Wednesday, April 1, 2015

अयोध्या की कहानी जिसे पढ़कर आप रो पड़ेंगे। कृपया इस लेख को पढ़ें, तथा प्रतेक हिन्दूँ मिञों को अधिक...

अयोध्या की कहानी जिसे

पढ़कर आप रो पड़ेंगे।

कृपया इस

लेख को पढ़ें, तथा प्रतेक

हिन्दूँ मिञों को अधिक से

अधिक शेयर करें।


जब बाबर

दिल्ली की गद्दी पर

आसीन हुआ उस समय

जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के

अधिकार क्षेत्र में थी। महात्मा श्यामनन्द

की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास

मूसा आशिकान

अयोध्या आये । महात्मा जी के शिष्य बनकर

ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त

कर ली और उनका नाम

भी महात्मा श्यामनन्द के

ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा।


ये सुनकर

जलालशाह नाम का एक फकीर भी

महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर

सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा।

जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक

ही सनक थी,

हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना । अत:

जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ

में छुरा घोंपकर

ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार

किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद

बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में

स्थायी हो जायेगा। धीरे धीरे

जलालशाह और

ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने

की तैयारियों में जुट गए ।


सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के

विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द

मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास

की जमीनों में

बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥ और

मीरबाँकी खां के माध्यम से बाबर

को उकसाकर मंदिर के

विध्वंस का कार्यक्रम बनाया। बाबा श्यामनन्द

जी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख

के बहुत दुखी हुए

और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ।


दुखी मन से

बाबा श्यामनन्द जी ने

रामलला की मूर्तियाँ सरयू में

प्रवाहित किया और खुद हिमालय की और

तपस्या करने

चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान

आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर

रामलला की रक्षा के लिए खड़े हो गए। जलालशाह

की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट

लिए गए. जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने

की घोषणा हुई उस समय

भीटी के राजा महताब सिंह

बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए

निकले

थे,अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर

मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर

दी और

अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल

कर १ लाख

चौहत्तर हजार लोगो के साथ बाबर की सेना के ४

लाख

५० हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।


रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त

की आखिरी बूंद तक

लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने

देंगे।

रामभक्त वीरता के साथ लड़े ७० दिनों तक घोर संग्राम

होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत

सभी १

लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए। श्रीराम

जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस

भीषण

कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने

तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया । मंदिर के मसाले से

ही मस्जिद का निर्माण हुआ

पानी की जगह मरे हुए

हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल किया गया नीव में

लखौरी इंटों के साथ ।


इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के

पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार

हिंदुओं

की लाशें गिर जाने के पश्चात

मीरबाँकी अपने मंदिर

ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद

जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर

दिया गया..

इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज

बाराबंकी गजेटियर में लिखता है की “

जलालशाह ने

हिन्दुओं के खून का गारा बना के

लखौरी ईटों की नीव

मस्जिद बनवाने के लिए

दी गयी थी।

उस समय अयोध्या से ६ मील

की दूरी पर सनेथू नाम

का एक गाँव के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने

वहां के आस

पास के गांवों सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय

क्षत्रियों को एकत्रित किया॥ देवीदीन

पाण्डेय ने

सूर्यवंशीय क्षत्रियों से कहा भाइयों आप लोग मुझे

अपना राजपुरोहित मानते हैं ..अप के पूर्वज

श्री राम थे

और हमारे पूर्वज महर्षि भरद्वाज जी। आज

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम

की जन्मभूमि को मुसलमान

आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस

परिस्थिति में हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने

की बजाय जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध

करते करते

वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥


देवीदीन पाण्डेय

की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९०

हजार क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर दूर के गांवों से लोग

