*देवयज्ञ*—जो अग्निहोत्र और विद्वानों का संग सेवादिक से होता है। *सन्ध्या और अग्निहोत्र सायं प्रातः दो ही काल में करे। दो ही रात दिन की सन्धिवेला हैं, अन्य नहीं*। यथा *सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त के पूर्व अग्निहोत्र करने का भी समय है*। उसके लिए एक किसी धातु वा मिट्टी की ऊपर 12 वा 16 अंगुल चौकोर उतनी ही गहिरी और नीचे 3 वा 4 अंगुल परिमाण से वेदी इस प्रकार बनावे अर्थात् ऊपर जितनी चौड़ी हो उसकी चतुर्थांश नीचे चौड़ी रहे।
उसमें चन्दन पलाश वा आम्रादि के श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े उसी वेदी के परिमाण से बड़े छोटे करके उस में रक्खे, उसके मध्य में अग्नि रखके पुनः उस पर समिधा अर्थात् पूर्वोक्त इन्धन रख दे। प्रोक्षणीपात्र, प्रणीतापात्र, आज्यस्थाली अर्थात् घृत रखने का पात्र और चमसा (स्रुवा) सोने, चांदी वा काष्ठ का बनवा के प्रणीता और प्रोक्षणी में जल तथा घृतपात्र में घृत रख के घृत को तपा लेवे। प्रणीता जल रखने और प्रोक्षणी इसलिये है कि उस से हाथ धोने को जल लेना सुगम है। पश्चात् उस घी को अच्छे प्रकार देख लेवे फिर मन्त्र से होम करें।
*अग्निहोत्र का वेदों में प्रमाण*:
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन॥1॥ -य॰ अ॰ 3। मं॰ 1॥
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ2॥ आ सादयादिह॥2॥ -य॰ अ॰ 22। मं॰ 17॥
सायं सायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधि वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम॥3॥
प्रातः प्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायं सायं सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतं हिमा ऋधेम॥4॥
-अथर्व॰ कां॰ 19। अनु॰ 7। मं॰ 3। 4॥
*अर्थात्* (समिधाग्निं॰) हे मनुष्यो! तुम लोग वायु, औषधी और वर्षाजल की शुद्धि से सब के उपकार के अर्थ घृतादि शुद्ध वस्तुओं और समिधा अर्थात् आम्र वा ढाक आदि काष्ठों से अतिथिरूप अग्नि को नित्य प्रकाशमान करो। फिर उस अग्नि में होम करने के योग्य पुष्ट, मधुर, सुगन्धित अर्थात् दुग्ध, घृत, शर्करा, गुड़, केशर, कस्तूरी आदि और रोगनाशक जो सोमलता आदि सब प्रकार से शुद्ध द्रव्य हैं, उन का अच्छी प्रकार नित्य अग्निहोत्र करके सब का उपकार करो॥1॥
(*अग्निं दूतं॰*) अग्निहोत्र करनेवाला मनुष्य ऐसी इच्छा करे, कि मैं प्राणियों के उपकार करने वाले पदार्थों को पवन और मेघमण्डल में पहुंचाने के लिए अग्नि को सेवक की नाईं अपने सामने स्थापना करता हूं। क्योंकि वह अग्नि हव्य अर्थात् होम करने के योग्य वस्तुओं को अन्य देश में पहुंचानेवाला है। इसी से उसका नाम ‘हव्यवाट्’ है। जो उस अग्निहोत्र को जानना चाहैं, उन को मैं उपदेश करता हूं कि वह अग्नि उस अग्निहोत्र कर्म से पवन और वर्षाजल की शुद्धि से (इह) इस संसार में (देवां) श्रेष्ठ गुणों को पहुंचाता है।
*दूसरा अर्थ* - हे सब प्राणियों को सत्य उपदेशकारक परमेश्वर! जो कि आप अग्नि नाम से प्रसिद्ध हैं, मैं इच्छापूर्वक आप को उपासना करने के योग्य मानता हूं। ऐसी कृपा करो कि आप को जानने की इच्छा करनेवालों के लिये भी मैं आप का शुभगुणयुक्त विशेषज्ञानदायक उपदेश करूं। तथा आप भी कृपा करके इस संसार में श्रेष्ठ गुणों को पहुंचावें॥2॥
