स्मरणांजलि
ऋषि तुम आज के दिन चले गए !
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- भावेश मेरजा
135 वर्ष पूर्व आज के ही दिन आर्य समाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानन्द जी का अजमेर में देहावसान हुआ था – 30 अक्टूबर 1883, मंगलवार, दीपावली के पर्व की सन्ध्या काल की वेला।
जीवनचरितों के मतानुसार देहावसान के लगभग एक मास पूर्व 29 सितम्बर को स्वामी जी को उनके किसी एक पाचक ने – जिसका नाम धौड़मिश्र (जगन्नाथ नहीं) बताया जाता है जो शाहपुरा के नरेश ने उनकी सेवा में नियुक्त किया था – उसने दूध में विष दे दिया।
उसी रात को कष्ट होने पर स्वामी जी ने अपने अनुभव के आधार पर स्व-चिकित्सा की। पता नहीं, वे तुरन्त जान गए थे या नहीं कि उन्हें विष दिया गया है। दो दिनों से उनका स्वास्थ्य जुकाम या प्रतिश्याय के कारण वैसे भी कुछ ठीक नहीं चल रहा था।
दूसरे दिन से डॉ. सूरजमल की चिकित्सा आरम्भ हुई और तत्पश्चात् उसी दिन से डॉ. अलीमर्दान खां ने उपचार आरम्भ किया। डॉ. अलीमर्दान खां को बुलाना ठीक नहीं रहा। यहां स्वामी जी का कोई ऐसा हितैषी भी नहीं था जो सजगता का परिचय देता हुआ कुछ आवश्यक हस्तक्षेप करता।
डॉ. अलीमर्दान खां के द्वारा की गई चिकित्सा ने स्वामी जी को लगभग समाप्त-सा कर दिया। दो सप्ताह की इस विचित्र चिकित्सा से हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, केवल बिगाड़ ही होता चला गया। क्या किया जाए? अन्त में डॉ. अलीमर्दान ने डॉ. एडम से कुछ विमर्श कर स्वास्थ्य लाभ के लिए स्वामी जी को आबू पर्वत ले जाने का सुझाव दिया। स्वामी जी स्वयं इसके लिए कितने उद्यत थे, कुछ कह नहीं सकते। वे तो सम्भवतः मसूदा जाना चाहते थे।
स्वामी जी को आबू ले गए। इस यात्रा ने लगभग 5-6 दिन लिये होंगे। वहां के डॉ. लक्ष्मणदास के इलाज से कुछ लाभ के संकेत दिखाई दिए। परन्तु फिर नयी विपदा आई। इस भक्त डॉक्टर का स्थानान्तर अजमेर कर दिया गया। स्वामी जी को इस चिन्तनीय हालत में छोड़कर अजमेर जाने का मन नहीं था डॉ. लक्ष्मणदास का। त्यागपत्र तक लिख दिया उन्होंने, परन्तु स्वामी जी ने उसे फाड़ दिया।
डॉ. लक्ष्मणदास अजमेर आ गए। स्वामी जी आबू पर मात्र 6 दिन ही रहे होंगे । डॉ. लक्ष्मणदास से चिकित्सा कराने के उद्देश्य से स्वामी जी को भी अजमेर ले जाया गया। 27 अक्टूबर को स्वामी जी अजमेर पहुंचे। स्थिति भयावह थी।
ऐसी भीषण अवस्था में स्वामी जी को लगभग दस दिनों के अन्दर छः सौ किलोमीटर से अधिक की यात्रा रेल तथा पालकी के द्वारा करनी पड़ी। इसमें कितना कष्ट हुआ होगा उन्हें ! वे सब कुछ सहते रहे।
अजमेर में चिकित्सा की गई परन्तु कुछ फलदायी नहीं रही। 30 अक्टूबर का अन्तिम दिन आ ही गया। अपने कुछ अनुयायिओं तथा भक्तजनों की उपस्थिति में ध्यानस्थ होकर पुलकित भाव के साथ ईश्वर का स्मरण करते हुए और उसकी करुणामय व्यवस्था को विनम्र भाव से नतमस्तक होते हुए उन्होंने अपनी आखरी सांस ली। स्थान था - अजमेर की भिनाय कोठी। टंकारा का मूलशंकर दयानन्द सरस्वती के नाम से जगविख्यात होकर अपनी यात्रा का यहीं पर समापन कर आगे चल दिया।
प्रतिवर्ष आज के दिन का सन्ध्या काल हमारे जैसे सामान्य व्यक्तिओं के मन में कुछ शोक के भाव जगा ही जाता है।
वे चले गए, परन्तु हमारे लिए, समस्त मानवता के लिए कितनी अमूल्य विचार सम्पदा छोड़ गए हैं !
हमें उनके अपूर्व योगदान के स्वयं लाभान्वित होना है और अन्यों को भी इससे लाभ पहुंचाना है। यही बोध पाठ है हमारे लिए महर्षि दयानन्द के इस बलिदान दिवस का !
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