुआ था। इन चार ऋषियों कोज्ञान मिल जाने के बाद काम आसान हो गया और अब आवश्यकता अन्य मनुष्यों को ज्ञान कराने की थी। प्राचीन वैदिक साहित्य में एतद् विषयक सभी प्रमाण उपलब्घ हैं।

ईश्वर की प्रेरणा से इन चार ऋषियों ने एक अन्य ऋषि ‘श्री ब्रह्मा जी’को एक-एक करके चारों वेदों का ज्ञान कराया और स्वयं भी अन्य-अन्य वेदों का ज्ञानप्राप्त करते रहे। यह ऐसा ही हुआ था जैसे कि किसी कक्षामें गुरू व शिष्य सहित 5 लोग हों। एक चार को पढ़ाता है जिससे चारों को उस विषय काज्ञान हो जाताहै। अग्नि को ईश्वर से ऋग्वेद का ज्ञान प्राप्त हुआ था, अतः उन्होंने अन्य चार ऋषियों को ऋग्वेद पढ़ायाजिससे अन्य चार ऋषियों को भी ऋग्वेद का ज्ञानहोगया। इसके बाद एक-एक करके वायु, आदित्य व अंगिराने अन्य चार कोयजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान करायाऔर इस प्रकार यह पांचों ऋषिचारों वेदों के विद्वान बन गये। अब इस प्रकार से इन 5ऋषियों वा शिक्षकों ने वेदों का अन्य युवा स्त्री-पुरूषों को शिष्यवत् ज्ञान कराने का उपक्रम किया। सृष्टि के आदिकाल में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न सभी मनुष्यों का स्वास्थ्य व उनकी स्मरण-शक्ति-स्मृति अतीव तीव्र व उत्कृष्ट अवस्था में थी। वह ऋषियों के बोलने पर उसे समझ कर स्मरण कर लेते थे। इस कारण यह क्रम कुछ ही दिनों व महीनों में पूराहो गया। वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। अतः सभी स्त्री व पुरूषों को सभीविषयों का पूर्ण ज्ञानहोगया। ज्ञान होने व शारीरिक सामर्थ्य में किसी प्रकार की कमी नहोने के कारण उन्होंने अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति शीघ्र ही कर लीथी। कारण यह था कि उन्हें सभीप्रकार का ज्ञान थाऔर उनकी आवश्यकता की सभी सामग्रीभी प्रकृति में उपलब्धथी। हम यह भीकहना चाहते हैं कि आदि सभी मनुष्य पूर्णतः शाकाहारीथे। सृष्टि में प्रचुर मात्रामें सभीप्रकार के फल, ओषधियां, गोदुग्ध, वनस्पतियां आदि विद्यमानथी जिनका ज्ञान इन लोगों को ईश्वर एवं पांच ऋषियों द्वारा कराया गया था। अतः इन्हें सामिष भोजन की कोई आवश्यकता नहीं थी। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध है और ईश्वर ने अन्य प्राणियों को मनुष्यों के आहार करने के लिए नहीं बनाया है, यह भी सिद्ध है। यदि पशु व अन्य प्राणी आदि मनुष्यों के आहार के लिएबनाये होते तो ईश्वर वनस्पतियों, फल, मूल, अन्न, दुग्ध आदिकदापि न बनाता। सृष्टि के आरम्भ से दिन, सप्ताह, माह व वर्ष आदिकी गणना भी आरम्भ हो गई थी। जो अद्यावधि1,96,08,53,114वर्ष पूर्ण होकर 6 महीने व 15 दिवस (दिनांक 24 सितम्बर, 2014 को) व्यतीत हुए है। महाभारत का युद्ध जो अब से 5,239 वर्ष पूर्व हुआ था, इतनी अवधि तक वेदों के ज्ञान के आधार पर ही सारा संसार सुचारू रूप से चलता रहा है और यह सारा समय ज्ञान व विज्ञान से युक्त रहाहै। महाभारत के युद्ध में देश विदेश के क्षत्रिय व ब्राह्मण बड़ीसंख्या में मारे गये जिससे राज्य व सामाजिक व्यवस्थाछिन्न भिन्न हो गई थी। यद्यपिमहाभारत काल के बाद महाराज युधिष्ठिर व उनके वंशजों ने लम्बी अवधि तक राज्य किया परन्तु महाभारत युद्ध का ऐसा प्रभाव हुआ किहमारापण्डित व ज्ञानी वर्ग आलस्य व प्रमाद में फंस गया और वेदों का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार व प्रसार अवरूद्धहो गया जिससे सारा देश व विश्व अज्ञान के अन्धकार में डूब गया। महाभारत के उत्तर काल में हम देखते हैं कि पूर्णतः अहिंसक यज्ञों में हिंसा की जाने लगी, स्त्री व शूद्रों कोवेदों के अध्ययनके अधिकार से वंचित कर दिया गया, क्षत्रिय व वैश्य भी बहुत कम ही वेदों का अध्ययन करते थे और पण्डित व ब्राह्मण वर्ग के भी कम ही लोग भली प्रकार से वेदों व अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करते थे जिसका परिणाम मध्यकाल का ऐसा समय आयाजिसमें ईश्वर का सत्य स्वरूप भुलाकर एक काल्पनिक स्वरूप स्वीकार कियागयाजिसकी परिणति अवतारवाद, काल्पनिक गाथाओं से युक्त पुराण आदि ग्रन्थों की रचना, मूर्तिपूजा, तीर्थ स्थानों की कल्पना व उसे प्रचारित करने के लिएउसका कल्पित महात्म्य, अस्पर्शयता, छुआछूत, बेमेल विवाह, चारित्रिक पतन, अनेक मत-पन्थों का आविर्भाव जिसमें शैव, वैष्णव, शाक्त आदिप्रमुख थे, इनमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। जैसा भारत में हो रहा था, ऐसा ही कुछ-कुछ विदेशों में भीहोरहा था। वहां पहले पारसी मत अस्तित्व में आया, उसके बाद अन्य मत उत्पन्न हुए, कालान्तर में ईसाई मत व इस्लाम मत काप्रादूर्भाव हुआ। यह सभी मत अपने अपने काल के अनुसार ज्ञानव अज्ञान दोनों से प्रभावित थे व वेदों की भांति सर्वागीण नहीं थे। वेदों के आधार पर ईश्वर का जो सत्य स्वरूप महर्षिदयानन्द ने प्रस्तुत किया व जिसकी चर्चा व उल्लेख हमारे दर्शनों, उपनिषदों, मनुस्मृति, महाभारत व रामायण आदि ग्रन्थों में मिलती है, वह सर्वथा विलुप्त होकर सारे संसार में अज्ञानान्धकार फैल गया। इस मध्यकाल में सभीमत अपने अपने असत्य मतों को ही सबसे अधिक सत्य व सबके लिए ग्राह्य बताने लगे। ऐसी परिस्थितियों के देश में विद्यमानहोजाने के कारण देश गुलाम होगया। जनताका उत्पीड़न हुआ और 19हवीं शताब्दी में सुधार कीनींव पड़ी।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1825 को गुजरात के टंकारानामक ग्राम में हुआ। उनके जन्म के समय से 1.960 अरब वर्ष पहले सृष्टिकी आदि में उत्पन्न ईश्वरीय ज्ञान के ग्रन्थ वेद लुप्त प्रायः हो चुके थे। इसका मुख्य कारण यह था कि उन दिनों ज्ञानव विज्ञान सारे विश्व में अत्यन्त अवनत अवस्था में था। उन दिनों न तो वैज्ञानिक विधि से कागजबनाने कीतकनीकि काज्ञान था और न हि मुद्रणालय उपलब्धथे। महाभारत काल के बाद से लोग हाथों से कागज बनाते थे जो कि अत्यन्त निम्न कोटि का हुआ करता था। उन दिनों लिखने के लिए भी आजकल की तरह लेखनीअथवापैन आदि उपलब्धनहीं थे। सभीग्रन्थों को धीरे-धीरे हाथ से लिखा जाता था यामूल ग्रन्थ से प्रतिलिपिया अनुकृति कीजाती थी। इस कार्य में एक समय में एक हीप्रति लिखी जासकती थी। हमारा अनुमान है किवेदों कीएक प्रति तैयार करने में एक व्यक्ति को महीनों व वर्षों लगते थे। वह व्यक्ति यदिकहीं असावधानी करता था तो वह अशुद्धि भविष्य की सभी प्रतियों में हुआ करती रही होगी। यदि लेखक कुछ चंचल स्वभाव का हो तो वह स्वयं भी कुछ श्लोक आदि उसके द्वारा कीजा रहीप्रतिलिपिमें मिला सकता था। ऐसा करना कुछ लोगो का स्वभाव हुआ करता है। एक प्रतिमें जब इतना श्रम करनापड़ता थातो यह ग्रन्थ दूसरों को आसानी से सुलभ होने कीसम्भावना भी नहीं थी। अतः उन दिनों अध्ययन व अध्यापन आज कल की तरह सरल नही था। उन दिनों लोगों की प्रवृत्ति वेदों से छूट कर कुछ चालाक व चतुर लोगों द्वारा कल्पित कहानीकिस्सों के आधार पर पुराणों की रचना कर देने से उनकी ओर हो गई। इस कारण वेदों में लोगों की रूचि समाप्त होगई। ऐसे समय में कोई विरला ही वेदों के महत्व को जानता थाऔर उनकी रक्षा व अध्ययन में प्रवृत्त होता था। वेदों का अध्ययन कराने वाले योग्य शिक्षकों व अध्यापकों की उपलब्धता अपवाद स्वरूप ही होतीथी। उन दिनों पुराण, रामचरित मानस, गीता आदिग्रन्थ तो आसानी से उपलब्धहोजाते रहे होंगे परन्तु वेदों कीअप्रवृत्ति होने के कारण उनका उपलब्धहोना कठिन व कठिनतम् था। इससे पूर्व की वेद धरती से पूरी तरह से विलुप्त हो जाते, दैवीय कृपा से महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव होताहै और उन्हें गुरू के रूप में स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी मिल गए जिनकी पूरी श्रद्धा वेदों एवं आर्ष साहित्य में थी। उन्होंने नेत्रों से वंचित होने पर भी संस्कृत की आर्ष व्याकरण, अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरूक्त पद्धति का सतर्क रहकर अध्ययन कियाथा और भारत के इतिहास व आर्ष व अनार्ष ज्ञानके भेद को वह भली प्रकार से समझते थे। भारत में ऐसे एकमात्र गुरू से स्वामी दयानन्द ने संस्कृत व्याकरण व वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। महर्षि दयानन्द सन् 1860 में गुरू विरजानन्द सरस्वती की मथुरा स्थितिसंस्कृत पाठशाला में पहुंचें थे। उन्होंने वहां रहकर सन् 1863 तक लगभग 3वर्षों में अपनाअध्ययन पूरा किया। इसके बाद वह गुरू से पृथक हुए। प्रस्थान से पूर्व, गुरू दक्षिणा के अवसर पर, गुरू व शिष्य का वार्तालाप हुआ। गुरू ने स्वामी दयानन्द को बताया कि उन दिनों विश्व भर में सत्य धर्म कहीं भी अस्तित्व में नहीं है। सभीमत-मतान्तर सत्य व असत्य मान्यताओं, कथानकों, मिथ्या कर्मकाण्डों व क्रिया-कलापों, आचरणों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों-नीतियों, अनावश्यक अनुष्ठानों आदिसे भरे हुए हैं। सत्य केवल वेदों एवं ऋषिकृत आर्ष ग्रन्थों में ही विद्यमान हैं। इतर ग्रन्थ अनार्ष ग्रन्थ हैं जिनमें हमारे सत्पुरूषों की निन्दा, असत्य व काल्पनिक कथाओं का चित्रण व मिश्रण हैं। इनमें अनेक मान्यताये तो ऐसी हैं जिनका निर्वाह अनावश्यक एवं जीवन के लिए अनुपयोगी है। अतः स्वामीदयानन्द को मानवता के कल्याण के लिए सत्य की स्थापनाकरने व वेदों व वैदिक ग्रन्थों को आधार बनाना आवश्यक प्रतीत हुआ। उन्होंने इस सत्य व तथ्य को जान कर वेदों की ओर चलों, का नारा लगाया। उन्होंने घोषणा की कि वेद ईश्वरीय ज्ञानहै, इसलिये वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब ईश्वरपुत्र आर्यों व मानवमात्र का धर्म ही नहीं अपतिु परम धर्म है। महर्षि दयानन्द की इन घोषणाओं को सुनकर लोग आश्चर्य में पड़ गये कि यह व्यक्ति कौन है, जो वेदों की बात करता है। ऐसीबात तो न स्वामी शंकराचार्य ने की थी, न आचार्य चाणक्य ने और न भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने ही। यूरोप व अरब से भी कभी इस प्रकार की आवाज सुनाई नहीं दी। वेद क्या हैं व उनमें क्या कुछ है, कोई नहीं जानता था। बहुत से व अधिकांश धर्माचार्यों ने तो वेद कभी व कहीं देखे भीनहीं थे। भारत के सनातन धर्म नामी पुराणों के अनुयायी धर्माचार्य तो वेदों के सर्वथा विरूद्ध व असत्य, पुराणों को ही वेद से भी अधिक मूल्यवान, प्रासंगिक व जीवनोपयोगी मानते थे। स्वामी दयानन्द की इस घोषणा से सभी धर्माचार्य अचम्भित व भयभीत हो गये। अब से 2,500वर्ष भगवान बुद्ध व भगवान महावीर ने वेदों के नाम पर किये जाने वाले हिंसात्मक यज्ञ यथा, गोमेध, अश्वमेध, अजामेध यज्ञों को चुनौती दी थी और अब यह वेदों का अपूर्व पण्डित व विद्वान दयानन्द पहला व्यक्ति आया था, जिसने नकेवल पौराणिक मत वालों को ही ललकारा अपितु संसार के सभीमतवालों को चुनौती दीकी वह अपने मत कीमान्यताओं को सत्य सिद्ध करें या उनसे शास्त्रार्थ कर स्वयं कोविजयी व स्वामी दयानन्द को पराजित करें। कोई सामने न आ सकाऔर यदि आयातो पराजित हुआ। बार बार चुनौती से विवश होकर सन् 1869में काशी नरेश के आदेश से काशी के 30 से अधिक शिखरस्थ कहे जाने वाले विद्वान व पण्डितों कोवेदों से मूर्तिपूजा सिद्धकरने कीचुनौती स्वीकार करनी पड़ी, वह सामने आये लेकिन शास्त
[2:58pm, 2/2/2015] himanshu animator87 hp32@: आर्यसमाज का राष्ट्र को योगदान।