(*सायंसायं॰*) प्रतिदिन प्रातःकाल श्रेष्ठ उपासना को प्राप्त यह गृहपति अर्थात् घर और आत्मा का रक्षक भौतिक अग्नि और परमेश्वर, (सौमनसस्य दाता) आरोग्य, आनन्द और वसु अर्थात् धन का देने वाला है। इसी से परमेश्वर (वसुदानः) अर्थात् धनदाता प्रसिद्ध है। हे परमेश्वर! आप मेरे राज्य आदि व्यवहार और चित्त में सदा प्रकाशित रहो। यहां भौतिक अग्नि भी ग्रहण करने के योग्य है। (वयं त्वे॰) हे परमेश्वर जैसे पूर्वोक्त प्रकार से हम आप को मान करते हुए अपने शरीर से (पुषेम) पुष्ट होते हैं, वैसे ही भौतिक अग्नि को भी प्रज्वलित करते हुए पुष्ट हों॥3॥
(*प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो॰*) इस मन्त्र का अर्थ पूर्व मन्त्र के तुल्य जानो। परन्तु इस में इतना विशेष भी है कि-अग्निहोत्र और ईश्वर की उपासना करते हुए हम लोग (शतहिमाः) सौ हेमन्त ऋतु व्यतीत हो जाने पर्य्यन्त, अर्थात् सौ वर्ष तक, धनादि पदार्थों से (ऋधेम) वृद्धि को प्राप्त हों॥4॥
अग्निहोत्र करने के लिये, ताम्र या मिट्टी की वेदी बना के काष्ठ, चांदी वा सोने का चमसा अर्थात् अग्नि में पदार्थ डालने का पात्र और आज्यस्थाली अर्थात् घृतादि पदार्थ रखने का पात्र लेके, उस वेदी में ढांक वा आम्र आदि वृक्षों की समिधा स्थापन करके, अग्नि को प्रज्वलित करके, पूर्वोक्त पदार्थों का प्रातःकाल और सायंकाल अथवा प्रातःकाल ही नित्य होम करें।
*अथाग्निहोत्रे होमकरणमन्त्राः* -
सूर्य्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्य्यः स्वाहा॥1॥ सूर्यो वर्च्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा॥2॥
ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योति: स्वाहा॥3॥ सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या। जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा॥4॥
-इति प्रातःकालमन्त्राः॥
अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा॥1॥ अग्निर्वर्च्चोज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा॥2॥
अग्निर्ज्योतिरिति मन्त्रं मनसोच्चार्य्य तृतीयाहुतिर्देया॥3॥
सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या। जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा॥4॥
- इति सायङ्कालमन्त्राः। य॰ अ॰ 3। मं॰ 9-10॥
*भाषार्थ* - (सूर्य्यो ज्यो॰) जो चराचर का आत्मा, प्रकाशस्वरूप और सूर्य्यादि प्रकाशक लोकों का भी प्रकाश करनेवाला है, उस की प्रसन्नता के लिये हम लोग होम करते हैं॥1॥
(सूर्यो वर्च्चो॰) सूर्य जो परमेश्वर है, वह हम लोगों को सब विद्याओं का देने वाला और हम से उन का प्रचार कराने वाला है, उसी के अनुग्रह से हम लोग अग्निहोत्र करते हैं॥2॥
(ज्योतिः सू॰) जो आप प्रकाशमान और जगत् का प्रकाश करनेवाला सूर्य अर्थात् संसार का ईश्वर है, उस की प्रसन्नता के अर्थ हम लोग होम करते हैं॥3॥
(सजूर्देवेन॰) जो परमेश्वर सूर्य्यादि लोकों में व्याप्त, वायु और दिन के साथ संसार का परमहितकारक है, वह हम लोगों को विदित होकर हमारे किये हुए होम को ग्रहण करे॥4॥
इन चार आहुतियों से प्रातःकाल अग्निहोत्री लोग होम करते हैं।
