[5:37pm, 4/11/2015] himanshu animator87 hp32@: [5:46pm, 1/29/2015] himanshu animator87 hp32@: ् राष्ट्र पितामह महर्षि दयानंद सरस्वती।
महर्षि दयानन्द सरस्वती उन महापुरूषो मे से थे जिन्होनेँ स्वराज्य की प्रथम घोषणा करते हुए, आधुनिक भारत का निर्माण किया । हिन्दू समाज का उद्धार करने मेँ आर्यसमाज काबहुत बड़ा हाथ है। - नेता जी सुभाष चन्द्र बोस
यदि हम महर्षि दयानन्द की नीतियोँ पर चलते तो देश कभी नही बंटता । आज देश मेँ जो भी कार्य चल रहे है। उनका मार्ग स्वामी जी ने वर्षो पूर्व बना दिये थे । - सरदार वल्लभ भाई पटेल
महर्षि दयानन्द महान नायक और क्रान्तिकारी महापुरुष थे। उन्होने स्वराज्य और स्वदेशी की ऐसी लहर चलाई कि जिससे इण्डियन नेशनल कांग्रेस के निर्माण कीपृथ्ठभूमि तैयार हो गयी। - लाल बहादुर शास्त्री
महर्षि दयानन्द सरस्वती राष्ट्र के पितामह थे। वे राष्ट्रीय प्रवृत्ति और स्वाधीनता के आन्दोलन के प्रथम प्रवर्तक थे । - अनन्त शयनम् आयंगर
स्वराज्य आन्दोलनके प्रारम्भिक कारण स्वामी दयानन्द की गिनतीभारत के निर्माताओ मेँ सर्वोच्च है। वे भारत के कीर्ति स्तम्भ थे जहाँ-जहाँ आर्यसमाज वहाँ-वहाँ क्रान्ति (विद्रोह)की आग है। - ग्रास ब्रोण्ड(एक अंग्रेज अधिकारी)
स्वामी दयानन्द मेरे गुरु है मैने संसार मेँ केवल उन्ही को गुरु माना है वे मेरे धर्म के पिता है और आर्यसमाज मेरीधर्म की माता है, इन दोनोकी गोदी मे मै पला हूँ, मुझे इस बात का गर्व है कि मेरे गुरु ने मुझे स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया । -पंजाब केसरी लाला लाजपत राय
महर्षि दयानन्द के क्रान्तिकारी विचारोँ से युक्त सत्यार्थ प्रकाश ने मेरे जीवन के इतिहास मेँ एक नयापृष्ठ जोड़ दिया। -अमर क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल.
महर्षि दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्ध और हिन्दू जाति के रक्षक थे। स्वतन्त्रता के संग्राम मे आर्य समाजियोँ का बड़ा हाथ रहा है । महर्षि जी का लिखा अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश हिन्दू जाति की रगो मेँ क्रान्तिकारी (उष्ण रक्त) का संचार करने वाला है । सत्यार्थ प्रकाश की विद्यामनता मे कोई विधर्मीअपने मजहब कीशेखी नहीँ बघार सकता । - स्वातन्त्र्य वीर सावरकर
डी॰ए॰बी॰ यानी दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल मेँ हम सब भाइयोँ को सत्यार्थ प्रकाश पढने का अवसर मिला। हमारे विचारोँ और मानसिक उन्नति के निर्माण मे सबसे बडा हाथ आर्य समाज काहीहै। हम सब इसके लिए आर्यसमाज के ऋणी है। - अमर क्रान्तिकारी भगत सिँह
स्वामी दयानन्द दिव्य ज्ञान वेद का सच्चा सैनिक, विश्व को प्रभु की शरण मेँ लाने वाला योद्धा, धर्म तथा देश की स्वतन्त्रता के लिए मनुष्य व संस्थाओँ का शिल्पी तथा प्रकृति द्वाराआत्मा के मार्ग मे उपस्थित की जाने वाली बाधाओँ का वीर विजेता था। - योगी अरविन्द घोष
मेरा सादर प्रणाम है उस महान गुरु दयानन्द को जिनके मन ने भारतीय जीवन के सब(राजनैतिक,सामाजिक तथा धार्मिक) अंगो को प्रदीप्त कर दिया। मै आधुनिक भारत के मार्गदर्शक उस दयानन्द को आदर पूर्वक श्रद्धांजलिदेता हुँ। -रवीन्द्रनाथ टैगोर
स्वामी दयानन्द एक विद्वान थे। उनके धर्म नियमोँ की नीव ईश्वर कृप वेदोँ पर थी। उन्हे वेद कण्ठस्थ थे उनके मन और मस्तिक मेँ वेदोँ ने घर किया हुआ किया हुआ था। वर्तमान समय मेँ संस्कृत व्याकरण का एक ही बडा विद्वान साहित्य का पुतला, वेदोँ के महत्व को समझने वाला अत्यन्त प्रबल नैयायिक और विचारक यदिभारत मेँ हुआ है तो वह महर्षि दयानन्द सरस्वती ही था। - मैक्स मूलर