संसार में आर्य समाज एकमात्र ऐसा संगठन है जिसके द्वारा धर्म, समाज, और राष्ट्र तीनों के लिए अभूतपूर्व कार्य किएगए हैं, इनमे से कुछ इस प्रकार है –

वेदों से परिचय – वेदों के संबंध में यह कहाजाता था कि वेद तो लुत्प हो गए, पाताल में चले गए। किन्तु महर्षि दयानन्द के प्रयास से पुनः वेदों का परिचय समाज को हुआ और आर्य समाज ने उसे देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी पहुँचाने का कार्य किया। आज अनेक देशों में वेदो ऋचाएँ गूंज रहीहैं, हजारों विद्वान आर्य समाज के माध्यम से विदेश गएऔर वे प्रचार कार्य कर रहे हैं। आर्य समाज कियह समाज को अपने आप में एक बहुत बड़ी दें है।

सबको पढ़ने का अधिकार - वेद के संबंधमें एक और प्रतिबंध था। वेद स्त्रीऔर शूद्र को पढ़ने, सुनने का अधिकार नहीं था। किन्तु आज आर्य समाज के प्रयास से हजारों महिलाओं ने वेद पढ़कर ज्ञान प्रपट किया और वे वेद कि विद्वानहैं। इसी प्रकार आज बिना किसी जाति भेद के कोई भी वेद पढ़ और सुन सकताहै। यह आर्य समाज का हीदेंनहै।