अब सायङ्काल की आहुति के मन्त्र कहते हैं-(अग्निर्ज्यो॰) अग्नि जो ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर है, उस की आज्ञा से हम लोग परोपकार के लिए होम करते हैं। और उस का रचा हुआ यह भौतिक अग्नि इसलिये है कि वह उन द्रव्यों को परमाणुरूप कर के वायु और वर्षाजल के साथ मिला के शुद्ध कर दे। जिस से सब संसार को सुख और आरोग्यता की वृद्धि हो॥1॥
(अग्निर्वर्च्चो॰) अग्नि परमेश्वर वर्च्च अर्थात् सब विद्याओं का देनेवाला, और भौतिक अग्नि आरोग्यता और बुद्धि का बढ़ानेवाला है। इसलिये हम लोग होम से परमेश्वर की प्रार्थना करते हैं।
यह दूसरी आहुति है॥
तीसरी मौन होके प्रथम मन्त्र से करनी।
और चौथी (सजूर्देवेन॰) जो अग्नि परमेश्वर सूर्यादि लोकों में व्याप्त, वायु और रात्रि के साथ संसार का परमहितकारक है, वह हम को विदित होकर हमारे किये हुए होम का ग्रहण करे।
*अथोभयोः कालयोरग्निहोत्रे होमकरणार्थाः समानमन्त्राः* -
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा॥1॥
ओं भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा॥2॥
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा॥3॥
ओं भूर्भुवःस्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा॥4॥
ओमापो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवःस्वरों स्वाहा॥5॥
ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा॥6॥
*भाषार्थ* - इन मन्त्रों में जो भूः इत्यादि नाम हैं, वे सब ईश्वर के ही जानो। गायत्री मन्त्र के अर्थ में इन के अर्थ कर दिये हैं।
इस प्रकार प्रातःकाल और सायङ्काल सन्ध्योपासना के पीछे उक्त मन्त्रों से होम करके अधिक होम करने की इच्छा हो तो, ’*स्वाहा*’ शब्द अन्त में पढ़ कर गायत्री मन्त्र से करे। जिस कर्म में अग्नि वा परमेश्वर के लिये, जल और पवन की शुद्धि वा ईश्वर की आज्ञापालन के अर्थ, होत्र = हवन अर्थात् दान करते हैं, उसे ’*अग्निहोत्र*’ कहते हैं। जो जो केशर, कस्तूरी आदि *सुगन्धि*, घृत दुग्ध आदि *पुष्ट*, गुड़ शर्करा आदि *मिष्ट*, बुद्धि बल तथा धैर्य्यवर्धक और *रोगनाशक* पदार्थ हैं, उन का होम करने से पवन और वर्षाजल की शुद्धि से पृथिवी के सब पदार्थों की जो अत्यन्त उत्तमता होती है, उसी से सब जीवों को परम सुख होता है। इस कारण अग्निहोत्र करनेवाले मनुष्यों को उस उपकार से अत्यन्त सुख का लाभ होता है, और ईश्वर उन पर अनुग्रह करता है। ऐसे ऐसे लाभों के अर्थ अग्निहोत्र का करना अवश्य उचित है।
*स्वाहा का अर्थ*
*स्वाहाकृतय: स्वाहा इति एतत् सु आहेति वा, स्वा वागाहेति वा, स्वं प्राहेति वा, स्वाहुतं हविर्जुहोतीति वा तासामेषा भवति* - _निरुक्त अध्याय-8, खण्ड-20_
*अर्थ*: _यास्काचार्य निरुक्त में_ *स्वाहा* का निम्नलिखित अर्थ बताते हैं:
१) *सु आहेति वा* : अच्छा, मीठा, कल्याणकारी, प्रिय वचन बोलना चाहिए
२) *स्वा वागाहेति वा*: जैसी बात ज्ञान में वर्त्तमान हो, वैसी सत्य बात ही बोलना चाहिए
३) *स्वं प्राहेति वा*: अपने पदार्थ को ही अपना कहना चाहिए
४) *स्वाहुतं हविर्जुहोतीति वा*: सुगन्धित, मीठे, पुष्टिकारक और औषधीय द्रव्यों का हवन करना चाहिए.
