Sunday, July 31, 2016

*अब पांचवीं अतिथिसेवा*—अतिथि उस को कहते हैं कि जिस की कोई तिथि निश्चित न हो अर्थात् अकस्मात्...

*अब पांचवीं अतिथिसेवा*—अतिथि उस को कहते हैं कि जिस की कोई तिथि निश्चित न हो अर्थात् अकस्मात् धार्मिक, सत्योपदेशक, सब के उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला, पूर्ण विद्वान्, परमयोगी, संन्यासी गृहस्थ के यहां आवे तो उस को प्रथम पाद्य, अर्घ और आचमनीय तीन प्रकार का जल देकर, पश्चात् आसन पर सत्कारपूर्वक बिठाकर, खान, पान आदि उत्तमोत्तम पदार्थों से सेवा शुश्रूषा कर के, उन को प्रसन्न करे। पश्चात् सत्सङ्ग कर उन से ज्ञान विज्ञान आदि जिन से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होवे ऐसे-ऐसे उपदेशों का श्रवण करे और चाल चलन भी उनके सदुपदेशानुसार रक्खे। समय पाके गृहस्थ और राजादि भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य हैं। परन्तु—
*पाषण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालवृत्तिकान् शठान्। हैतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥* मनुस्मृति ४.३०॥
(पाषण्डी) अर्थात् वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करनेहारे (विकर्मस्थ) जो वेदविरुद्ध कर्म का कर्त्ता मिथ्याभाषणादि युक्त, वैडालवृत्तिक जैसे विड़ाला छिप और स्थिर होकर ताकता-ताकता झपट से मूषे आदि प्राणियों को मार अपना पेट भरता है वैसे जनों का नाम वैडालवृत्ति, (शठ) अर्थात् हठी, दुराग्रही, अभिमानी, आप जानें नहीं, औरों का कहा मानें नहीं, (हैतुक) कुतर्की व्यर्थ बकने वाले जैसे कि आजकल के वेदान्ती बकते हैं ‘हम ब्रह्म और जगत् मिथ्या है वेदादि शास्त्र और ईश्वर भी कल्पित हैं’ इत्यादि गपोड़ा हांकने वाले (वकवृत्ति) जैसे वक एक पैर उठा ध्यानावस्थित के समान होकर झट मच्छी के प्राण हरके अपना स्वार्थ सिद्ध करता है वैसे आजकल के वैरागी और खाखी आदि हठी दुराग्रही वेदविरोधी हैं, ऐसों का सत्कार वाणीमात्र से भी न करना चाहिये। क्योंकि इनका सत्कार करने से ये वृद्धि को पाकर संसार को अधर्मयुक्त करते हैं। आप तो अवनति के काम करते ही हैं परन्तु साथ में सेवक को भी अविद्यारूपी महासागर में डुबा देते हैं।

*अतिथियज्ञ का वेद में प्रमाण*:
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्॥1॥
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावात्सीर्व्रात्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथास्त्विति॥2॥
-अथ॰ कां॰ 15। अनु॰ 2। व॰ 11। मं॰ 1। 2॥
*भाषार्थ* - अब पांचवां अतिथियज्ञ अर्थात् जिस में अतिथियों की यथावत् सेवा करनी होती है, उस को लिखते हैं। जो मनुष्य पूर्ण विद्वान्, परोपकारी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, सत्यवादी, छल कपट रहित और नित्य भ्रमण करके विद्या धर्म का प्रचार और अविद्या अधर्म की निवृत्ति सदा करते रहते हैं, उन को ‘अतिथि’ कहते हैं। इस में वेदमन्त्रों के अनेक प्रमाण हैं। परन्तु उन में से दो मन्त्र यहां भी लिखते हैं-

(*तद्यस्यैवं विद्वान्*) जिस के घर में पूर्वोक्त विशेषणयुक्त (व्रात्य॰) उत्तमगुणसहित सेवा करने के योग्य विद्वान् आवे, तो उस की यथावत् सेवा करें और 'अतिथि’ वह कहाता है कि जिस के आने जाने की कोई तिथि दिन निश्चित न हो॥1॥

(*स्वयमेनम*॰) गृहस्थ लोग ऐसे पुरुष को आते देखकर बड़े प्रेम से उठके नमस्कार कर के, उत्तम आसन पर बैठावें। पश्चात् पूछें कि आप को जल अथवा किसी अन्य वस्तु की इच्छा हो सो कहिये। और जब वे स्वस्थचित्त हो जावें, तब पूछें कि (व्रात्य क्वावात्सीः) हे व्रात्य! अर्थात् उत्तम पुरुष, आपने कल के दिन कहां वास किया था? (व्रात्योदकं) हे अतिथे! यह जल लीजिये और (व्रात्य तर्पयन्तु) हम को अपने सत्य उपदेश से तृप्त कीजिये, कि जिस से हमारे इष्ट मित्र लोग सब प्रसन्न होके आप को भी सेवा से सन्तुष्ट रक्खें। (व्रात्य यथा॰) हे विद्वन्! जिस प्रकार आप की प्रसन्नता हो, हम लोग वैसा ही काम करें तथा जो पदार्थ आपको प्रिय हो, उस की आज्ञा कीजिये। और (व्रात्य यथा॰) जैसे आप की कामना पूर्ण हो, वैसी सेवा की जाय कि जिस से आप और हम लोग परस्पर प्रीति और सत्सङ्गपूर्वक विद्यावृद्धि करके सदा आनन्द में रहें॥2॥

इन *पांच महायज्ञों का फल* यह है कि :
*ब्रह्मयज्ञ के करने से विद्या, शिक्षा, धर्म, सभ्यता आदि शुभ गुणों की वृद्धि।
*अग्निहोत्र* से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि होकर वृष्टि द्वारा संसार को सुख प्राप्त होना अर्थात् शुद्ध वायु का श्वास, स्पर्श, खान पान से आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़ के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अनुष्ठान पूरा होना। इसीलिये इस को देवयज्ञ कहते हैं।
*पितृयज्ञ* से जब माता पिता और ज्ञानी महात्माओं की सेवा करेगा तब उस का ज्ञान बढ़ेगा। उस से सत्यासत्य का निर्णय कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करके सुखी रहेगा। दूसरा कृतज्ञता अर्थात् जैसी सेवा माता पिता और आचार्य ने सन्तान और शिष्यों की की है उसका बदला देना उचित ही है।
*बलिवैश्वदेव* का भी फल पाकशालास्थ वायु का शुद्ध होना और जो अज्ञात अदृष्ट जीवों की हत्या होती है उस का प्रत्युपकार कर देना है। जब तक उत्तम *अतिथि* जगत् में नहीं होते तब तक उन्नति भी नहीं होती। उनके सब देशों में घूमने और सत्योपदेश करने से पाखण्ड की वृद्धि नहीं होती और सर्वत्र गृहस्थों को सहज से सत्य विज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और मनुष्यमात्र में एक ही धर्म स्थिर रहता है। विना अतिथियों के सन्देहनिवृत्ति नहीं होती। सन्देहनिवृत्ति के विना दृढ़ निश्चय भी नहीं होता।
*अतः हम सभी मनुष्यों को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ अवश्य करना चाहिए।*


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