नमस्ते जी
गत पाठ में हम द्रव्य का गुण- कर्म से वैधर्म्य अर्थात विशेषता को जानने-समझने का प्रयत्न कर रहे थे; की द्रव्य न तो कारण का वध करता है,और न कार्य का। और न गुण का और न ही अपने समवायिकारण और असमवायिकारण का।
द्रव्यपदवाच्यं वस्तु ( कार्य कारणं च न वधति ) स्वीकार्य स्वान्वयि द्रव्यं कार्यभूतम्।
अर्थात जो भी वाच्य कारण द्रव्य अपने कार्य द्रव्य अर्थात जिन अवयवों से अवयवी कार्य है, उनका और अवयवों का नाश नही करता। तथानुगतगुणं और उनमे स्थित गुण को भी नष्ट नही करता।
अब गुणों का द्रव्य- कर्म से वैधर्म्य अर्थात विशेषता बताते है।
*उभयथा गुणा:।।१३।। ( १-१ )*
गुण में दोनों प्रकार देखे जाते है, अर्थात गुण अपने कार्य और कारण दोनों का नाश कर भी देते है,और नही भी करते। द्रव्य तो कार्य - कारण को नष्ट नही करता यदि गुण भी वैसे होता तो १२ सूत्र में समाविष्ठ कर देते।
यह गुणों में परस्पर साधर्म्य और द्रव्य गुण से वैधर्म्य है।
१) अब हम दृष्टान्त से देखें तो हल्दी और चुना पित, और श्वेत रूप के होते है उनसे जो भी कार्य गुण उत्पन्न होगा वह अपने कारण गुण पित और श्वेत को नष्ट कर देता है।
अब नही करता का देखें।
२) श्वेत तन्तु से वस्त्र बना; इसमें तन्तु में स्थित श्वेत रूप कारण गुण और उन तन्तु से बना वस्त्र में श्वेत रूप कार्यगुण।
अब यह वस्त्र में स्थित कार्यगुण अपने कार्यगुण को नाश नही करता।
तो यंहा कार्य से कारण का नष्ट होते हुए भी देखा गया और न होते हुए भी देखा।
अब कार्यगुण अपने कारण गुण का वध करते हुए देखेंगे।
१) आद्य: शब्द: कारणभूत: स्वानन्तरं कार्य न हन्ति, संयोगाजजायमान: शब्द: स्वकारणास्य संयोगस्य स्थितत्वान्नश्यति हि।।
अर्थात जो आरम्भ का शब्द संयोग आदि से उत्पन्न होकर आगे उत्पन्न होने वाले शब्द का कारण होता है, इसी प्रकार कारणभूत प्रथम शब्द, कार्यभूत अपने अनन्तर उत्पन्न हुए शब्द को नष्ट नही करता। किन्तु संयोग से उत्पन्न होने वाला कार्यरूप शब्द जब शब्द सन्तति से उत्पन्न होते होते जो अन्तिम शब्द होता है वह उपान्त्य अर्थात अन्तिम से पहले शब्द का नाश कर देता है। अर्थात दोनों एक दूसरे का नाश कर देते है।
इससे ज्ञात होता है,की गुण दोनों प्रकार के है, कार्यगुण अपने कारण का वध करता भी है,और नही भी करता; कारण गुण अपने कार्य का वध करता भी है,और नही भी करता।
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