महर्षि दयानन्द इतने अच्छे और विद्वान आदमी थे कि प्रत्येक धर्म के अनुयायियो के लिएसम्मान के पात्र थे। - सर सैयद अहमद खाँ
अगर आर्यसमाज न होता तो भारत की क्या दशाहुई होती इसकी कल्पनाकरना भी भयावह है। आर्यसमाजका जिस समय काम शुरु हुआ था कांग्रेस का कहीँ पताहीनही था । स्वराज्य का प्रथम उद्धोष महर्षि दयानन्द ने ही किया था यह आर्यसमाज ही था जिसने भारतीय समाज की पटरी से उतरी गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने का कार्य किया। अगर आर्यसमाज नहोता तो भारत-भारत न होता। - अटल बिहारीबाजपेयी
आर्यसमाज दौडतारहेगा तो हिन्दू समाज चलता रहेगा। आर्यसमाज चलता रहेगा, तो हिन्दूसमाज बैठ जायेगा। आर्यसमाज बैठ जायेगा तोहिन्दूसमाज सो जायेगा। और यदि आर्यसमाज सो गया तो हिन्दूसमाज मर जायेगा। - पंडित मदनमोहन मालवीय
सारे स्वतन्त्रतासेनानियोँ का एक मंदिर खडा किया जाय तो उसमेँ महर्षिदयानन्द मंदिर की चोटी पर सबसे ऊपर होगा। - श्रीमती एनी बेसेन्ट
सत्यार्थ प्रकाश का एक-एक पृष्ठ एक-एक हजार का हो जाय तब भीमै अपनीसारी सम्पत्ति बेचकर खरीदुंगा उन्होने सत्यार्थ प्रकाश को चौदह नालो का तमंचा बताया। -पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी
मै उस प्रचण्ड अग्नि को देख रहा हूँ जो संसार की समस्त बुराइयोँ को जलाती हुई आगे बढ़ रही है वह आर्यसमाज रुपी अग्नि जो स्वामी दयानन्द के हृदय से निकली और विश्व मे फैल गयी । - अमेरिकन पादरी एण्ड्यू जैक्सन
नत मस्तक सब आर्यजन, करते तुम्हे प्रणाम। अजर-अमर है विश्व मे, दयानन्द का नाम॥
[2:58pm, 2/2/2015] himanshu animator87 hp32@: महर्षि दयानन्द की विश्व को सर्वोत्तम देन - वेदों का पुनरूद्धार।
1. महर्षि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में देश को जो कुछ दिया है वह महाभारत काल के सभीउत्तरवर्ती एवं उनके समकालीन किसीमहापुरूष ने नहीं दिया है। मनुष्य कीसबसे बड़ीआवश्यकता क्या है? मनुष्य की सबसे बड़ीआवश्यकता ज्ञानहै। सृष्टि के आदिकाल में जब ईश्वर ने मनुष्यों को उत्पन्न कियातो, भोजन से पहले भी उन्हें जिस किसीवस्तु की आवश्यकता पड़ीथी, वह ज्ञान व भाषा थी। इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्तिकरने वाला तब न किसी का कोई माता-पिता, न गुरू, न आचार्य और न कोई और था। ऐसे समय में केवल एक ईश्वर ही था जिसने इस जंगम संसार कोबनाया था और उसी ने सभीप्राणियों को भी बनाया था। अतः ज्ञान देने का सारा भार भी उसी पर था। यदि वह ज्ञान न देता तोहमारे आदि कालीन पूर्वज बोल नहीं सकते थे और न अपनी आवश्यकताओं – भूख व प्यास आदिको जान व समझ हीसकते थे। इन दोनों व अन्य अनेक कार्यों के लिएहमें भाषा सहित ज्ञान की आवश्यकता थी जिसे ईश्वर ने सबको भाषा देकर व चार ऋषियों को चार वेदों का शब्द, अर्थ व सम्बन्ध सहित ज्ञान देकर पूरा किया। इन चार ऋषियों के नाम थे अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा जिन्हें क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद काज्ञान ईश्वर से इनऋषियों की अन्तरात्मामें अपने जीवस्थ, सर्वान्तर्यामी व सर्वव्यापक स्वरूप से प्राप्त हुआ था। इन चार ऋषियों कोज्ञान मिल जाने के बाद काम आसान हो गया और अब आवश्यकता अन्य मनुष्यों को ज्ञान कराने की थी। प्राचीन वैदिक साहित्य में एतद् विषयक सभी प्रमाण उपलब्घ हैं।
