Friday, July 15, 2016

———–ईश्वरीय विभूतियों का केन्द्र मन———यस्मिन् ॠच: साम...

———–ईश्वरीय विभूतियों का केन्द्र मन———यस्मिन् ॠच: साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा: । यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु ।। यजुर्वेद ३४/५। हे परम विद्वन् परमेश्वर! एक समय था कि जब आपकी कृपा से मुझ योगी के सत्त्वगुणी अन्त:करण में “अहम्” अर्थात् आत्मा के गुण ज्ञान की झलक पड़ने लगी , तो मेरा मन उसी झलक से ज्ञानी न होते हुए भी ज्ञानी प्रतीत होने लगा और जिससे कि वह अपने अन्दर भूत, भविष्यत् व वर्त्तमान तीनों कालों के ज्ञान की शक्ति का अनुभव करने लगा ।वह समय आत्मिक विभूतियों को प्राप्त करने का समय था। अहो! अब तो और भी आगे बढ़कर मेरा मन आत्मिक विभूतियों का ही केन्द्र नहीं है अपितु सर्वज्ञ, सर्वव्यापक ईश्वरीय विभूतियों का केन्द्र बन गया है । मेरे (यस्मिन्) जिस मन में (रथनाभाविव, अरा:) जैसे रथचक्र के मध्य के काष्ठ में अरारूप अवयव सब ओर से लगे होते हैं वैसे ( ॠच:) ॠग्वेद (साम) सामवेद (यजूंषि) यजुर्वेद (प्रतिष्ठिता) सब ओर से स्थित और ( यस्मिन्) जिसमें अथर्ववेद स्थित है।यह चारों ही वेदों का ज्ञान मन में कैसे ओतप्रोत हो जाता है यह जान लेना चाहिये ।देखो -हमें विद्यार्थी काल में तथा तत्पश्चात् भी अनेक शंकाएं उत्पन्न हुआ ही करतीं हैं तथा समाधाता विद्वानों से हम उन प्रश्नों का समाधान प्राप्त करते ही रहते हैं । इस प्रकार प्रश्नोत्तर करने से सब शंकाओं का उच्छेद नहीं हो सकता है; किन्तु यह अवश्य ही निश्चित है कि योग-साधक के सम्पूर्ण संशय साधना से स्वयं ही उच्छिन्न हो जाते हैं और वह संशय रहित होकर दिव्य ज्ञान की उपलब्धि करता है।इस प्रकार के योगियों में योगाभ्यास-जनित बुद्धि से उत्पन्न चारों वेदों का ज्ञान उनके अन्त:करण में झलकता रहता है और तब वे अपने इस योग द्वारा साक्षात् जानकारी के आधार पर उत्तर देने के लिये समुद्यत रहते हैं। यह सुन्दर दृश्य देखने का अवसर ॠषियों को प्राप्त होता है।हम महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में ही देखें कि उन्होंने अपने अन्त:करण में झलकने वाले चारों वेदों के ज्ञान की पुष्टि गुरु विरजानन्द जी के चरणों में आकर की और उन्हें यह बात सूझी कि अन्त:करण में इतना बल है ।यही बात उन्होंने वेद के इस मन्त्र में लिखी देखी। जिनके अन्त:करण में ईश्वरीय विभूतियों का प्रकाश हो गया है, वे योगी जब जब जिस जिस मन्त्र के अर्थ को जानने की इच्छा से समाधिस्थ होते हैं तब तब परमात्मा उनको अभीष्ट मन्त्रों केअर्थ जनाता है ।इस विषय में प्रश्न हो सकता है कि जो मनुष्य वेदवाणी नहीं जानता, परन्तु प्रभुचिन्तन के समय आसन लगाते ही समाधिस्थ हो जाता है। प्रसन्नता उसके मुख से क्षण भर को भी दूर नहीं होती है। बाहर के बड़े से बड़े दारुण दु:ख उसके मन को विचलित नहीं कर पाते । इस प्रकार के लक्षणों से विदित हो जाता है कि भगवान् की ज्योति व आनन्द का प्रसाद उसे मिल चुका है, जो कि उसे डोलने नहीं देता। ऐसी अवस्था में तो उसके मन में भी चारों वेदों का ज्ञान प्रकट हो जाना चाहिये; परन्तु उनका प्रकट होना तो दूर की बात है, वह तो दूसरे के द्वारा उच्चारण किये गये वेदमन्त्र का अर्थ भी नहीं समझ सकता है, इसमें क्या रहस्य है ? यह प्रश्न यथार्थ है क्योंकि वेद कहता है कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि भगवान् के ज्ञान की झलक जिस अन्त:करण में पड़ चुकी उसमें वेदज्ञान का उदय होना चाहिये। परन्तु यह कोई आवश्यक नहीं है कि वेदमन्त्रों के अक्षरों का क्रम(वेदमन्त्रों का स्मरण) और उनके शब्दों का अर्थ भी उसे अवश्य आना चाहिये। यह योगी भी अन्त:करण में उदय हुए वेदज्ञान को अपनी उसी भाषा में जिसे कि वह जानता है, प्रकट कर सकता है अर्थात् वह जो प्रकट करता है वह वेद में होता है ।अथवा यह कहें कि जो वेद में होता है वह वही प्रकट करता है।वेदमन्त्रों की उस प्रकार की भाषा और मन्त्रों के वेदानुसारी क्रम की आवश्यकता तो भगवान् को है, जो थोड़े से शब्दों में विशाल ब्रह्माण्ड के ज्ञान का थोड़े ही शब्दों में कहा जाना, वेदवाणी और वेदमन्त्रों के क्रम के विना सम्भव नहीं है क्योंकि यहां एक एक मन्त्र कई कई अर्थों का प्रकाश कर, कई विषयों का ज्ञान अपने शब्दों में देता हुआ भगवान् की अद्भुत रचना का परिचय दे रहा है।अनपढ़ योगी के अन्त:करण में भी भगवान् के इसी ज्ञान का उदय हुआ है जिसे वेद कहते हैं। अहो! अब मेरा मन कितना उत्कृष्ट है कि (यस्मिन्) जिस मन में ( प्रजानाम्) सब प्राणियों का (चित्तम्) जिसमें सर्व पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान है वह चित्त (ओतम्) सूत में मणियों के समान पिरोया हुआ है। वह मेरा मन(शिवसंकल्पमस्तु) शिव अर्थात् कल्याणकारी वेदादि सत्यशास्त्रों का प्रचाररूप संकल्प वाला होवे। आचार्य विष्णुमित्र वेदार्थी ९४१२११७९६५


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