कारगिल विजय दिवस के अवसर पर मेरी विनम्र प्रस्तुति:
मैं केशव का पाञ्चजन्य भी गहन मौन मे खोया हूँ
उन बेटों को श्रद्धान्जलियाँ लिखते-लिखते रोया हूँ
जिस माथे की कुमकुम बिन्दी वापस लौट नहीं पाई
चुटकी, नथ, पाजेब ले गई कुर्बानी की अमराई
बहनों की राखियाँ जल गई हैं बर्फीली घाटी मे
वेदी के गठबन्धन खोये हैं कारगिल की माटी मे
पर्वत पर कितने सिन्दूरी सपने दफन हुए होंगें
बीस बसंतों के मधुमासी जीवन हवन हुए होंगें
टूटी चूड़ी, धुला महावर, रूठा कंगन हाथों का
कोइ मोल नहीं हो सकता वासन्ती जज्बातों का
जो पहले-पहले चुम्बन के बाद लाम पर चला गया
नयी दुल्हन की सेज छोड़कर युद्ध-काम पर चला गया
उनको भी मीठी यादों की करवट याद रही होगी
खुशबू मे भीगी यादों की सलवट याद रही होगी
उन आँखों की दो बूंदों से सातों सागर हारे हैं
जब मेंहदी वाले हाथों ने मंगलसूत्र उतारे हैं
गीली मेंहदी रोई होगी छुपकर घर के कोने में
ताजा काजल छोटा होगा चुपके-चुपके रोने में
जब बेटे की अर्थी आई होगी सूने आँगन में
शायद दूध उतर आया हो बूढी माँ के दामन में
वह विधवा पूरी दुनिया का बोझा सिर ले सकती है
जो अपने पति की अर्थी को भी कंधा दे सकती है
मै ऐसी हर देवी के चरणों में शीश झुकाता हूँ
इसीलिए मैं कविता को हथियार बनाकर गाता हूँ
जिन बेटों ने पर्वत काटे हैं अपने नाखूनों से
उनकी कोई चाह नहीं है दिल्ली के कानूनों से
जो सैनिक सीमा रेखा पर ध्रुव तारा बन जाता है
उस कुर्बानी के दीपक से सूरज भी शरमाता है
गर्म दहानों पर तोपों के जो सीने अड़ जाते हैं
उनकी गाथा लिखने को अम्बर छोटे पड़ जाते हैं
उनके लिए हिमालय कंधा देने को झुक जाता है
चन्द घड़ी सागर की लहरों का गर्जन रुक जाता है
उस सैनिक के शव का दर्शन तीरथ-जैसा होता है
चित्र शहीदों का मन्दिर की मूरत जैसा होता है।
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