ईश्वर की प्रेरणा से इन चार ऋषियों ने एक अन्य ऋषि ‘श्री ब्रह्मा जी’को एक-एक करके चारों वेदों का ज्ञान कराया और स्वयं भी अन्य-अन्य वेदों का ज्ञानप्राप्त करते रहे। यह ऐसा ही हुआ था जैसे कि किसी कक्षामें गुरू व शिष्य सहित 5 लोग हों। एक चार को पढ़ाता है जिससे चारों को उस विषय काज्ञान हो जाताहै। अग्नि को ईश्वर से ऋग्वेद का ज्ञान प्राप्त हुआ था, अतः उन्होंने अन्य चार ऋषियों को ऋग्वेद पढ़ायाजिससे अन्य चार ऋषियों को भी ऋग्वेद का ज्ञानहोगया। इसके बाद एक-एक करके वायु, आदित्य व अंगिराने अन्य चार कोयजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान करायाऔर इस प्रकार यह पांचों ऋषिचारों वेदों के विद्वान बन गये। अब इस प्रकार से इन 5ऋषियों वा शिक्षकों ने वेदों का अन्य युवा स्त्री-पुरूषों को शिष्यवत् ज्ञान कराने का उपक्रम किया। सृष्टि के आदिकाल में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न सभी मनुष्यों का स्वास्थ्य व उनकी स्मरण-शक्ति-स्मृति अतीव तीव्र व उत्कृष्ट अवस्था में थी। वह ऋषियों के बोलने पर उसे समझ कर स्मरण कर लेते थे। इस कारण यह क्रम कुछ ही दिनों व महीनों में पूराहो गया। वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। अतः सभी स्त्री व पुरूषों को सभीविषयों का पूर्ण ज्ञानहोगया। ज्ञान होने व शारीरिक सामर्थ्य में किसी प्रकार की कमी नहोने के कारण उन्होंने अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति शीघ्र ही कर लीथी। कारण यह था कि उन्हें सभीप्रकार का ज्ञान थाऔर उनकी आवश्यकता की सभी सामग्रीभी प्रकृति में उपलब्धथी। हम यह भीकहना चाहते हैं कि आदि सभी मनुष्य पूर्णतः शाकाहारीथे। सृष्टि में प्रचुर मात्रामें सभीप्रकार के फल, ओषधियां, गोदुग्ध, वनस्पतियां आदि विद्यमानथी जिनका ज्ञान इन लोगों को ईश्वर एवं पांच ऋषियों द्वारा कराया गया था। अतः इन्हें सामिष भोजन की कोई आवश्यकता नहीं थी। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध है और ईश्वर ने अन्य प्राणियों को मनुष्यों के आहार करने के लिए नहीं बनाया है, यह भी सिद्ध है। यदि पशु व अन्य प्राणी आदि मनुष्यों के आहार के लिएबनाये होते तो ईश्वर वनस्पतियों, फल, मूल, अन्न, दुग्ध आदिकदापि न बनाता। सृष्टि के आरम्भ से दिन, सप्ताह, माह व वर्ष आदिकी गणना भी आरम्भ हो गई थी। जो अद्यावधि1,96,08,53,114वर्ष पूर्ण होकर 6 महीने व 15 दिवस (दिनांक 24 सितम्बर, 2014 को) व्यतीत हुए है। महाभारत का युद्ध जो अब से 5,239 वर्ष पूर्व हुआ था, इतनी अवधि तक वेदों के ज्ञान के आधार पर ही सारा संसार सुचारू रूप से चलता रहा है और यह सारा समय ज्ञान व विज्ञान से युक्त रहाहै। महाभारत के युद्ध में देश विदेश के क्षत्रिय व ब्राह्मण बड़ीसंख्या में मारे गये जिससे राज्य व सामाजिक व्यवस्थाछिन्न भिन्न हो गई थी। यद्यपिमहाभारत काल के बाद महाराज युधिष्ठिर व उनके वंशजों ने लम्बी अवधि तक राज्य किया परन्तु महाभारत युद्ध का ऐसा प्रभाव हुआ किहमारापण्डित व ज्ञानी वर्ग आलस्य व प्रमाद में फंस गया और वेदों का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार व प्रसार अवरूद्धहो गया जिससे सारा देश व विश्व अज्ञान के अन्धकार में डूब गया। महाभारत के उत्तर काल में हम देखते हैं कि पूर्णतः अहिंसक यज्ञों में हिंसा की जाने लगी, स्त्री व शूद्रों कोवेदों के अध्ययनके अधिकार से वंचित कर दिया गया, क्षत्रिय व वैश्य भी बहुत कम ही वेदों का अध्ययन करते थे और पण्डित व ब्राह्मण वर्ग के भी कम ही लोग भली प्रकार से वेदों व अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करते थे जिसका परिणाम मध्यकाल का ऐसा समय आयाजिसमें ईश्वर का सत्य स्वरूप भुलाकर एक काल्पनिक स्वरूप स्वीकार कियागयाजिसकी परिणति अवतारवाद, काल्पनिक गाथाओं से युक्त पुराण आदि ग्रन्थों की रचना, मूर्तिपूजा, तीर्थ स्थानों की कल्पना व उसे प्रचारित करने के लिएउसका कल्पित महात्म्य, अस्पर्शयता, छुआछूत, बेमेल विवाह, चारित्रिक पतन, अनेक मत-पन्थों का आविर्भाव जिसमें शैव, वैष्णव, शाक्त आदिप्रमुख थे, इनमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। जैसा भारत में हो रहा था, ऐसा ही कुछ-कुछ विदेशों में भीहोरहा था। वहां पहले पारसी मत अस्तित्व में आया, उसके बाद अन्य मत उत्पन्न हुए, कालान्तर में ईसाई मत व इस्लाम मत काप्रादूर्भाव हुआ। यह सभी मत अपने अपने काल के अनुसार ज्ञानव अज्ञान दोनों से प्रभावित थे व वेदों की भांति सर्वागीण नहीं थे। वेदों के आधार पर ईश्वर का जो सत्य स्वरूप महर्षिदयानन्द ने प्रस्तुत किया व जिसकी चर्चा व उल्लेख हमारे दर्शनों, उपनिषदों, मनुस्मृति, महाभारत व रामायण आदि ग्रन्थों में मिलती है, वह सर्वथा विलुप्त होकर सारे संसार में अज्ञानान्धकार फैल गया। इस मध्यकाल में सभीमत अपने अपने असत्य मतों को ही सबसे अधिक सत्य व सबके लिए ग्राह्य बताने लगे। ऐसी परिस्थितियों के देश में विद्यमानहोजाने के कारण देश गुलाम होगया। जनताका उत्पीड़न हुआ और 19हवीं शताब्दी में सुधार कीनींव पड़ी।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1825 को गुजरात के टंकारानामक ग्राम में हुआ। उनके जन्म के समय से 1.960 अरब वर्ष पहले सृष्टिकी आदि में उत्पन्न ईश्वरीय ज्ञान के ग्रन्थ वेद लुप्त प्रायः हो चुके थे। इसका मुख्य कारण यह था कि उन दिनों ज्ञानव विज्ञान सारे विश्व में अत्यन्त अवनत अवस्था में था। उन दिनों न तो वैज्ञानिक विधि से कागजबनाने कीतकनीकि काज्ञान था और न हि मुद्रणालय उपलब्धथे। महाभारत काल के बाद से लोग हाथों से कागज बनाते थे जो कि अत्यन्त निम्न कोटि का हुआ करता था। उन दिनों लिखने के लिए भी आजकल की तरह लेखनीअथवापैन आदि उपलब्धनहीं थे। सभीग्रन्थों को धीरे-धीरे हाथ से लिखा जाता था यामूल ग्रन्थ से प्रतिलिपिया अनुकृति कीजाती थी। इस कार्य में एक समय में एक हीप्रति लिखी जासकती थी। हमारा अनुमान है किवेदों कीएक प्रति तैयार करने में एक व्यक्ति को महीनों व वर्षों लगते थे। वह व्यक्ति यदिकहीं असावधानी करता था तो वह अशुद्धि भविष्य की सभी प्रतियों में हुआ करती रही होगी। यदि लेखक कुछ चंचल स्वभाव का हो तो वह स्वयं भी कुछ श्लोक आदि उसके द्वारा कीजा रहीप्रतिलिपिमें मिला सकता था। ऐसा करना कुछ लोगो का स्वभाव हुआ करता है। एक प्रतिमें जब इतना श्रम करनापड़ता थातो यह ग्रन्थ दूसरों को आसानी से सुलभ होने कीसम्भावना भी नहीं थी। अतः उन दिनों अध्ययन व अध्यापन आज कल की तरह सरल नही था। उन दिनों लोगों की प्रवृत्ति वेदों से छूट कर कुछ चालाक व चतुर लोगों द्वारा कल्पित कहानीकिस्सों के आधार पर पुराणों की रचना कर देने से उनकी ओर हो गई। इस कारण वेदों में लोगों की रूचि समाप्त होगई। ऐसे समय में कोई विरला ही वेदों के महत्व को जानता थाऔर उनकी रक्षा व अध्ययन में प्रवृत्त होता था। वेदों का अध्ययन कराने वाले योग्य शिक्षकों व अध्यापकों की उपलब्धता अपवाद स्वरूप ही होतीथी। उन दिनों पुराण, रामचरित मानस, गीता आदिग्रन्थ तो आसानी से उपलब्धहोजाते रहे होंगे परन्तु वेदों कीअप्रवृत्ति होने के कारण उनका उपलब्धहोना कठिन व कठिनतम् था। इससे पूर्व की वेद धरती से पूरी तरह से विलुप्त हो जाते, दैवीय कृपा से महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव होताहै और उन्हें गुरू के रूप में स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी मिल गए जिनकी पूरी श्रद्धा वेदों एवं आर्ष साहित्य में थी। उन्होंने नेत्रों से वंचित