नमस्ते जी
आज हम द्रव्य के पश्चात गुण के लक्षण सूत्र के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे।
जिसे गुण का गुणों से साधर्म्य और द्रव्य गुण से वैधर्म्य भी कह सकते है। अर्थात समानता और विशेषता।
*द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोग विभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्।।१६।।(१-१)*
सूत्र में जो पदों को समास में बताया गया है,उन्हें समास से पदों में विच्छेद करके देखेंगे तो सूत्र इसप्रकार बनेगा।
*द्रव्याश्रयी, अगुणवान, संयोगविभागेषु,अकारणम् अनपेक्ष: इति गुणलक्षणम्।।*
सूत्र ऐसे विचित्र होते है, की उनको समझने के लिए पुर्णतः एकाग्रता बनानी पड़े।
हमने गत पाठ में देखा कि, किसी भी पदार्थ के लक्षण को किस प्रकार से निर्दुष्ट लक्षित किया जाता है।
हमने देखा कि यदी चिह्नित किया गया लक्षण; अव्याप्त,अतिव्याप्ति और असम्भव दोषों से रहित हो तो वह उद्देशित पदार्थ ही होगा।
जैसे गाय के लक्षण में बताया कि, सिंग वाली हो वह गाय होती है,ऐसा लक्षण बताने से अतिव्याप्ति हो रही थी,क्योंकि सिंग तो भैंस और बकरी के भी होते है,तो यहां लक्षण दूषित हुआ।
फिर कहा स्वर्ण वर्ण की हो वह गाय है,तो यंहा अव्याप्त दोष हुआ क्योंकि गाय तो काली और सफेद (धोली ) भी होती है। फिर कहा एक्शफ वाली हो अर्थात बीच में से खुर फटा हुआ न हो तो यंहा असम्भव दोष हुआ।
कुल मिलाकर सार यह निकला कि उक्त तीनों दोषों से रहित असाधारण धर्म का नाम *लक्षण* है।
अब विषय के साथ जुड़तें हुए, जो जो लक्षण गुण के लिए चिह्नित किये गए उन्हें एक एक करके देखते चले।
प्रथम लक्षण बताया कि १)द्रव्याश्रयी= अर्थात जो द्रव्य के आश्रित हो और द्रव्य जिनका आधार हो वह गुण है।
ऐसा कहने से अतिव्याप्ति दोष आता है,क्योंकि कार्यद्रव्य,और कर्म भी तो द्रव्याश्रित रहते है।
तब ऐसा लक्षण क्यों कहा ? तो यंहा कारणद्रव्य को कार्यद्रव्य, गुण, और कर्म से हटाने के लिए कहा कि *द्रव्याश्रयी* अर्थात कारणद्रव्य किसी अन्य द्रव्य के आश्रित नही रहता;प्रत्युत अन्य कार्यद्रव्य,गुण,कर्मादि का आधार है।
यह चाहे हम वैशेषिक की मान्यता के आधार पर परमाणु में देखें या सांख्य की दृष्टि से सत्व,रजस,तम पर्यन्त देखें।
केवल द्रव्याश्रयी इतना कहने पर गुण का लक्षण नही होगा क्योंकि द्रव्य में तो कार्यद्रव्य,और कर्म भी रहते है। तो अतिव्याप्ति अब भी बनी हुई है उसे हटाने के लिए दूसरा लक्षण कहा *अगुणवान*=गुण में गुण नही रहता ऐसा कहकर कार्यद्रव्य को भी हटा दिया। क्योंकि कार्यद्रव्य में गुण रहते है,प्रत्युत गुण में गुण न रहने से कार्यद्रव्य जो द्रव्यआश्रित होते हुए अतिव्याप्ति दोष में आता था, वंहा से अगुणवान कहकर हटा दिया।
कोई भी कार्यद्रव्य में जो गुण कारण द्रव्य में होते है, वही गुण व अन्य गुण कार्यद्रव्य में होने से वह गुणवान है अर्थात गुणवाला है,जबकि गुण में गुण नही रहते इसलिए वंहा लक्षण किया अगुणवान।
अब कारणद्रव्य और कार्यद्रव्य दोनों हट गए,द्रव्याश्रयी से कारणद्रव्य हट गया कारणद्रव्य आश्रित नही होता अपितु आधार होता है। और अगुणवान कहकर कार्यद्रव्य को भी हटा दिया। अर्थात समवाय सम्बन्ध से गुण न रहते हो, वह गुण होता है। गुण में समवाय से गुण नही रहता;अपितु कार्यद्रव्य में गुण रहता है; अतः कार्यद्रव्य द्रव्याश्रयी होता हुआ भी अगुणवान् अर्थात गुणों का अनाश्रय नही है,प्रत्युत गुणों का आश्रय है।
जैसे तन्तु में स्थित रूपगुण वस्त्र के रूपगुण का कार्य है,न कि रूपका आश्रय क्योंकि गुण में गुण नही रहता।
इसप्रकार द्रव्याश्रयी,अगुणवान कहकर कारण,और कार्यद्रव्य को तो हटाया, तब भी कर्म से तो अतिव्याप्ति बनी हुई है।
क्योंकि कर्म भी द्रव्याश्रयी होता है,और कर्म में भी गुण नही रहते।
क्रमशः
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