जातिवाद का अन्त – आर्य समाज जन्म से जाति को नहीं मानता। समस्त मानव एक हीजाति के हैं। गुण कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था को आर्य समाज मानताहै। इसीलिएनिम्न परिवारों में जन्म लेने वाले अनेक व्यक्तिभी आज गुरुकुलों में अध्यन कर रहे हैं। अनेक व्यक्ति शिक्षा के पश्चात आचार्य शास्त्री, पण्डित बनकर प्रचार कर रहे हैं।

स्त्री शिक्षा - स्त्री को शिक्षा काअधिकार नहीं है, ऐसी मान्यता प्रचलित थी। महर्षि दयानन्द ने इसकाखण्डन कियाऔर सबसे पहला कन्याविद्यालय आर्य समाज की ओर से प्रारम्भ किया गया। आज अनेक कन्यागुरुकुल आर्य समाज के द्वारा संचालित किएजा रहे हैं।

विधवा विवाह – महर्षि दयानन्द के पूर्व विधवासमाज के लिए एक अपशगून समझीजाति थी। सतीप्रथा इसीका एक कारण था। आर्य समाज ने इस कुरीति का विरोधकिया तथा विधवा विवाह को मान्यता दिलवाने का प्रयास किया।

छुआछूत का विरोध – आर्य समाज ने सबसे पहले जातिगत ऊँचनीच के भेदभाव को तोड़ने की पहल की। इस आधार पर बाद में कानून बनाया गया। अछूतोद्धार के सम्बन्ध में आर्य सन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द ने अमृतसर काँग्रेस अधिवेशन में सबसे पहले यह प्रस्ताव रखा था जो पारित हुआ था।

देश की स्वतन्त्रता में योगदान – परतंत्र भारत को आजाद कराने में महर्षि दयानन्द को प्रथम पुरोधा कहा गया। सन् 1857के समय से ही महर्षिने अंग्रेज़ शासन के विरुद्ध जनजागरण प्रारम्भ कर दिया था। सन् 1870में लाहौर में विदेशी कपड़ोकी होली जलाई। स्टाम्प ड्यूटीव नमक के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा परिणाम स्वरूप आर्यसमाज के अनेक कार्यकर्ता व नेता स्वतन्त्रता संग्राम में देश को आजाद करवाने के लिए कूद पड़े।

स्वतन्त्रता आंदोलनकारियों के सर्वेक्षण के अनुसार स्वतन्त्रता के लिए 80प्रतिशत व्यक्ति आर्यसमाज के माध्यम से आए थे। इसी बात को काँग्रेस के इतिहासकार डॉ॰ पट्टाभिसीतारमैया ने भी लिखी है। लाला लाजपतराय, पं॰ रामप्रसाद बिस्मिल, शहीदे आजम भगत सिंह, श्यामजी कृष्ण वर्मा, मदनलाल ढींगरा, वीर सावरकर, महात्मा गांधी के राजनैतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले आदि बहुत से नाम हैं।

गुरुकुल – सनातन धर्म की शिक्षा व संस्कृति के ज्ञान केंद्र गुरुकुल थे, प्रायः गुरुकुल परम्परा लुप्त हो चुकी थी। आर्य समाज ने पुनः उसे प्रारम्भ किया। आज सैकड़ों गुरुकुल देश व विदेश में हैं।

गौरक्षा अभियान– ब्रिटिश सरकार के समय में ही महर्षि दयानन्द ने गाय को राष्ट्रिय पशु घोषित करने व गोवध पर पाबन्दी लगाने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था। गौ करुणा निधि नामक पुस्तक लिखकर गौवंश के महत्व को बताया और गाय के अनेक लाभों को दर्शाया। महर्षि दयानन्द गौरक्षा को एक अत्यंत उपयोगी और राष्ट्र के लिए लाभदायक पशु मानकर उसकी रक्षा कासन्देश दिया। ब्रिटिश राज के उच्च अधिकारियों से चर्चा की, 3करोड़ व्यक्तियों के हस्ताक्षर गौवधके विरोध में करवाने का का कार्य प्रारम्भ किया,। गौ हत्या के विरोध में कई आन्दोलन आर्य समाज ने किए। आज गौ रक्षा हेतु लाखो गायों का पालन आर्य समाज द्वारा संचालित गौशालाओं में हो रहाहै।

हिन्दी को प्रोत्साहन– महर्षि दयानन्द सरस्वती ने राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए एक भाषाको राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने के लिए सर्वप्रथम प्रयास किया। उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है अहिन्दी भाषीप्रदेशों या विदेशों में जहाँ-जहाँ आर्य समाज हैं वहाँ हिन्दीका प्रचार है।

यज्ञ – सनातनधर्म में यज्ञ को बहुत महत्व दिया है। जीतने शुभ कर्म होते हैं उनमे यज्ञ अवश्य किया जाता है। यज्ञ शुद्ध पवित्र सामाग्री व वेद के मन्त्र बोलकर करने का विधान है। किन्तु यज्ञ का स्वरूप बिगाड़ दिया गया था। यज्ञ में हिंसा हो रही थी। बलि दीजाने लगी थी।

वेद मंत्रो के स्थानपर दोहे और श्लोकों से यज्ञ किया जाता था। यज्ञ का महत्व भूल चुके थे। ऐसीस्थितिमें यज्ञ के सनातनस्वरूप कोपुनः आर्य समाज ने स्थापित किया, जन-जन तक उसका प्रचार किया और लाखों व्यक्ति नित्य हवनकरने लगे। प्रत्येक आर्य समाज में जिनकी हजारों में संख्या है, सभी में यज्ञ करना आवश्यक है। इस प्रकार यज्ञ के स्वरूपऔर उसकी सही विधि व लाभों से आर्य समाज ने हीसबको अवगत करवाया।

शुद्धि संस्कार व सनातन धर्म रक्षा – सनातनधर्म से दूर हो गए अनेक हिंदुओं कोपुनः शुद्धिकर सनातन धर्म में प्रवेश देने का कार्य आर्य समाज ने ही प्रारम्भ किया। इसी प्रकार अनेक भाई-बहन जो किसी अन्य संप्रदाय में जन्में यदि वे सनातन धर्म में आनाचाहते थे, तोकोई व्यवस्थानहीं थी, किन्तु आर्य समाज ने उन्हे शुद्धकर सनातन धर्म में दीक्षा दी, यह मार्ग आर्य समाज ने ही दिखाया। इससे करोड़ों व्यक्ति आज विधर्मी होने से बचे हैं। सनातन धर्म का प्रहरी आर्य समाज है। जब-जब सनातन धर्म पर कोई आक्षेप लगाए, महापुरुषों पर किसी ने कीचड़ उछालातो ऐसे लोगों को आर्य समाज ने ही जवाब देकर चुप किया। हैदराबाद निजाम ने सांप्रदायिक कट्टरता के कारण हिन्दू मान्यताओं पर 16 प्रतिबंध लगाए थे जिनमें – धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक रीतिरिवाज सम्मिलित थे। सन् 1937 में पंद्रह हजार से अधिक आर्य व उसके सहयोगी जेल गएतीव्र आंदोलन किया, कई शहीद हो गए।

निजाम ने घबराकर सारी पाबन्दियाँ उठा ली, जिन व्यक्तियों ने आर्य समाज के द्वारा चलाये आंदोलन में भाग लिया, कारागार गए उन्हे भारत शासन द्वारा स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की भांति सम्मान देकर पेंशन दी जा रही है।

सन् 1983 में दक्षिण भारत मीनाक्षीपुरम में पूरे गाँव को मुस्लिम बना दिया गयाथा। शिव मंदिर को मस्जिद बना दिया गया था। सम्पूर्ण भारत से आर्यसमाज के द्वारा आंदोलनकिया गयाऔर वहाँ जाकर हजारों आर्य समाजियों ने शुद्धि हेतु प्रयास किया और पुनः सनातन धर्म में सभी को दीक्षित किया, मंदिर की पुनः स्थापनाकी।