होने पर भी संस्कृत की आर्ष व्याकरण, अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरूक्त पद्धति का सतर्क रहकर अध्ययन कियाथा और भारत के इतिहास व आर्ष व अनार्ष ज्ञानके भेद को वह भली प्रकार से समझते थे। भारत में ऐसे एकमात्र गुरू से स्वामी दयानन्द ने संस्कृत व्याकरण व वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। महर्षि दयानन्द सन् 1860 में गुरू विरजानन्द सरस्वती की मथुरा स्थितिसंस्कृत पाठशाला में पहुंचें थे। उन्होंने वहां रहकर सन् 1863 तक लगभग 3वर्षों में अपनाअध्ययन पूरा किया। इसके बाद वह गुरू से पृथक हुए। प्रस्थान से पूर्व, गुरू दक्षिणा के अवसर पर, गुरू व शिष्य का वार्तालाप हुआ। गुरू ने स्वामी दयानन्द को बताया कि उन दिनों विश्व भर में सत्य धर्म कहीं भी अस्तित्व में नहीं है। सभीमत-मतान्तर सत्य व असत्य मान्यताओं, कथानकों, मिथ्या कर्मकाण्डों व क्रिया-कलापों, आचरणों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों-नीतियों, अनावश्यक अनुष्ठानों आदिसे भरे हुए हैं। सत्य केवल वेदों एवं ऋषिकृत आर्ष ग्रन्थों में ही विद्यमान हैं। इतर ग्रन्थ अनार्ष ग्रन्थ हैं जिनमें हमारे सत्पुरूषों की निन्दा, असत्य व काल्पनिक कथाओं का चित्रण व मिश्रण हैं। इनमें अनेक मान्यताये तो ऐसी हैं जिनका निर्वाह अनावश्यक एवं जीवन के लिए अनुपयोगी है। अतः स्वामीदयानन्द को मानवता के कल्याण के लिए सत्य की स्थापनाकरने व वेदों व वैदिक ग्रन्थों को आधार बनाना आवश्यक प्रतीत हुआ। उन्होंने इस सत्य व तथ्य को जान कर वेदों की ओर चलों, का नारा लगाया। उन्होंने घोषणा की कि वेद ईश्वरीय ज्ञानहै, इसलिये वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब ईश्वरपुत्र आर्यों व मानवमात्र का धर्म ही नहीं अपतिु परम धर्म है। महर्षि दयानन्द की इन घोषणाओं को सुनकर लोग आश्चर्य में पड़ गये कि यह व्यक्ति कौन है, जो वेदों की बात करता है। ऐसीबात तो न स्वामी शंकराचार्य ने की थी, न आचार्य चाणक्य ने और न भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने ही। यूरोप व अरब से भी कभी इस प्रकार की आवाज सुनाई नहीं दी। वेद क्या हैं व उनमें क्या कुछ है, कोई नहीं जानता था। बहुत से व अधिकांश धर्माचार्यों ने तो वेद कभी व कहीं देखे भीनहीं थे। भारत के सनातन धर्म नामी पुराणों के अनुयायी धर्माचार्य तो वेदों के सर्वथा विरूद्ध व असत्य, पुराणों को ही वेद से भी अधिक मूल्यवान, प्रासंगिक व जीवनोपयोगी मानते थे। स्वामी दयानन्द की इस घोषणा से सभी धर्माचार्य अचम्भित व भयभीत हो गये। अब से 2,500वर्ष भगवान बुद्ध व भगवान महावीर ने वेदों के नाम पर किये जाने वाले हिंसात्मक यज्ञ यथा, गोमेध, अश्वमेध, अजामेध यज्ञों को चुनौती दी थी और अब यह वेदों का अपूर्व पण्डित व विद्वान दयानन्द पहला व्यक्ति आया था, जिसने नकेवल पौराणिक मत वालों को ही ललकारा अपितु संसार के सभीमतवालों को चुनौती दीकी वह अपने मत कीमान्यताओं को सत्य सिद्ध करें या उनसे शास्त्रार्थ कर स्वयं कोविजयी व स्वामी दयानन्द को पराजित करें। कोई सामने न आ सकाऔर यदि आयातो पराजित हुआ। बार बार चुनौती से विवश होकर सन् 1869में काशी नरेश के आदेश से काशी के 30 से अधिक शिखरस्थ कहे जाने वाले विद्वान व पण्डितों कोवेदों से मूर्तिपूजा सिद्धकरने कीचुनौती स्वीकार करनी पड़ी, वह सामने आये लेकिन शास्त
[2:58pm, 2/2/2015] himanshu animator87 hp32@: आर्यसमाज का राष्ट्र को योगदान।
संसार में आर्य समाज एकमात्र ऐसा संगठन है जिसके द्वारा धर्म, समाज, और राष्ट्र तीनों के लिए अभूतपूर्व कार्य किएगए हैं, इनमे से कुछ इस प्रकार है –
