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यजुर्वेद अध्याय २ मन्त्र १०
ईश्वर की उपासना, परोपकार और पुरुषार्थ यही मानव जीवन का उद्देश्य है
मयी॒दमिन्द्र॑ इन्द्रि॒य न्द॑धात्व॒स्मान् रायो॑ म॒घवा॑नः सचन्ताम् । अ॒स्माक सन्त्वा॒शिषः॑ स॒त्या नः॑ सन्त्वा॒शिषः॑ उप॑हूता पृथि॒वी मा॒तोप॒मां म्पृ॑थि॒वी मा॒ता ह्व॑यतामग्निराग्नी॑ध्रा॒त्स्वाहा॑ ॥२-१०॥
भावार्थ:- जो मनुष्य पुरूषार्थी, परोपकारी, ईश्वर के उपासक हैं, वे ही श्रेष्ठ ज्ञान , उत्तम धन और सत्य कामनोओं को प्राप्त होते हैं, और नहीं। जो सब को मान्य देने के कारण इस मन्त्र में पृथिवी शब्द से भूमि और विद्या का प्रकाश किया है, सो ये सब मनुष्यों को उपकार में लाने के योग्य हैं। ईश्वर ने इस वेदमन्त्र से यही प्रकाशित किया है तथा जो नवम मन्त्र से अग्नि आदि पदार्थों से इच्छित सुख की प्राप्ति कही है, वही बात दशम मन्त्र से प्रकाशित की है।।
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