कश्मीर में जब हिंदुओं के मंदिर तोड़ना प्रारम्भ हुआ तो उनकी ओर से आर्य समाज ने प्रयास किया और शासन से 10 करोड़ का मुआवजादिलवाया।

ऐसे अनेक कार्य हैं, जिनमें आर्य समाज सनातन धर्म की रक्षा के लिएआगे आया और संघर्ष किया बलिदानभी दिया।

इस प्रकार आर्य समाज मानव मात्र की उन्नति करने वाला संगठन है, जिसका उद्देश्य शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नतिकरना है। वह अपनी ही उन्नति से संतुष्ट नरहकर सबकी उन्नति में अपनी उन्नति मानता है।

इसलिए आर्य समाज को जोमानव मात्र की उन्नति के लिए, सनातन संस्कृति के लिए प्र्यत्नरत है उसके सहयोगी बनें। परंतु आर्य समाज के प्रति भ्रम होने से कुछ ऐसा है –

जिन्हें फिक्र है ज़ख्म की, उन्हे कातिल समझते हैं। फिर तो, यो ज़ख्म कभी ठीक हो नहीं सकता ॥
[3:37pm, 4/12/2015] himanshu animator87 hp32@: गौर से दो बार पढे

जिस दिन हमारी मोत होती है, हमारा पैसा बैंक में ही रहा जाता है।
*
जब हम जिंदा होते हैं तो हमें लगता है कि हमारे पास खच॔ करने को पया॔प्त धन नहीं है।
*
जब हम चले जाते है तब भी बहुत सा धन बिना खच॔ हुये बच जाता है।
*
एक चीनी बादशाह की मोत हुई। वो अपनी विधवा के लिये बैंक में 1.9 मिलियन डालर छोड़ कर गया। विधवा ने जवान नोकर से शादी कर ली। उस नोकर ने कहा -
“मैं हमेशा सोचता था कि मैं अपने मालिक के लिये काम करता हूँ अब समझ आया कि वो हमेशा मेरे लिये काम करता था।”

सीख?
ज्यादा जरूरी है कि अधिक धन अज॔न कि बजाय अधिक जिया जाय।
• अच्छे व स्वस्थ शरीर के लिये प्रयास करिये।
• मँहगे फ़ोन के 70% फंक्शन अनोपयोगी रहते है।
• मँहगी कार की 70% गति का उपयोग नहीं हो पाता।
• आलीशान मकानो का 70% हिस्सा खाली रहता है।
• पूरी अलमारी के 70% कपड़े पड़े रहते हैं।
• पुरी जिंदगी की कमाई का 70% दूसरो के उपयोग के लिये छूट जाता है।
• 70% गुणो का उपयोग नहीं हो पाता

तो 30% का पूण॔ उपयोग कैसे हो
• स्वस्थ होने पर भी निरंतर चैक अप करायें।
• प्यासे न होने पर भी अधिक पानी पियें।
• जब भी संभव हो, अपना अहं त्यागें ।
• शक्तिशाली होने पर भी सरल रहेँ।
• धनी न होने पर भी परिपूण॔ रहें।

बेहतर जीवन जीयें !!!
💮💮💮💮
काबू में रखें - प्रार्थना के वक़्त अपने दिल को,
काबू में रखें - खाना खाते समय पेट को,
काबू में रखें - किसी के घर जाएं तो आँखों को,
काबू में रखें - महफ़िल मे जाएं तो ज़बान को,
काबू में रखें - पराया धन देखें तो लालच को,
💮💮💮
भूल जाएं - अपनी नेकियों को,
भूल जाएं - दूसरों की गलतियों को,
भूल जाएं - अतीत के कड़वे संस्मरणों को,
💮💮💮
छोड दें - दूसरों को नीचा दिखाना,
छोड दें - दूसरों की सफलता से जलना,
छोड दें - दूसरों के धन की चाह रखना,
छोड दें - दूसरों की चुगली करना,
छोड दें - दूसरों की सफलता पर दुखी होना,
💮💮💮💮
यदि आपके फ्रिज में खाना है, बदन पर कपड़े हैं, घर के ऊपर छत है और सोने के लिये जगह है,
तो दुनिया के 75% लोगों से ज्यादा धनी हैं

यदि आपके पर्स में पैसे हैं और आप कुछ बदलाव के लिये कही भी जा सकते हैं जहाँ आप जाना चाहते हैं
तो आप दुनिया के 18% धनी लोगों में शामिल हैं

यदि आप आज पूर्णतः स्वस्थ होकर जीवित हैं
तो आप उन लाखों लोगों की तुलना में खुशनसीब हैं जो इस हफ्ते जी भी न पायें

यदि आप मैसेज को वाकइ पढ़ सकते हैं और समझ सकते हैं
तो आप उन करोड़ों लोगों में खुशनसीब हैं जो देख नहीं सकते और पढ़ नहीं सकते|…


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।।ओउम्।। आर्यावर्त के पतन का एक कारण मूर्ति पूजा मूर्ति पूजा पर पौराणिक मत के मान्य आचार्य #...

।।ओउम्।।
आर्यावर्त के पतन का एक कारण मूर्ति पूजा
मूर्ति पूजा पर पौराणिक मत के मान्य आचार्य
# आदिशंकराचार्य
❇आचार्य शंकर प्रणीत -# परापूजा
।।2।। पूर्णस्याssवाहनं कुत्र ,सर्वाधारस्य चासनम् ।
स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च ,शुद्धस्याचमनं कुतः ।।
अर्थ : सर्वव्यापी का आह्वान कैसे किया जा
सकता है ?
सर्वाधार को बैठने के लिए आसान की क्या
आवश्यकता ? नित्य स्वच्छ को पैर धोने के लिए
पाद्य ,मुँह घोने के लिए अर्घ्य और नित्य शुद्ध को
आचमन करने के लिए जल कैसे दिया जा सकता
है ?
बुलाया किसी को वहाँ जाता है जहाँ आहूत
व्यक्ति पहले विद्यमान नहीं होता ।जो पहले ही
वहाँ उपस्थित है उसे आवाज़ लगाकर आने के लिए
कहना सरासर मूर्खता है ।जड़ पाषाण से निर्मित
मूर्ति में भगवान् तब आते हैं जब उनका आह्वान किया
जाता है ।इसे पंडित मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करना
कहते हैं ।कण - कण में व्याप्त होने से जो सदैव सर्वत्र
विद्यमान है ,उसे बुलाए जाने पर वहाँ आने का प्रश्न
ही नहीं उठता ।
।।3।। निर्मलस्य कुतः स्नानं ,वस्त्रं विश्वोदरस्य च ।
अगोत्रस्य त्ववर्णस्य ,कुतस्तस्योपवीतम् ।।
अर्थ : जो सदा निर्मल है उसके स्नान का क्या
प्रायोजन? जिसके उदर में संपूर्ण ब्रह्मांड समाया है
,उसे वस्त्र कैसे पहनाएँगे ?जो गोत्र और वर्ण से रहित
है ,उसे यज्ञोपवीत कैसे पहनाएँगे ?
नित्य पवित्र परमेश्वर को स्नान करना सर्वथा
व्यर्थ है ।परमेश्वर विराट् है।इतने विराट् शरीर को
आच्छादित करने के लिए कितना बड़ा वस्त्र
चाहिए ?उसे ढककर कोई यह समझे कि मैंने परमेश्वर
को ढक दिया तो यह उसका पागलपन है।आचार्य
शंकर कहते हैं कि ईश्वर निराकार है ।उसका न सिर ,न
हाथ ,न बगल है और न कटि है ।ऐसा परमेश्वर
यज्ञोपवीत धारण कैसे करेगा ?उसे किसी
कर्मकाण्ड में भाग नहीं लेना ।फिर उसे यज्ञोपवीत
पहनाने का नाटक क्यों किया जाए ?
।।4।। निर्लेपस्य कुतो गन्धः पुष्पं निर्वासन्सय च ।
निर्विशेषस्य का भूषा कोsलंकारो निराकृतेः ।।
निर्लिप्त के लिए गन्ध कैसा ?जिसकी
घ्राणेन्द्रिय नहीं उसे सुगंधि की कामना भी नहीं ।
वह हाथ में पुष्प लेकर क्या करेगा ?निर्विशेष की
कैसी वेशभूषा ?
।।5।। निरञ्जनस्य किं धूपैर्दीपैर्वा सर्वसाक्षिणः ।
निजानन्दैकतृप्तस्य नैवेद्यं किं भवेदिह ।।
जो निरंजन है ,उसे धूप से क्या प्रायोजन ?जो
सबका साक्षी है ,उसे देखने के लिए दीपकों के
प्रकाश की क्या आवश्यकता है ?पूर्णतया तृप्त है ,उसे
नैवेद्य की अपेक्षा क्यों हो ?
।।6।। विश्वानन्दयितुस्तस्य किं तांबूलं प्रकल्पयते ।
स्वयं प्रकाशाश्चिद्रूपो योsसावर्कादिभासकः ।।
जो तमाम विश्व को आनंद देनेवाला है ,उसे पान
खाने में क्या आनंद आयेगा ?जो स्वयं प्रकाश स्वरूप है
और ज्ञानस्वरूप है और सूर्य आदि को प्रकाश देता है
,उसे देखने के लिए भौतिक साधनों से प्राप्य प्रकाश
की क्या आवश्यकता ?
।।9।। एकमेव परापूजा सर्वावस्थासु सर्वदा ।
एकबुद्ध्या तु देवेशे विधेया ब्रह्मवित्तमैः ।।
इस प्रकार ब्रह्मवेत्ताओं को सदा एकमात्र देवेश
की पूजा प्रत्येक अवस्था में करनी चाहिए ।जिस
प्रकार “देवानां देवः महादेवः” सब देवताओं
(वेदोक्त) में बड़ा कहलाता है ,वैसे ही “देवानां ईशः
देवेशः” सब देवों (विद्वानों )का स्वामी देवेश
,परमात्मा है ।मात्र उसी की उपासना करनी
चाहिए ,ईश्वर या भगवान् नामधारी जड़ पदार्थों
की नहीं ।
“आचार्य शंकर ने मूर्ति पूजा का बड़े ही तीव्र
शब्दों में विरोध किया है ,लेकिन आज उनके ही
अनुयायी अपने आचार्य की शिक्षा के प्रतिकूल चल
रहे हैं ।जब कुछ समय की मूर्ति पूजा द्वारा सब पाप
कट जाएँ और मनोकामनाएं पूर्ण हो जाएँ तो कौन
कठोर सत्यानुकूल आचरण कर जीवन खपाना
चाहेगा ? लेकिन सत्य तो सत्य ही है ।”