॥इत्यग्निहोत्रविधिः समाप्तः॥
जैसे परमेश्वर ने सब प्राणियों से सुख के अर्थ इस सब जगत् के पदार्थ रचे हैं वैसे मनुष्यों को भी परोपकार करना चाहिये।
*(प्रश्न) होम से क्या उपकार होता है?*
(उत्तर) सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।
*(प्रश्न) चन्दनादि घिस के किसी को लगावे वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो। अग्नि में डाल के व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं।*
(उत्तर) जो तुम पदार्थविद्या जानते तो कभी ऐसी बात न कहते। क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता। देखो! जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।
*(प्रश्न) जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और अतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा।*
(उत्तर) उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके क्योंकि उस में भेदक शक्ति नहीं है और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकाल कर पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।
*(प्रश्न) तो मन्त्र पढ़ के होम करने का क्या प्रयोजन है?*
(उत्तर) मन्त्रों में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने में लाभ विदित हो जायें और मन्त्रों की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहें। वेदपुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षा भी होवे।
*(प्रश्न) क्या इस होम करने के विना पाप होता है?*
(उत्तर) हां! क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध वा उससे अधिक वायु और जल में फैलाना चाहिये। और खिलाने पिलाने से उसी एक व्यक्ति को सुख विशेष होता है। जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है परन्तु जो मनुष्य लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खावें तो उन के शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके, इस से अच्छे पदार्थ खिलाना पिलाना भी चाहिये परन्तु उससे होम अधिक करना उचित है इसलिए होम का करना अत्यावश्यक है।
*(प्रश्न) प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है?*
(उत्तर) प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिये और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था,अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाय। ये दो यज्ञ अर्थात् ब्रह्मयज्ञ जो पढ़ना-पढ़ाना सन्ध्योपासन ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करना, दूसरा देवयज्ञ जो अग्निहोत्र से ले के अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ और विद्वानों की सेवा संग करना परन्तु ब्रह्मचर्य में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र का ही करना होता है।
*मनुस्मृति में देवयज्ञ का प्रमाण*:
*स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः*॥- मनुस्मृति २.२८॥
अर्थ— (स्वाध्याय) सकल विद्या पढ़ते-पढ़ाते (व्रत) ब्रह्मचर्य सत्यभाषणादि नियम पालने (होम) अग्निहोत्रादि होम, सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग और सत्य विद्याओं का दान देने (त्रैविद्येन) वेदस्थ कर्मोपासना ज्ञान विद्या के ग्रहण (इज्यया) पक्षेष्ट्यादि करने (सुतैः) सुसन्तानोत्पत्ति (*महायज्ञैः*) ब्रह्म, देव, पितृ, वैश्वदेव और अतिथियों के सेवनरूप पञ्चमहायज्ञ और (*यज्ञैः*) अग्निष्टोमादि तथा शिल्पविद्याविज्ञानादि यज्ञों के सेवन से इस शरीर को ब्राह्मी अर्थात् वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधाररूप ब्राह्मण का शरीर बनता है। इतने साधनों के विना ब्राह्मणशरीर नहीं बन सकता।
*वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च। न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्*॥मनु॰ २.९७॥
जो दुष्टाचारी-अजितेन्द्रिय पुरुष हैं उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को नहीं प्राप्त होते।
from Tumblr http://ift.tt/2amdBuN
via IFTTT
No comments:
Post a Comment