धर्म और मजहब में अंतर क्या हैं?
एक मित्र आज एक सुन्दर प्रश्न पूछा की धर्म और सम्प्रदाय (मज़हब)
में क्या अंतर हैं। यह प्रश्न मुझे अत्यंत प्रिय हैं क्यूंकि आज संसार में
जितनी भी अशांति, हत्या,अत्याचार, आतंकवाद, अन्धविश्वास,
दरिद्रता, अत्याचार आदि जो भी कुछ हो रहा हैं उसका मूल
कारण धर्म के नाम पर सम्प्रदाय, मज़हब या मत-मतान्तर
को पोषित करना हैं। धर्म और मज़हब में भेद को समझने से हम अपने
इस धर्म की आवश्यकता को समझ सकते हैं। प्राय:अपने
आपको प्रगतिशील कहने वाले लोग धर्म और मज़हब को एक
ही समझते हैं।
मज़हब अथवा मत-मतान्तर अथवा पंथ के अनेक अर्थ हैं जैसे वह
रास्ता जी स्वर्ग और ईश्वर प्राप्ति का हैं और जोकि मज़हब के
प्रवर्तक ने बताया हैं। अनेक जगहों पर ईमान अर्थात विश्वास के
अर्थों में भी आता हैं।
१. धर्म और मज़हब समान अर्थ नहीं हैं और न ही धर्म ईमान
या विश्वास का प्राय: हैं।
२. धर्म क्रियात्मक वस्तु हैं मज़हब विश्वासात्मक वस्तु हैं।
३. धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल
अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण स्वाभाविक हैं और
उसका आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य
कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक हैं।
मज़हबों का अनेक व भिन्न भिन्न होना तथा परस्पर
विरोधी होना उनके मनुष्य कृत अथवा बनावती होने का प्रमाण
हैं।
४. धर्म के जो लक्षण मनु महाराज ने बतलाये हैं वह सभी मानव
जाति के लिए एक समान है और कोई भी सभ्य मनुष्य
उसका विरोधी नहीं हो सकता। मज़हब अनेक हैं और केवल
उसी मज़हब को मानने वालों द्वारा ही स्वीकार होते हैं। इसलिए
वह सार्वजानिक और सार्वभौमिक नहीं हैं। कुछ बातें
सभी मजहबों में धर्म के अंश के रूप में हैं इसलिए उन मजहबों का कुछ
मान बना हुआ हैं।
५. धर्म सदाचार रूप हैं अत: धर्मात्मा होने के लिये
सदाचारी होना अनिवार्य हैं। परन्तु मज़हबी अथवा पंथी होने के
लिए सदाचारी होना अनिवार्य नहीं हैं। अर्थात जिस तरह तरह
धर्म के साथ सदाचार का नित्य सम्बन्ध हैं उस तरह मजहब के साथ
सदाचार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। क्यूंकि किसी भी मज़हब
का अनुनायी न होने पर भी कोई
भी व्यक्ति धर्मात्मा (सदाचारी) बन सकता हैं।
परन्तु आचार सम्पन्न होने पर भी कोई भी मनुष्य उस वक्त तक
मज़हबी अथवा पन्थाई नहीं बन सकता जब तक उस मज़हब के
मंतव्यों पर ईमान अथवा विश्वास नहीं लाता। जैसे की कोई
कितना ही सच्चा ईश्वर उपासक और उच्च
कोटि का सदाचारी क्यूँ न हो वह जब तक हज़रात ईसा और
बाइबिल अथवा हजरत मोहम्मद और कुरान शरीफ पर ईमान
नहीं लाता तब तक ईसाई अथवा मुस्लमान नहीं बन सकता।
६. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं अथवा धर्म अर्थात
धार्मिक गुणों और कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व
को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता हैं। दूसरे
शब्दों में धर्म और मनुष्यत्व पर्याय हैं। क्यूंकि धर्म को धारण
करना ही मनुष्यत्व हैं। कहा भी गया हैं-
खाना,पीना,सोना,संतान उत्पन्न करना जैसे कर्म मनुष्यों और
पशुयों के एक समान हैं। केवल धर्म ही मनुष्यों में विशेष हैं
जोकि मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं। धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान
हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी और