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Tuesday, April 21, 2015

सेकुलर का अर्थ धर्म निरपेक्ष नहीं-डॉ सम्पूर्णानन्द के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष शब्दअच्छा नहीं! जो...

सेकुलर का अर्थ धर्म निरपेक्ष नहीं-डॉ सम्पूर्णानन्द के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष शब्दअच्छा नहीं! जो कुछ भी मनुष्य के लिए कल्याणकारी है वह सब धर्म में ही अंतर्भूत है ! अहिंसा, सत्य, परोपकार, लोकसंग्रह भावना, यह सभी धर्म रुपी रत्न के अलग अलग पहलू है !"हमारे संविधान में भी जब1976 में 42वें संशोधन द्वारा ‘प्रस्तावना’ में जोड़े गए सेकुलर शब्द का हिंदी अनुवाद 'पंथ निरपेक्ष’ ही किया गया न कि 'धर्म निरपेक्ष’ !

😌😌😌😌


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Monday, April 20, 2015

है कोई साईं के भक्तों में माई का लाल जो उत्तर दे सके?? भारत में भेड़ चाल कुछ ज्यादा ही देखने को...

है कोई साईं के भक्तों में माई का लाल जो उत्तर दे सके??

भारत में भेड़ चाल कुछ ज्यादा ही देखने को मिलती है।
और जब बात हो पूजा पाठ , श्रद्धा और विश्वाश की , तो फिर क्या कहने।
अकल का दखल ही खत्म हो जाता है तब तो। वह श्रद्धा अंध भक्ति में बदल जाती है।

मजार पूजा को भी इसी अंध भक्ति ने जन्म दिया है। पूजा का मतलब होता है यथोचित सम्मान। सत्कार।आदर।

मैं ये नहीं कह रहा हूँ की पूजा मत करो पूजा करो। परंतु यथोचित , जूते से करनी पड़े तो जूते से भी करो।

साईं की मजार की पूजा भी जूतों से ही होनी चाहिए। क्यों की एक मुल्ले की पूजा हिन्दू को करनी हो तो जूते से अच्छा कोई वस्तु नहीं।।

अरे मूर्ख हिन्दू जरा सोचें अपना दिमाग लगाएं की क्या एक मुल्ले की मुर्दा लाश जो कब्र में थी जिसे कीड़े भे खा कर मर गए हों उसकी पूजा कारनी चाहिए ??

कुछ मूर्ख कहेंगे की करनी चाहिए जी । क्यों की पूजा गुणों की होती है तो उन्हें मैं साई के कुछ गुण उनकी ही किताब साइन चरित से बताता हूँ।

1* अध्याय 10 साइन चरित ।
बाबा कभी पत्थर मारते कभी गलियां देते।वे नर्तकियों के डांस और कव्वालियां देखते।

प्रश्न: क्या सच्चे संत डांस कव्वालियां और रंगरेलियां मनाते है? ये कैसे भगवान्? कैसे संत?

2* *अध्याय 23
…..श्यामा मस्जिद की ओर दौड़ , अपने बिठोबा श्री साईनाथ के पास जा रहा था। जब बाबा ने उन्हें दूर से देखा तो वे झिड़कने लगे और गाली देने लगे।

प्रश्न: ये कैसे संत??

3.*** अध्याय 6, 10,23 और 41 में लिखा है जब साईं गुस्से में आते थे तो वह गाली और अपशब्द बोलते थे। अधिक गुस्से में तो कई पिटे।

प्रश्न: क्या संत गालियां देते है??

4**** अध्याय 10
न्याय अथवा मीमांसा अथवा दर्शन पढ़ने की कोई जरूरत नहीं।

प्रश्न : क्या सच्चे संत शास्त्र विरोधी होते है??

5***** अध्याय 38
एकादशी के दिन उन्होंने केलकर को कुछ रुपये देकर मांस हाँ हाँ मांस लाने को कहा ।

प्रश्न : भगवान् या संत मांस भी खाता है क्या। माँसाहारी होना संत का गुण है??
साई क्या महापापी नहीं??

जिस साईं भक्त के पास उत्तर हो जरूर लिखें।


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राम धर्म पर ही रहे उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया | ये कौन सी मर्यादाये थी जिन्हें आर्य राजा राम...

राम धर्म पर ही रहे उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया | ये कौन सी मर्यादाये थी जिन्हें आर्य राजा राम ने पालन किया ? वे ऋग्वेद के दसवे मंडल में वर्णित सप्त मर्यादाये हैं |
सप्त मर्यादाः कवयस्ततकक्षुस्तासामेकामिदभ्यहुरो-गात् |
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य निव्वे पथां विसर्गे धरु धरुणेषु तस्थौ || ऋ० १०|१५|०६

अर्थात् हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य-भाषण और इन पापों के करने वाले दुष्टों के सहयोग का नाम सप्त्मर्यादा हैं | जो एक भी मर्यादा का उल्लघंन करता हैं वो पापी कहलाता हैं और जो धैर्य से इन हिंसादी पापों को छोड़ देता हैं, वह निसंदेह जीवन का स्तंभ और मोक्ष भाvगी होता हैं |

वेद में परमात्मा के इन सात मर्यादाओ के आदेश का पालन रघुकुल नन्दक श्री राम ने जीवन पर्यंत किया |

ऐसा बलमेरकि रामायण में लिखा है।
तुलसी के रामचरित मानस में बहुत खामियां हैं।
मूल रामायण बाल्मीकि कृत है अतः वाही प्रमाण माना जाएगा।


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Sunday, April 19, 2015

आनन्द सुधासार दयाकर पिला गया। भारत को दयानन्द दुबारा जिला गया।। ...

