सत्यार्थ प्रकाश कवितामृत
काव्यरचना : आर्य महाकवि पं. जयगोपाल जी
स्वर : ब्र. अरुणकुमार ‘‘आर्यवीर’’
ध्वनिमुद्रण : श्री आशीष सक्सेना (स्वर दर्पण साऊंड स्टूडियो, जबलपुर)
प्रथम समुल्लास भाग (१२)
द्वैत भाव प्रभु में नहीं आवे,
ताँते वह ‘अद्वैत’ कहावे।
वह कैवल्य रूप एकाकी,
कहूं द्विता दीखे नहीं ताकी।
नाँहीं उसका कोई सजाति,
नाँहीं कोई अन्य विजाति।
सत रज तम गुण जिसमें नाँहीं,
रागादिक नांहीं प्रभु माँहीं।
ताँते निर्गुण प्रभु को कहिये,
निर्गुण प्रभु पूजे सुख लहिये।
सर्वज्ञादिक गुण हैं जेते,
पारब्रह्म में हैं सब तेते।
गुण होने ते सगुण कहावे,
तरे भक्त वाके गुण गावे।
जीव रु जग गुण प्रभु में नाहीं,
एही हेत वे निर्गुण कहाहीं।
सर्वज्ञादिक बहु गुण वाके,
इह विध सगुण रूप भी ताके।
ओत प्रोत व्यापक जग माँही,
वाते रिक्त नहीं कोऊ ठाहीं।
मन के अन्दर मन का स्वामी,
वाकी संज्ञा अन्तरयामी।
होय धर्म सों जासु प्रकासा,
पाप रहित सद्धर्म निवासा।
धर्म करे धर्महिं प्रगटावे,
धर्मराज सो ‘ईश’ कहावे।
‘यमु’ धातु सों यम पद सिद्धि,
दण्ड क्रिया वाकी परसिद्धि।
पाप पुण्य के फल का दाता,
न्याय डोर यम कर मँह धाता।
भज् धातु से है भगवाना,
सुख दाता संपति की खाना।
भजन योग्य स्वामी भगवन्ता,
नवनिधि दाता ईश अनन्ता।
‘मन’ ‘ज्ञाने’ ‘मनु’ पद की रचना,
करहिं ऋषि मुनि शब्द प्रवचना।
ज्ञान शील अरु मानन लायक,
सो ‘मनु’ परमेश्वर सुखदायक।
पूर रहा जड़ चेतन माँही,
कोउ ठौर वा के बिनु नाहीं।
एहि कारण प्रभु ‘पुरुष’ कहावे,
सकल विश्व मँह स्वयं समावे।
‘डुकृ९ा्’ धारण पोषण अर्था,
सबको पालहि सकल समर्था।
‘कल’ संख्याने रचिये ‘काला’,
सबकी गणना करने वाला।
‘शिष्लृ’ सों निर्मित पद ‘शेषा’,
रहे शेष प्रभु नशहि अशेषा।
‘आप्लृ’ व्यातौ ‘आप्त’ बनाया,
पारब्रह्म प्रभु आप्त कहाया।
सत उपदेशक विद्या पूरन,
निश्चल छल को करता चूरन।
जाको केवल धर्मी पावे,
सो परमेश्वर ‘आप्त’ कहावे।
‘शम्’ पूरव मँह ‘डुकृ९ा्’ करणे,
शंकर पोत अवर्णव तरणे।
शंकर प्रभु कल्याण का दाता,
भज शंकर सब जग का नाता।
‘देव’ शब्द के महत् सुपूरव,
महादेव पद रच्यौ अपूरव।
दोहा
पूजहू नर महाँदेव कहँ, सब देवन की देव।
चोर पदारथ पाइगो, करहु जो वाकी सेव।।
चौपाई
‘प्रीञ्’ अर्थ कान्ति अरु तर्पण,
‘प्रिय’ प्रभु के मन करहु समर्पण।
‘प्रिय’ परमेश्वर सब को प्यारा,
धर्मी जन मन रंजन हारा।
‘स्वयं’ पूर्व ‘भू’ ‘सत्ता’ अर्था,
प्रभु स्वयम्भू सकल समर्था।
आपहि आप स्वयम्भू होवे,
वाको बीज नहीं कोऊ बोवे।
जग का कारण स्वयं अकारण,
सब ब्रह्माण्ड करत वह धारण।
‘कु’ धातु ‘कवि’ पद निर्माता,
चतुर्वेद ‘कवि’ ईश विधाता।
सब विद्याओं का उपदेशक,
सकल ज्ञान का है निर्देशक।
‘शिव’ पद ‘शिवु’ धातु कल्याणे,
शिव कल्याणी सब कोई माने।
शिव का जिसने सिमरन कीना,
मोक्ष धाम उसको प्रभु दीना।
नाम शतक हौं किया बखाना,
इन ते भिन्न नाम हैं नाना।
पारब्रह्म के नाम अनन्ता,
तुच्छ जीव पावे नहीं अन्ता।
गुण अनन्त कोउ अन्त न आवे,
कहां कीट सागर थाह पावे।
कर्म स्वभाव भाव हैं नाना,
हैं अनन्त नामी भगवाना।
वेद शास्त्र पढ़िये हो ज्ञाना,
नाम अनन्त किये विख्याना।
जो वेदों के जानन हारे,
जानें वही पदारथ सारे।
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