वेदों से परिचय – वेदों के संबंध में यह कहाजाता था कि वेद तो लुत्प हो गए, पाताल में चले गए। किन्तु महर्षि दयानन्द के प्रयास से पुनः वेदों का परिचय समाज को हुआ और आर्य समाज ने उसे देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी पहुँचाने का कार्य किया। आज अनेक देशों में वेदो ऋचाएँ गूंज रहीहैं, हजारों विद्वान आर्य समाज के माध्यम से विदेश गएऔर वे प्रचार कार्य कर रहे हैं। आर्य समाज कियह समाज को अपने आप में एक बहुत बड़ी दें है।
सबको पढ़ने का अधिकार - वेद के संबंधमें एक और प्रतिबंध था। वेद स्त्रीऔर शूद्र को पढ़ने, सुनने का अधिकार नहीं था। किन्तु आज आर्य समाज के प्रयास से हजारों महिलाओं ने वेद पढ़कर ज्ञान प्रपट किया और वे वेद कि विद्वानहैं। इसी प्रकार आज बिना किसी जाति भेद के कोई भी वेद पढ़ और सुन सकताहै। यह आर्य समाज का हीदेंनहै।
जातिवाद का अन्त – आर्य समाज जन्म से जाति को नहीं मानता। समस्त मानव एक हीजाति के हैं। गुण कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था को आर्य समाज मानताहै। इसीलिएनिम्न परिवारों में जन्म लेने वाले अनेक व्यक्तिभी आज गुरुकुलों में अध्यन कर रहे हैं। अनेक व्यक्ति शिक्षा के पश्चात आचार्य शास्त्री, पण्डित बनकर प्रचार कर रहे हैं।
स्त्री शिक्षा - स्त्री को शिक्षा काअधिकार नहीं है, ऐसी मान्यता प्रचलित थी। महर्षि दयानन्द ने इसकाखण्डन कियाऔर सबसे पहला कन्याविद्यालय आर्य समाज की ओर से प्रारम्भ किया गया। आज अनेक कन्यागुरुकुल आर्य समाज के द्वारा संचालित किएजा रहे हैं।
विधवा विवाह – महर्षि दयानन्द के पूर्व विधवासमाज के लिए एक अपशगून समझीजाति थी। सतीप्रथा इसीका एक कारण था। आर्य समाज ने इस कुरीति का विरोधकिया तथा विधवा विवाह को मान्यता दिलवाने का प्रयास किया।
छुआछूत का विरोध – आर्य समाज ने सबसे पहले जातिगत ऊँचनीच के भेदभाव को तोड़ने की पहल की। इस आधार पर बाद में कानून बनाया गया। अछूतोद्धार के सम्बन्ध में आर्य सन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द ने अमृतसर काँग्रेस अधिवेशन में सबसे पहले यह प्रस्ताव रखा था जो पारित हुआ था।
देश की स्वतन्त्रता में योगदान – परतंत्र भारत को आजाद कराने में महर्षि दयानन्द को प्रथम पुरोधा कहा गया। सन् 1857के समय से ही महर्षिने अंग्रेज़ शासन के विरुद्ध जनजागरण प्रारम्भ कर दिया था। सन् 1870में लाहौर में विदेशी कपड़ोकी होली जलाई। स्टाम्प ड्यूटीव नमक के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा परिणाम स्वरूप आर्यसमाज के अनेक कार्यकर्ता व नेता स्वतन्त्रता संग्राम में देश को आजाद करवाने के लिए कूद पड़े।
स्वतन्त्रता आंदोलनकारियों के सर्वेक्षण के अनुसार स्वतन्त्रता के लिए 80प्रतिशत व्यक्ति आर्यसमाज के माध्यम से आए थे। इसी बात को काँग्रेस के इतिहासकार डॉ॰ पट्टाभिसीतारमैया ने भी लिखी है। लाला लाजपतराय, पं॰ रामप्रसाद बिस्मिल, शहीदे आजम भगत सिंह, श्यामजी कृष्ण वर्मा, मदनलाल ढींगरा, वीर सावरकर, महात्मा गांधी के राजनैतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले आदि बहुत से नाम हैं।
गुरुकुल – सनातन धर्म की शिक्षा व संस्कृति के ज्ञान केंद्र गुरुकुल थे, प्रायः गुरुकुल परम्परा लुप्त हो चुकी थी। आर्य समाज ने पुनः उसे प्रारम्भ किया। आज सैकड़ों गुरुकुल देश व विदेश में हैं।