आनन्द सुधासार दयाकर पिला गया।

भारत को दयानन्द दुबारा जिला गया।।



डाला सुधार वारि बढ़ी बेल मेल की।

देखो समाज फूल फबीले खिला गया।।

-महाकवि शंकर कृत



विक्रम की 19वीं शताब्दी के वृद्ध भारत में वैदिक धर्म, भारतीय सभ्यता और समाज की अभूतपूर्व कल्पनातीत तथा विलक्षण अवस्था हो गई थी। एक ओर शुद्ध, सनातन, सरल वैदिक धर्म की पवित्र मन्दाकिनी सैकड़ों युगों के असंख्य समय में प्रवाहित रह कर कपोल-कल्पित, नाना नवीन मतों के आडम्बरों से उसी प्रकार कुलुषित बन गई थी। जिस प्रकार गंगोत्री से चली हुई भागीरथी की पुण्यसलिला, विशुद्ध धारा विस्तृत विविध भूभागों में भ्रमण करके और और मलीन जलवाली अनेक नदियों से मिलकर गंगासागर में गदली और गर्हित हो गई हैं। सनातन वैदिक धर्म के ज्ञान, कर्म और उपासना के तीनों काण्डों का स्थान मिथ्याविश्वास, तान्त्रिक जादू टोने और पूजा ले लिया था। परमतत्त्वविवेचन के स्थान में मिथ्याविश्वासमूलक विविध मतवाद मनुष्यों के विचारों पर अधिकार पा गये थे। मनुष्य, वैदिक कर्मकाण्ड के सारभूत पंचमहायज्ञों को त्यागकर मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण की सिद्धि में अपने अमूल्य समय को बिताने लगे थे। सर्वव्यापक परमपिता की उपासना से विमुख बन कर कपोल कल्पित आधुनिक देवी-देवताओं की पूजा में तत्पर थे। देवस्थान भंग, चरस आदि मादक द्रव्यों से उन्मत, दुराचारी, निरक्षर भट्टाचार्य पुजारियों (पूजा के शत्रुओं) से भरे रहते थे। जनता आचार्य आदि सच्चे तीर्थों को भूल कर जल-स्थल आदि को ही तीर्थ मान मान बैठी थी। वैदिक वर्णव्यवस्था बिलकुल लुप्त हो गई थी। उस के स्थान में जन्ममात्र के गर्वित, गुण-कर्म से रहित पुरुषाधम ब्राह्मणादि वर्ण के अभिमानी बन गये थे। ब्रह्मचारी और संन्यासी नाममात्र को शेष रह गये थे, परन्तु उनका वेश धारण करके लाखों विद्याशून्य, अकर्मण्य, वकवृत्ति और बिडालवृति बने हुए वंचकजन इस वसुन्धरा के भार को बढ़ा रहे थे और श्रद्धालु प्रजा को दिन-दहाड़े लूट रहे थे। सच्चे योगियों का स्वरूप तो योगशास्त्र में ही रह गया था किन्तु उन के नाम को लेकर भिक्षा से पापी पेट को भरने वाले जोगियों की एक पृथक् जाति (समुदाय) ही बन गई थी। सर्वमान्य आचार्य पदवी मृतकों का माल उड़ाने वाले अचारजों को मिल गई थी। अन्नतः प्रायः सारे के सारे वैदिक और आर्षप्रयोगों और नामों का यथास्वरूप और प्रयोजन उलट-पुलट हो गया था। सनातन वैदिक धर्म का कलेवर ही बदल गया था। श्रुतियों का नाम ही सुनाई देता था, उन का स्वरूप लुप्तप्राय हो गया था। जनता में यहां तक मूर्खता फैल गई थी कि वे अन्य देवताओं के समान वेदों को भी कोई देहधारी देवता समझने लगे थे। उनकी मूर्तियों तक की कल्पना हो गई थी। वेदों के प्रमाणों के स्थान में अनेक आधुनिक ग्रन्थ और संस्कृत के श्लोक और वाक्यमात्र तक प्रमाण माने जाने लगे थे। धर्म कुछ रूढि़यों (रस्म-रिवाज) का ही नाम रह गया था यूं कहिए कि सर्वत्र रूढि़यों का ही राज्य था।

दूसरी ओर योरुप से उठी हुई पाश्चात्य सभ्यता की प्रबल पछवा आंधी प्राचीन तथा पूर्वीय सभ्यता का सब कुछ उड़ा ले जाकर उस को तितन-बितर कर देने की धमकी दे रही थी। ‘यथा राजा तथा प्रजाः’ की कहावत के अनुसार पराजित भारतीय प्रजा अपने गौरांग प्रभुओं का रहन-सहन और उठने-बैठने तक की नकल करने में अपना गौरव समझती थी। वह उनकी वेश, भूषा, आहार के अनुकरण से ही सन्तुष्ट न थी, प्रत्युत प्रत्येक विषय में उन की विचार परम्परा का भी पीछा करती थी। सहस्त्रों ग्रन्थों से संस्थापित और संसिद्ध सत्य भी पाश्चात्य विद्वानों के प्रमाणों के बिना सिद्धान्त नहीं माने जाते थे। भूगोल, खगोल, रसायन तथा पदार्थविज्ञान आदि सारी विद्याओं तथा संगीत, शिल्प, स्थापत्य, चित्रण आदि समस्त कलाओं के आविष्कर्त्ता भी पाश्चात्य पुरुष ही समझे जाते थे। पाश्चात्य सभ्यता के ही प्रकाश में समस्त विषयों का अवलोकन किया जाता था। उन के ही हेतुवाद वा तर्कशैली से धर्माधर्म की भी परीक्षा की जाती थी। शिखा, सूत्र, आचमन, मार्जन आदि सारे धर्मकत्य क्यों ! और कैसे ! की कसौटी पर कसे जाते थे। सारे धर्म-कर्मों का निदान वा मूल ऐहित वा सांसारिक सुख ही माना जाता था।

जहां एक ओर ‘अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणी मामकी तनुः’ इस नाममात्र के ब्राह्मणों के वाक्य पर श्रद्धा रखने वाले, रुढि़यों के परम उपासक, पुराने आचार-विचार के लोग किसी भी संस्कृत के ग्रन्थ वा वाक्य को प्रत्येक प्रचलित कुप्रथा और मूर्खता का पोषक पुष्ट प्रमाण मानते थे। वहां पाश्चात्य शिक्षादीक्षित और आलोकित नवयुवक तर्करहित ब्रह्मवाक्य को भी सुनने के लिए तैयार न थे। परिणामतः नवशिक्षित नई पौध के लोग निरीश्वरवादी, सन्देहवादी वा भोगवादी बन कर प्राचीन सभ्यता और सनातन धर्म से बिल्कुल विमुख हो रहे थे। वे अपने पूर्व पुरुषों को वृद्ध मूर्ख (Old fool) कह कर हंसते थे।

अच्चजात्यभिमानी हिन्दू लोगों में कुछ तो धन-कलत्र के लोभ से और कुछ पुराण ग्रन्थों की असम्बद्ध कथाओं तथा हिन्दू रुढि़यों की कठोरता से उद्विग्र होकर ईसाई आदि विधर्मी बनते जाते थे। नीच कही जाने वाली जातों के जन उच्चम्मन्य हिन्दुओं के तिरस्कार, अत्याचार और अमानुषिक व्यवहार से मर्माहात होकर ईसाई पादरियों के प्रभाव में आकर दिनों-दिन हिन्दू समुदाय का कलेवर क्षीण और ईसाई मत का शरीर पीन बना रहे थे और प्रातः स्मरणीय श्री राम और कृष्ण की निन्दा से निज जिह्वा को अपवित्र करते थे।