अन्धविश्वासी बनाता हैं। दूसरे शब्दों में मज़हब अथवा पंथ पर
ईमान लेन से मनुष्य उस मज़हब का अनुनायी अथवा ईसाई
अथवा मुस्लमान बनता हैं
नाकि सदाचारी या धर्मात्मा बनता हैं।
७. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता हैं और मोक्ष
प्राप्ति निमित धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य
बतलाता हैं परन्तु मज़हब मुक्ति के लिए व्यक्ति को पन्थाई
अथवा मज़हबी बनना अनिवार्य बतलाता हैं। और मुक्ति के लिए
सदाचार से ज्यादा आवश्यक उस मज़हब की मान्यताओं का पालन
बतलाता हैं।
जैसे अल्लाह और मुहम्मद साहिब को उनके अंतिम पैगम्बर मानने
वाले जन्नत जायेगे चाहे वे कितने
भी व्यभिचारी अथवा पापी हो जबकि गैर मुसलमान चाहे
कितना भी धर्मात्मा अथवा सदाचारी क्यूँ न हो वह दोज़ख
अर्थात नर्क की आग में अवश्य जलेगा क्यूंकि वह कुरान के ईश्वर
अल्लाह और रसूल पर अपना विश्वासनहीं लाया हैं।
८. धर्म में बाहर के चिन्हों का कोई स्थान नहीं हैं क्यूंकि धर्म
लिंगात्मक नहीं हैं -न लिंगम धर्मकारणं
अर्थात लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं हैं।
परन्तु मज़हब के लिए बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य हैं जैसे
एक मुस्लमान के लिए जालीदार टोपी और
दाड़ी रखना अनिवार्य हैं।
९. धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता हैं क्यूंकि वह ज्ञानपूर्वक सत्य
आचरण से ही अभ्युदय और मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा देता हैं परन्तु
मज़हब मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता हैं क्यूंकि मज़हब के
मंतव्यों मात्र को मानने भर से ही मुक्ति का होना उसमें
सिखाया जाता हैं।
१०. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य
को स्वतंत्र और आत्म स्वालंबी बनाता हैं क्यूंकि वह ईश्वर और
मनुष्य के बीच में किसी भी मध्यस्थ या एजेंट
की आवश्यकता नहीं बताता। परन्तु मज़हब मनुष्य को परतंत्र और
दूसरों पर आश्रित बनाता हैं क्यूंकि वह मज़हब के प्रवर्तक
की सिफारिश के बिना मुक्ति का मिलना नहीं मानता।
११. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने
प्राणों की आहुति तक देना सिखाता हैं जबकि मज़हब अपने हित
के लिए अन्य मनुष्यों और पशुयों की प्राण हरने के लिए
हिंसा रुपी क़ुरबानी का सन्देश देता हैं।
१२. धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता हैं
जबकि मज़हब मनुष्य को प्राणियों का माँसाहार और दूसरे मज़हब
वालों से द्वेष सिखाता हैं।
१३. धर्म मनुष्य जाति को मनुष्यत्व के नाते से एक प्रकार के
सार्वजानिक आचारों और विचारों द्वारा एक केंद्र पर केन्द्रित
करके भेदभाव और विरोध को मिटाता हैं तथा एकता का पाठ
पढ़ाता हैं। परन्तु मज़हब अपने भिन्न भिन्न मंतव्यों और कर्तव्यों के
कारण अपने पृथक पृथक जत्थे बनाकर भेदभाव और विरोध को बढ़ाते
और एकता को मिटाते हैं।
१४. धर्म एक मात्र ईश्वर की पूजा बतलाता हैं जबकि मज़हब ईश्वर
से भिन्न मत प्रवर्तक/गुरु/मनुष्य आदि की पूजा बतलाकर
अन्धविश्वास फैलाते हैं।
धर्म और मज़हब के अंतर को ठीक प्रकार से समझ लेने पर मनुष्य अपने
चिंतन मनन से आसानी से यह स्वीकार करके के श्रेष्ठ
कल्याणकारी कार्यों को करने में पुरुषार्थ करना धर्म कहलाता हैं
इसलिए उसके पालन में सभी का कल्याण हैं।
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