आचार्य अनीलेश:
☆मनुष्यपन रूपी धर्म यही है ☆
उपदेश में, सामान्य वार्तालाप में तथा सामान्य लेख आदि में महर्षि दयानंद जी ने निःसंदेह सत्य भाषण, मधुर वाणी, विद्वत्ता व सभ्यता से कार्य लिया तथा असत्य की अप्रतिष्ठा करने मे साहस व निडरता से कार्य लिया ।सृष्टि - नियम यही है कि सूर्य की किरणें समस्त दुर्गंधि व अपवित्रता के परमाणुओं को प्रतिक्षण दूर करें ।प्रकाश का प्रथम कार्य अंधकार का नाश करना है।डंक मारने से पूर्व सर्प का सिर कुचला जाता है ।खेती की रक्षा के लिए कष्ट देने वाले हानिकारक जिन्ताओं को मारा भगाया अथवा कांटेदार बाड में फंसाया जाता है ।ठीक सच्चे धर्मात्मा लोगों का यही कार्य है झूठ व अज्ञानता के नाग का अत्यंत दक्षता से सिर कुचल दे और यही कुछ महर्षि दयानंद जी ने ’ सत्यार्थ प्रकाश ’ की समाप्ति पर भर्तृहरि का श्लोक देकर सपष्ट किया कि झूठ व अधर्म के विनाश में लगे रहना सच्चे मनुष्य का मुख्य कार्य है ।लोग कुछ भी कहें अथवा कैसा भी व्यवहार करें निर्भय होकर सब कुछ सहे परन्तु इस मनुष्यपन रूपी धर्म से कभी विचलित न हो क्योंकि इसी पर मनुष्य के कल्याण व उन्नति का आधार है ।
[4/1, 7:40 PM] +919453796212: वेदों का पढ़ना
तदनन्तर पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त अर्थात् जहां तक बन सके वहां तक ऋषिकृत व्याख्यासहित अथवा उत्तम विद्वानों की सरल व्याख्यायुक्त छै शास्त्रों को पढ़े-पढ़ावे। परन्तु वेदान्त सूत्रों के पढ़ने के पूर्व ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक इन दश उपनिषदों को पढ़के छः शास्त्रों के भाष्य वृत्तिसहित सूत्रों को दो वर्ष के भीतर पढ़ लेवें। पश्चात् छः वर्षों के भीतर चारों ब्राह्मण अर्थात् ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ब्राह्मणों के सहित चारों वेदों के स्वर, शब्द, अर्थ, सम्बन्ध तथा क्रिया सहित पढ़ना योग्य है।
-महर्षि दयानन्द सरस्वती
[4/2, 8:43 AM] +919453796212: विद्या विघ्न से रोगी और मूर्ख
जो विद्या पढ़ने पढ़ाने के विघ्न हैं उनको छोड़ देवे, जैसे कुसंग अर्थात् दुष्ट विषयी जनों का संग, दुष्ट व्यसन जैसा मद्यादि सेवन और वेश्यागमनादि, बाल्यावस्था में विवाह अर्थात् पच्चीसवें वर्ष से पुरुष और सोलहवें वर्ष से पूर्व स्त्री का विवाह हो जाना, पूर्ण ब्रह्मचर्य न होना, राजा, माता-पिता और विद्यानों का प्रेम वेदादि शास्त्रों के प्रचार में न होना, अति भोजन, अति जागरण करना, पढ़ने-पढ़ाने, परीक्षा लेने वा देने में आलस्य वा कपट करना, सर्वोपरी विद्या का लाभ न समझना, ब्रह्मचर्य से बल, बुद्धि, पराक्रम आरोग्य, राज्य, धन की वृद्धि न मानना, ईश्वर का ध्यान छोड़ अन्य पाषाणादि जड़ मूर्ति के दर्शन-पूजन में व्यर्थ काल खोना, माता-पिता, आचार्य और अतिथि इनको विद्वान और सत्यमूर्ति मानकर सेवा-सत्संग न करना, वर्णाश्रम के धर्म छोड़ ऊर्ध्वपुण्ड्र, त्रिपुण्ड, तिलक, कण्ठी, मालाधारण, एकादशी, त्रयोदशी आदि व्रत करना, काशी आदि तीर्थ और राम, कृष्ण, नारायण, शिव, भगवती, गणेश आदि के नामस्मरण से पाप दूर होने का विश्वास, पाखण्डियों के उपदेश से विद्या पढ़ने में अश्रद्धा का होना, विद्या, धर्म योग, परमेश्वर की उपासना के बिना मिथ्या पुराण नामक भागवतादि की कथादि से मुक्ति का मानना, लोभ से धनादि में प्रवृत्त होकर विद्या में प्रीति न रखना, इधर-उधर व्यर्थ घूमते रहना इत्यादि मिथ्या व्यवहारों में फंस के ब्रह्मचर्य और विद्या के लाभ से रहित होकर रोगी और मूर्ख बने रहते हैं।
-महर्षि दयानन्द सरस्वती
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