दूसरी ओर बहुत से हिन्दू नित्य प्रति मुसलमानों के फन्दे में फसते थे। देववाणी वा आर्य भाषा (हिन्दू) का पठन प्रायः पुरोहितों का ही काम रह गया था। अन्य व्यवसायी वा कारबारी लोग महा महिमामय मौलवियों की पदचर्या और फारसी भाषा की आराधना को ही अपना अहोभाग्य और गौरववर्धक समझते थे। उस समय जालसाजी की जड़ और सर्पाकार फारसी लिपि से अनभिज्ञजनों को सभ्यता की परिधि से बाहर समझा जाता था। सर्वगुण आगरी देवनागरी की ‘हिन्दगी’ कह कर निन्दा की जाती थी। मौलवियों के अहर्निश के सहवास से फारसी पढ़े हुए कई पुरुष तो खुल्लमखुल्ला मुसलमानी मत में दीक्षित हो जाते थे और शेष सारे आचार-विचारों से मुसलमान अवश्य बन जाते थे। इसलिए ‘फारसी पढ़ा आधा मुसलमान’ की कहावत प्रचलित हो गई थी। उन दिनों वैदिक धर्म का विकृत रूप ‘हिन्दूमत’ ऐसा कच्चा धागा बन रहा था कि उस को जो चाहता था एक झटके से तोड़ सकता था। वह ईसाई वा मुसलमान के छुए हुए जलमात्र के पान से सदा के लिए विदा हो जाता था और इसलिए हिन्दू समुदाय ईसाई मुसलमानों के लिए सुलभ भोजन वा स्वादु ग्रास ( तर लुकमा ) बन रहा था। फलतः गो और ब्राह्मण के रक्षकों के समूह का प्रतिदिन ह्नास हो रहा था।

इस प्रकार नित्य प्रति क्षीण-कलेवरा आर्यजाति मृत्यु के मुख में जा रही थी। प्राचीन आर्यसभ्यता पग-पग पर पराभव पाकर अपने प्राचीन वैभव और महिमा को खो रही थी। जो आर्यजाति और वैदिक धर्म ८०० वर्ष तक के मुसलमानी अत्याचारपूरित शासन और तलवार से नष्ट न हो सका था, वह अब पाश्चात्यों के सम्मोहनास्त्र से महानिद्रा में निमग्न होने को उद्यत था। परन्तु सब सभ्यताओं की आदि जननी आर्यसभ्यता और सब धर्मो के आदिस्त्रोत वैदिकधर्म की उस प्रकार पशुतुल्य मृत्यु करुणावरुणालय परमपिता को अभिमत न थी, इसलिए दयामय ने असीम दया से निज नित्यव्यवस्थानुसार इस धर्मसंकट के समय धर्म की रक्षा के लिए दयामूर्ति और आनन्द राशि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव भव्य भारत में किया।

ऋषि दयानन्द की उज्ज्वल जीवनी की पुण्य-गाथा एक पृथक् विषय है। यहां उस का वर्णन प्रकरणान्तर होगा। किस प्रकार ऋषि दयानन्द ने सब कुछ त्यागकर सत्य संन्यासी बनकर पूर्णतः सत्य विद्याओं के अभ्यास और भारत के कोने-कोने में परिभ्रमण के पश्चात् इस देश की पतित अवस्था का निरीक्षण किया और उससे द्रवीभूत होकर वैदिक धर्म के पुररुद्धारर्थ और संसार मात्र के परोपकारार्थ आर्यसमाज की स्थापना की। बातें वेद के नामलेवा प्रायः सभी पुरुषों को विदित हैं। इस समय उसी आर्यसमाज की स्थापना का विषय प्रस्तुत है।

ऋषि दयानन्द ने गुरु-गवेषणा और अतुल अन्वेषण के पश्चात् जिस सनातन वैदिक धर्म के सिद्धान्तों की स्थापना की थी। उन के लगातार प्रचार के लिए उन्होंने बहुत से श्रद्धालु धार्मिक पुरुषों की सहायता तथा राज्य मान्य राजा श्री पानाचन्द आनन्द जी की आयोजना के अनुसार भारत की प्रसिद्ध समृद्धिशालिनी समुद्रतीरवर्तिनी मुम्बापुरी (बम्बई) गिरगांव में डॉ. मानिकचन्द जी की वाटिका में चैत्र सुदि ५ संवत् १९३२ विक्रमीय, १७१७ शालिवाहनशक बुधवार, तदनुसार १० अप्रैल सन् १८७५ ई. को प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की। उस के २८ नियम सर्वसम्मति से निर्धारित किये गये। इन्हीं नियमों में ऋषि दयानन्द की आत्मा का प्रतिबिम्ब और आर्यसमाज का उद्देश्य वर्तमान था। आगे चल कर लाहौर आर्यसमाज की स्थापना के समय इन्हीं २८ नियमों को संक्षिप्त करके सम्प्रति प्रचलित आर्यसमाज के निम्नलिखित १० नियमों का रूप दिया गया। बम्बई आर्यसमाज के नियमों की संख्या के अधिक होने का यह कारण था कि उन में आर्यसमाज के कार्यनिर्वाहक उपनियम भी सम्मिलित थे। लाहौर में उपनियमों को पृथक् कर के मूल सिद्धान्त रूप नियमों को ही मुख्य दश नियमों के रूप में प्रचलित किया गया।

आर्यसमाज के नियम

1. सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।

2. ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नितय, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है उसी की उपासना करनी योग्य है।

3. वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।

4. सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।

5. सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।

6. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

7. सब से प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोगय वर्त्तना चाहिए।

8. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्वि करनी चाहिए।

9. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए।

10. सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।

यहां आर्य समाज के दश नियमों की व्याख्या के लिए स्थान नहीं है, पर इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि आर्यसमाज की स्थापना ऐसे सर्वव्यापक और सर्वहितैषी नियमों पर हुई थी कि संसार के सब राष्ट्रों और जातियों के निवासी उन पर चल कर सर्वदा अपनी उन्नति कर सकते हैं। आर्यसमाज का संगठन भी दूरदर्शितापूर्वक ऐसी प्रजासत्तात्मक परिपाटी पर किया गया है कि उस से प्रत्येक राष्ट्र में, सब प्रकार की शासन-प्रणालियों में सर्वोत्तम और सर्वसुखदायक प्रजासत्तात्मक शासन का विकास और अभ्यास (Training) पूर्ण रूप से हो सकते हैं। आर्यसमाज के संगठन में उस के संस्थापक महर्षि ने अपने व्यक्ति तक के लिए कोई विशेष स्थान वा पद नहीं रक्खा था, वे अपने आप को भी आर्यसमाज का एक ‘साधारण सदस्य’ समझते थे।एक बार लाहौर आर्यसमाज ने जब उन से एक अधिवेशन का प्रधान पद स्वीकार करने की प्रार्थना की थी तो उन्होंने यही उत्तर दिया था कि आप की समाज का प्रधान विद्यमान ही है, वही अपना कर्तव्य पालन करे। एक साधारण सदस्य के रूप में मैं भी आपके कार्य म कार्य में योग दे सकता हूँ। आर्यसमाज ने भारत के प्रजासत्तात्मक शासन-प्रणाली के प्रचार में बहुत कुछ सहायता प्रदान की है। उस ने भारत अन्य सम्प्रदायों और मतों को भी संगठित हो कर काम करने की रीति सिखलाई है। और यहां के कई सम्प्रदाय संगठन अब आर्यसमाज से भी आगे जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द के कई लेखों के देखने से ज्ञात होता है कि उन्होंने आर्यसमाज से संसार के उपकार और देशदेशान्तरों में वैदिक धर्म के प्रचार की बड़ी-बड़ी आशाएं बांधी थी। उन्होंने अपनी कोई गद्दी आदि न बनाकर आर्यसमाज को ही अपना उत्तराधिकारी माना था और उनके उद्देश्य के साफल्य की सारी आशाएं आर्यसमाज में केन्द्रित कीं। महर्षि के स्वनामधन्य सच्चे अनुयायी इन आशाओं की पूर्ति की लिए प्राण-पण से पूरा यत्न कर रहे हैं।




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हे ! आर्यों ,आर्य पुत्रों आज पूरा विश्व भय आतंक से त्राहि त्राहि कर रहा ह । और जिस आर्य जाती ने...

