विद्या विघ्न से रोगी और मूर्ख
जो विद्या पढ़ने पढ़ाने के विघ्न हैं उनको छोड़ देवे, जैसे कुसंग अर्थात् दुष्ट विषयी जनों का संग, दुष्ट व्यसन जैसा मद्यादि सेवन और वेश्यागमनादि, बाल्यावस्था में विवाह अर्थात् पच्चीसवें वर्ष से पुरुष और सोलहवें वर्ष से पूर्व स्त्री का विवाह हो जाना, पूर्ण ब्रह्मचर्य न होना, राजा, माता-पिता और विद्यानों का प्रेम वेदादि शास्त्रों के प्रचार में न होना, अति भोजन, अति जागरण करना, पढ़ने-पढ़ाने, परीक्षा लेने वा देने में आलस्य वा कपट करना, सर्वोपरी विद्या का लाभ न समझना, ब्रह्मचर्य से बल, बुद्धि, पराक्रम आरोग्य, राज्य, धन की वृद्धि न मानना, ईश्वर का ध्यान छोड़ अन्य पाषाणादि जड़ मूर्ति के दर्शन-पूजन में व्यर्थ काल खोना, माता-पिता, आचार्य और अतिथि इनको विद्वान और सत्यमूर्ति मानकर सेवा-सत्संग न करना, वर्णाश्रम के धर्म छोड़ ऊर्ध्वपुण्ड्र, त्रिपुण्ड, तिलक, कण्ठी, मालाधारण, एकादशी, त्रयोदशी आदि व्रत करना, काशी आदि तीर्थ और राम, कृष्ण, नारायण, शिव, भगवती, गणेश आदि के नामस्मरण से पाप दूर होने का विश्वास, पाखण्डियों के उपदेश से विद्या पढ़ने में अश्रद्धा का होना, विद्या, धर्म योग, परमेश्वर की उपासना के बिना मिथ्या पुराण नामक भागवतादि की कथादि से मुक्ति का मानना, लोभ से धनादि में प्रवृत्त होकर विद्या में प्रीति न रखना, इधर-उधर व्यर्थ घूमते रहना इत्यादि मिथ्या व्यवहारों में फंस के ब्रह्मचर्य और विद्या के लाभ से रहित होकर रोगी और मूर्ख बने रहते हैं।
-महर्षि दयानन्द सरस्वती
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