समूहों में इकठ्ठा हो कर देवीदीन

पाण्डेय के नेतृत्व में

जन्मभूमि पर

जबरदस्त धावा बोल दिया । शाही सेना से लगातार ५

दिनों तक युद्ध हुआ । छठे दिन

मीरबाँकी का सामना देवीदीन

पाण्डेय से हुआ उसी समय

धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक

लखौरी ईंट से पाण्डेय

जी की खोपड़ी पर वार कर

दिया। देवीदीन पाण्डेय का सर

बुरी तरह फट

गया मगर उस वीर ने अपने पगड़ी से

खोपड़ी से बाँधा और

तलवार से उस कायर अंगरक्षक का सर काट दिया।

इसी बीच

मीरबाँकी ने छिपकर

गोली चलायी जो पहले

ही से घायल देवीदीन पाण्डेय

जी को लगी और

वो जन्मभूमि की रक्षा में वीर

गति को प्राप्त

हुए..जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से लाल

हो गयी। देवीदीन पाण्डेय के

वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक

जगह

पर अब भी मौजूद हैं॥

पाण्डेय जी की मृत्यु के १५ दिन बाद

हंसवर के महाराज

रणविजय सिंह ने सिर्फ २५ हजार सैनिकों के साथ

मीरबाँकी की विशाल और

शस्त्रों से सुसज्जित सेना से

रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया । 10

दिन तक युद्ध चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ

वीरगति को प्राप्त हो गए। जन्मभूमि में 25 हजार

हिन्दुओं का रक्त फिर बहा।

रानी जयराज कुमारी हंसवर के

स्वर्गीय महाराज

रणविजय सिंह की पत्नी थी।


जन्मभूमि की रक्षा में

महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद

महारानी ने

उनके कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और

तीन

हजार नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर

हमला बोल

दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध

जारी रखा। रानी के गुरु

स्वामी महेश्वरानंद जी ने

रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज

कुमारी की सहायता की। साथ

ही स्वामी महेश्वरानंद

जी ने

सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने

२४

हजार सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज

कुमारी के साथ , हुमायूँ के समय में कुल १० हमले

जन्मभूमि के उद्धार के लिए किये। १०वें हमले में

शाही सेना को काफी नुकसान हुआ और

जन्मभूमि पर

रानी जयराज कुमारी का अधिकार हो गया।


लेकिन लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने

पूरी ताकत से

शाही सेना फिर भेजी ,इस युद्ध में

स्वामी महेश्वरानंद

और रानी कुमारी जयराज

कुमारी लड़ते हुए

अपनी बची हुई

सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर

पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। श्रीराम

जन्मभूमि एक बार फिर कुल 24 हजार सन्यासियों और 3

हजार वीर नारियों के रक्त से लाल

हो गयी।

रानी जयराज कुमारी और

स्वामी महेश्वरानंद जी के

बाद यद्ध का नेतृत्व

स्वामी बलरामचारी जी ने

अपने

हाथ में ले लिया।

स्वामी बलरामचारी जी ने गांव

गांव

में घूम कर

रामभक्त हिन्दू युवकों और सन्यासियों की एक

मजबूत

सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के

उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये. इन २० हमलों में काम

से

काम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने

जन्मभूमि पर

अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के

लिए रहता था थोड़े दिन बाद

बड़ी शाही फ़ौज

आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के

अधीन

हो जाती थी..जन्मभूमि में लाखों हिन्दू

बलिदान होते

रहे।

उस समय का मुग़ल शासक अकबर था।


शाही सेना हर दिन

के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी..

अतः अकबर ने

बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस

की टाट से उस

चबूतरे पर ३ फीट का एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया.

लगातार युद्ध करते रहने के कारण

स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य

गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर

त्रिवेणी तट पर

स्वामी बलरामचारी की मृत्यु

हो गयी ..

इस प्रकार बार-बार के आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के

रोष एवं हिन्दुस्थान पर

मुगलों की ढीली होती पकड़

से

बचने का एक राजनैतिक प्रयास की अकबर

की इस

कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त

नहीं बहा।


यही क्रम शाहजहाँ के समय

भी चलता रहा। फिर

औरंगजेब के हाथ सत्ता आई वो कट्टर मुसलमान था और

उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये

का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे

मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के

सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़

डाला।


औरंगजेब के हाथ सत्ता आई वो कट्टर मुसलमान था और

उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये

का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे

मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के

सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़

डाला।

औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास

जी महाराज

जी के शिष्य श्री वैष्णवदास

जी ने जन्मभूमि के

उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों मे

अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय

क्षत्रियों ने

पूर्ण सहयोग दिया जिनमे सराय के ठाकुर सरदार

गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह

तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे

वीर ये जानते हुए

भी की उनकी सेना और

हथियार

बादशाही सेना के सामने कुछ

भी नहीं है अपने जीवन के

आखिरी समय तक शाही सेना से

लोहा लेते रहे। लम्बे समय

तक चले इन युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिए

हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और

अयोध्या की धरती पर उनका रक्त

बहता रहा।

ठाकुर गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के

वंशज

आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज

भी फैजाबाद जिले के आस पास के

सूर्यवंशीय क्षत्रिय

सिर पर

पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते,

छता नहीं लगाते, उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये

प्रतिज्ञा ली थी की जब

तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार

नहीं कर लेंगे तब तक

जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे,

पगड़ी नहीं पहनेंगे। 1640

ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर

को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व में एक

जबरजस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव

दास के स




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