हे ! आर्यों ,आर्य पुत्रों आज पूरा विश्व भय आतंक से त्राहि त्राहि कर रहा ह ।

और जिस आर्य जाती ने संसार को आपनी विद्या और सामर्थ्य से सुखी करना था कहा सो गयी वो महान जाती ?

क्यों आज हर तरफ दुखियों को देख कर आपका मन दुखी नही होता ?

कहा गया आपका वो शौर्य पराक्रम जिसके बल पर हमने रावण और कंस जैसे राक्षसों को पराजीत किया था ?

कहा गुम हो गया तुम्हारा वो बल और शौर्य जब तुमने कौरवों जैसे अधर्मियो को सबक सिखा कर धर्म की रक्षा की ?

हे आर्यावंशियो उठो फिर गांडीव उठाना होगा फिर हमें ब्रह्मास्त्र उठाओ सबक सिखाओ इन विधर्मी इस्लामी आतंवादियो को ?

अपने पूर्वजो की भांति महान बनो आर्य बनो तभी राष्ट्र की रक्षा होगी अन्यथा हमारी आने पीढियों को हम इस्लामिक गुलामी दे कर जायेंगे ।

अरे केवल धन दौलत से काम नही चलेगा । आप अपने संतानों को डॉक्टर इंजिनियर बनाओ लेकिन उससे भी से भी ज्यादा जरुरी ह उन्हें आर्य बनाओ ताकि वो अपनी और समाज को सुरुक्षित कर सकें ।

आर्य निर्माण राष्ट्र निर्माण




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सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्धत रहना चाहिए यही वेद आज्ञा है, मनुष्यों को धर्म...

सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्धत रहना चाहिए यही वेद आज्ञा है, मनुष्यों को धर्म पथ पर चलते रहना चाहिए, और इसके लिए नित्य ईश्वर से प्रार्थना करें की ईश्वर आपको सन्मार्ग दिखाए सदैव धर्म की राह पर ही आगे बढाए

वेद हमें आज्ञा देते है की मनुष्यों को जीवन पर्यन्त धर्माचरण में ही रहना चाहिए जिससे उसे मोक्ष की प्राप्ति हो सके

यजुर्वेद ४-२८(4-28)

परि॑ माग्ने॒ दुश्च॑रिताद्बाध॒स्वा मा॒ सुच॑रिते भज । उदायु॑षा स्वा॒युषोद॑स्थाम॒मृताँ॒ अनु॑ ॥४-२८॥

भावार्थ:- मनुष्यों को योग्य है कि अधर्म के छोड़ने और धर्म के ग्रहण करने के लिये सत्य प्रेम से प्रार्थना करें, क्योंकि प्रार्थना किया हुआ परमात्मा शीघ्र अधर्मों से छुड़ा कर धर्म में प्रवृत्त कर देता है, परन्तु सब मनुष्यों को यह करना अवश्य है कि जब तक जीवन है, तब तक धर्माचरण ही में रहकर संसार वा मोक्षरूपी सुखों को सब प्रकार से सेवन करें।।

कुछ जिज्ञासु बंधू इन मन्त्रों के व्याख्या सहित भावार्थ मांगते है उनसे मेरी विनती है की आप सम्पूर्ण शब्द व्याख्या के लिए हमारी वेबसाइट से वेद डाउनलोड कर लें और पढ़े

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Friday, April 17, 2015

धर्म रक्षा के लिए प्रजा और राजा दोनों को सदैव तैयार रहना चाहिये, प्रधानमन्त्री को चुन लेने मात्र से...

धर्म रक्षा के लिए प्रजा और राजा दोनों को सदैव तैयार रहना चाहिये, प्रधानमन्त्री को चुन लेने मात्र से भारत पुनः विश्व गुरु नहीं बन जाएगा इसके लिए हमें उत्तम कर्म करने होंगे पुनः भारत में वेदों को स्थापित करना होगा जब हर जगह वेद ही वेद होगा तो देश स्वतः विश्व गुरु बन जाएगा, आपस में भाईचारे से रहे, हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई बनने से अच्छा है मनुस्मृति के आधार पर और वेदों की आज्ञा अनुसार मनुष्य बने

यजुर्वेद ४-२७(4-27)

मि॒त्रो न॒ एहि॒ सुमि॑त्रधः इन्द्र॑स्यो॒रुमा वि॑श॒ दक्षि॑णमु॒शन्नु॒शन्त स्यो॒नः स्यो॒नम् । स्वान॒ भ्राजा॑ङ्घारे॒ बम्भा॑रे॒ हस्त॒ सुह॑स्त॒ कृशा॑नोवेते वः॑ सोम॒क्रय॑णा॒स्तान्र॑क्षध्वम्मा वो॑ दभन् ॥४-२७॥

भावार्थ:- राज्य और प्रजापुरुषों को उचित हो कि परस्पर प्रीति, उपकार और धर्मयुक्त व्यवहार में यथावत् वर्त्त, शत्रुओं का निवारण, अविद्या वा अन्यायरूप अन्धकार का नाश और चक्रवर्ति राज्य आदि का पालन करके सदा आनन्द में रहें।।

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हमारे देश में रहते है, हमारे देश में खाते है, हमारे देश में नहाते है, हमारे देश में ही धोते है, फिर...

हमारे देश में रहते है, हमारे देश में खाते है, हमारे देश में नहाते है, हमारे देश में ही धोते है, फिर भी उन्हे हिंदुस्तान से कतई प्यार नहीं है, अभिमान नहीं है, देश के प्रति सम्मान नहीं है ! गांधीवाद और नेहरू की काली करतुतों से हमारे देश में ऐसे कई आस्तीन के सांप सालों से रह रहे है ! अब नरेंद्र मोदी को चाहिये की ऐसे सांपोंका फन कुचलकर उन्हे एक ही साथ पाकिस्तान रवाना कर दे ! यह गंदगी हमारे देश की पवित्र भुमी पर शोभा नहीं देती ! मोदी जी को अपने स्वच्छता अभियान में सब से पहले यह साफ़-सफ़ाई करनी चाहिये !




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Thursday, April 16, 2015

भीष्म ने श्री कृष्ण से ये पूछा : जल से पतला कौन है कौन भूमि से भारी कौन अग्नि से तेज़ है और कौन है...

भीष्म ने श्री कृष्ण से ये पूछा :

जल से पतला कौन है

कौन भूमि से भारी

कौन अग्नि से तेज़ है

और कौन है काजल से काला ?

श्री कृष्ण ने मनमोहिनी मुस्कान के

साथ उत्तर दिया -पितामह !

जल से पतला ज्ञान है

पाप भूमि से भारी

क्रोध अग्नि से तेज़ है

और कलंक काजल से काला !

जय श्री राम




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शुद्ध कर्म, स्वस्थ भोजन और योग आदि से दीर्घ आयु के लिए प्रयासरत रहते और अपने उत्तम उत्तम गुणों और...

शुद्ध कर्म, स्वस्थ भोजन और योग आदि से दीर्घ आयु के लिए प्रयासरत रहते और अपने उत्तम उत्तम गुणों और संस्कारों का संचयन अपनी संतानों में करो क्यूंकि भविष्य यदि संस्कारित ना हुआ तो देश का भविष्य भी खतरे में ही रहेगा इसलिए देश का उज्जवल भविष्य देखने के लिए आने वाली युवा पीढ़ी संस्कारमय होनी चाहिए


बच्चों को बचपन से ही वेदों की शिक्षा दें जिससे वह बड़ा होकर वेदों से विमुख ना हो


यजुर्वेद ४-२३(4-23)


सम॑ख्ये दे॒व्या धि॒या सन्दक्षि॑णयो॒रुच॑क्षसा मा म॒ आयुः॒ प्र मो॑षी॒र्मो अ॒हन्तव॑ वी॒रँवि॑देय॒ तव॑ देवि सन्दृशि॑ ॥४-२३॥


भावार्थ:- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों को योग्य है कि शुद्ध कर्म वा प्रज्ञा से वाणी वा विजुली की विघया को ग्रहण कर उमर को बढ़ा और विघयादि उत्तम-उत्तम गुणों में अपने सन्तान और वीरों को सम्पादन करके सदा सुखी रहें।।


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