नमस्ते जी
यंहा हम आकाश में निष्क्रमण प्रवेशन लिङ्ग आकाश के समवायिकारण व असमवायिकारण को लेकर आशंका कर रहे थे; तो यंहा हमने गत सूत्रों के माध्यम से जाना था कि विभु द्रव्यों में क्रिया नही होती और चेतन आत्मा में की भी अपनी स्वयं की क्रिया नही है तो फिर हम उसे द्रव्य कैसे जाने ?
तो क्रियावान में एक तो जिसकी क्रिया हो वह क्रियावान है, और जिसमें क्रिया हो वह भी क्रियावान है इस नियम से आकाश भी क्रियावान है।
जैसे मोटरगाड़ी की अपनी स्वयं की क्रिया नही किन्तु उनमें क्रिया है, परमात्मा में क्रिया नही किन्तु परमात्मा की क्रिया है, अथवा ऐसे जाने परमात्मा क्रिया होना सम्भव नही क्योंकि परमात्मा विभु होने से न तो वह स्वयं क्रिया कर सकता है, और न उसमें क्रिया करवाई जा सकती है, क्योंकि जिस किसी द्रव्य में क्रिया होती तब वह द्रव्य देशान्तर को प्राप्त होता है, अर्थात किसी एक निश्चिन्त स्थान से दूसरे निश्चिन्त स्थान पर गमन होने को क्रिया कहते है, चाहे स्थान की दूरी शर के बाल की नोक के बराबर हो।
किन्तु परमात्मा में वह भी सम्भव नही क्योंकि वह सर्वत्र व्यापक होने से परमात्मा में क्रिया न होकर परमात्मा की प्रेरणा से अन्य द्रव्यों को क्रिया कराने में समर्थ है।
वैसे ही आकाश, काल, और दिशा *में* क्रिया होती है, न कि आकाश, दिक्, काल *की* क्रिया ऐसा जानना चाहिए।
अब जब *में* क्रिया हो तो अन्य द्रव्य *की* क्रिया है, जिसका जितना सामर्थ्य होगा उतने काल तक क्रिया होगी तद्पश्चात; अर्थात जब तक कोई अवरोधक सामने नही आता, वंहा कारणों की अक्षमता क्रिया की समाप्ति का हेतु होता है।
हाथ से या बन्दूक से फेंके जाने की क्षमता सीमित होती है। उसके रहने तक क्रिया होती रहेगी न रहने पर समाप्त हो जाती है।
कार्य के अनेक कारणों में से जिस कारण के भाव का प्रभाव, व संयोग नही रहता अर्थात अक्षम हो जाता है, तो वह कार्य नही रहता।
आकाश या कोई अन्य असमग्र कारण न तो कार्य के आरम्भक है, और न ही उसे सुरक्षित रखने के आश्रय है।
अर्थात आकाश न तो कार्य को उत्पन करता है, और न ही सुरक्षित रख सकता है।
तो यंहा केवल आकाश को लेकर यह आशंका उठाई जाती है, की उसके कारण मानने पर अर्थात आकाश के रहने पर क्रियानिरन्तर बनी रहनी चाहिए; पर जिस द्रव्य में क्रिया समवेत है, उसके बने रहने पर जब तक वह बना रहे; क्रिया निरन्तर क्यों नही होती रहती ?
तो स्पष्ट है, की अन्य किसी कारणों की अक्षमता क्रिया को समाप्त कर देती है।
अतः निष्क्रमणादि क्रियाओं का आकाश निमित्तकारण है, उसी रूप में यह आकाश के लिङ्ग है।
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