गौरक्षा अभियान– ब्रिटिश सरकार के समय में ही महर्षि दयानन्द ने गाय को राष्ट्रिय पशु घोषित करने व गोवध पर पाबन्दी लगाने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था। गौ करुणा निधि नामक पुस्तक लिखकर गौवंश के महत्व को बताया और गाय के अनेक लाभों को दर्शाया। महर्षि दयानन्द गौरक्षा को एक अत्यंत उपयोगी और राष्ट्र के लिए लाभदायक पशु मानकर उसकी रक्षा कासन्देश दिया। ब्रिटिश राज के उच्च अधिकारियों से चर्चा की, 3करोड़ व्यक्तियों के हस्ताक्षर गौवधके विरोध में करवाने का का कार्य प्रारम्भ किया,। गौ हत्या के विरोध में कई आन्दोलन आर्य समाज ने किए। आज गौ रक्षा हेतु लाखो गायों का पालन आर्य समाज द्वारा संचालित गौशालाओं में हो रहाहै।
हिन्दी को प्रोत्साहन– महर्षि दयानन्द सरस्वती ने राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के लिए एक भाषाको राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने के लिए सर्वप्रथम प्रयास किया। उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है अहिन्दी भाषीप्रदेशों या विदेशों में जहाँ-जहाँ आर्य समाज हैं वहाँ हिन्दीका प्रचार है।
यज्ञ – सनातनधर्म में यज्ञ को बहुत महत्व दिया है। जीतने शुभ कर्म होते हैं उनमे यज्ञ अवश्य किया जाता है। यज्ञ शुद्ध पवित्र सामाग्री व वेद के मन्त्र बोलकर करने का विधान है। किन्तु यज्ञ का स्वरूप बिगाड़ दिया गया था। यज्ञ में हिंसा हो रही थी। बलि दीजाने लगी थी।
वेद मंत्रो के स्थानपर दोहे और श्लोकों से यज्ञ किया जाता था। यज्ञ का महत्व भूल चुके थे। ऐसीस्थितिमें यज्ञ के सनातनस्वरूप कोपुनः आर्य समाज ने स्थापित किया, जन-जन तक उसका प्रचार किया और लाखों व्यक्ति नित्य हवनकरने लगे। प्रत्येक आर्य समाज में जिनकी हजारों में संख्या है, सभी में यज्ञ करना आवश्यक है। इस प्रकार यज्ञ के स्वरूपऔर उसकी सही विधि व लाभों से आर्य समाज ने हीसबको अवगत करवाया।
शुद्धि संस्कार व सनातन धर्म रक्षा – सनातनधर्म से दूर हो गए अनेक हिंदुओं कोपुनः शुद्धिकर सनातन धर्म में प्रवेश देने का कार्य आर्य समाज ने ही प्रारम्भ किया। इसी प्रकार अनेक भाई-बहन जो किसी अन्य संप्रदाय में जन्में यदि वे सनातन धर्म में आनाचाहते थे, तोकोई व्यवस्थानहीं थी, किन्तु आर्य समाज ने उन्हे शुद्धकर सनातन धर्म में दीक्षा दी, यह मार्ग आर्य समाज ने ही दिखाया। इससे करोड़ों व्यक्ति आज विधर्मी होने से बचे हैं। सनातन धर्म का प्रहरी आर्य समाज है। जब-जब सनातन धर्म पर कोई आक्षेप लगाए, महापुरुषों पर किसी ने कीचड़ उछालातो ऐसे लोगों को आर्य समाज ने ही जवाब देकर चुप किया। हैदराबाद निजाम ने सांप्रदायिक कट्टरता के कारण हिन्दू मान्यताओं पर 16 प्रतिबंध लगाए थे जिनमें – धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक रीतिरिवाज सम्मिलित थे। सन् 1937 में पंद्रह हजार से अधिक आर्य व उसके सहयोगी जेल गएतीव्र आंदोलन किया, कई शहीद हो गए।
निजाम ने घबराकर सारी पाबन्दियाँ उठा ली, जिन व्यक्तियों ने आर्य समाज के द्वारा चलाये आंदोलन में भाग लिया, कारागार गए उन्हे भारत शासन द्वारा स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की भांति सम्मान देकर पेंशन दी जा रही है।
सन् 1983 में दक्षिण भारत मीनाक्षीपुरम में पूरे गाँव को मुस्लिम बना दिया गयाथा। शिव मंदिर को मस्जिद बना दिया गया था। सम्पूर्ण भारत से आर्यसमाज के द्वारा आंदोलनकिया गयाऔर वहाँ जाकर हजारों आर्य समाजियों ने शुद्धि हेतु प्रयास किया और पुनः सनातन धर्म में सभी को दीक्षित किया, मंदिर की पुनः स्थापनाकी।
कश्मीर में जब हिंदुओं के मंदिर तोड़ना प्रारम्भ हुआ तो उनकी ओर से आर्य समाज ने प्रयास किया और शासन से 10 करोड़ का मुआवजादिलवाया।
ऐसे अनेक कार्य हैं, जिनमें आर्य समाज सनातन धर्म की रक्षा के लिएआगे आया और संघर्ष किया बलिदानभी दिया।
इस प्रकार आर्य समाज मानव मात्र की उन्नति करने वाला संगठन है, जिसका उद्देश्य शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नतिकरना है। वह अपनी ही उन्नति से संतुष्ट नरहकर सबकी उन्नति में अपनी उन्नति मानता है।
इसलिए आर्य समाज को जोमानव मात्र की उन्नति के लिए, सनातन संस्कृति के लिए प्र्यत्नरत है उसके सहयोगी बनें। परंतु आर्य समाज के प्रति भ्रम होने से कुछ ऐसा है –
जिन्हें फिक्र है ज़ख्म की, उन्हे कातिल समझते हैं। फिर तो, यो ज़ख्म कभी ठीक हो नहीं सकता ॥
[3:37pm, 4/12/2015] himanshu animator87 hp32@: गौर से दो बार पढे
जिस दिन हमारी मोत होती है, हमारा पैसा बैंक में ही रहा जाता है।
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जब हम जिंदा होते हैं तो हमें लगता है कि हमारे पास खच॔ करने को पया॔प्त धन नहीं है।
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जब हम चले जाते है तब भी बहुत सा धन बिना खच॔ हुये बच जाता है।
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एक चीनी बादशाह की मोत हुई। वो अपनी विधवा के लिये बैंक में 1.9 मिलियन डालर छोड़ कर गया। विधवा ने जवान नोकर से शादी कर ली। उस नोकर ने कहा -
“मैं हमेशा सोचता था कि मैं अपने मालिक के लिये काम करता हूँ अब समझ आया कि वो हमेशा मेरे लिये काम करता था।”
सीख?
ज्यादा जरूरी है कि अधिक धन अज॔न कि बजाय अधिक जिया जाय।
• अच्छे व स्वस्थ शरीर के लिये प्रयास करिये।
• मँहगे फ़ोन के 70% फंक्शन अनोपयोगी रहते है।
• मँहगी कार की 70% गति का उपयोग नहीं हो पाता।
• आलीशान मकानो का 70% हिस्सा खाली रहता है।
• पूरी अलमारी के 70% कपड़े पड़े रहते हैं।
• पुरी जिंदगी की कमाई का 70% दूसरो के उपयोग के लिये छूट जाता है।
• 70% गुणो का उपयोग नहीं हो पाता
तो 30% का पूण॔ उपयोग कैसे हो
• स्वस्थ होने पर भी निरंतर चैक अप करायें।
• प्यासे न होने पर भी अधिक पानी पियें।
• जब भी संभव हो, अपना अहं त्यागें ।
• शक्तिशाली होने पर भी सरल रहेँ।
• धनी न होने पर भी परिपूण॔ रहें।
बेहतर जीवन जीयें !!!
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काबू में रखें - प्रार्थना के वक़्त अपने दिल को,
काबू में रखें - खाना खाते समय पेट को,
काबू में रखें - किसी के घर जाएं तो आँखों को,
काबू में रखें - महफ़िल मे जाएं तो ज़बान को,
काबू में रखें - पराया धन देखें तो लालच को,
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भूल जाएं - अपनी नेकियों को,
भूल जाएं - दूसरों की गलतियों को,
भूल जाएं - अतीत के कड़वे संस्मरणों को,
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छोड दें - दूसरों को नीचा दिखाना,
छोड दें - दूसरों की सफलता से जलना,
छोड दें - दूसरों के धन की चाह रखना,
छोड दें - दूसरों की चुगली करना,
छोड दें - दूसरों की सफलता पर दुखी होना,
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यदि आपके फ्रिज में खाना है, बदन पर कपड़े हैं, घर के ऊपर छत है और सोने के लिये जगह है,
तो दुनिया के 75% लोगों से ज्यादा धनी हैं
यदि आपके पर्स में पैसे हैं और आप कुछ बदलाव के लिये कही भी जा सकते हैं जहाँ आप जाना चाहते हैं
तो आप दुनिया के 18% धनी लोगों में शामिल हैं
यदि आप आज पूर्णतः स्वस्थ होकर जीवित हैं
तो आप उन लाखों लोगों की तुलना में खुशनसीब हैं जो इस हफ्ते जी भी न पायें
यदि आप मैसेज को वाकइ पढ़ सकते हैं और समझ सकते हैं
तो आप उन करोड़ों लोगों में खुशनसीब हैं जो देख नहीं सकते और पढ़ नहीं सकते|…
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