मख प्रबन्धन.. 31
श्रीयंत्र का ध्यान मन्त्र एक दिव्य उद्योग चक्र की प्रकल्पना देता है। देव गुणों का सार ‘दिव्य’ है। परा स्थल वाक् का उद्गम होता है। परा- उससे पार परापार अव्यक्ता वाक् स्थल है वर्तमान अध्यात्म शोध जो टखने-टखने पानी की साधारण सी महेश योगी और शिवबाबा संस्थान की साधनाएं (?) हैं के परिणाम भी अद्भुत दर्शाती हैं। यह विज्ञानकृत शोध मस्तिष्क की कोषिकाओं के नव क्षेत्र जागृत कर उसकी क्षमता बढ़ाती हैं। ये साधनाएं पश्यन्ती-वैखरी स्त्तर की चेतना को विस्तार देती लाभ प्रद हैं। पश्यन्ती तक तनिक सी इनकी पहुंच भर है। साधना क्षेत्र तो मात्र मध्यमा वैखरी है।
श्री यन्त्र परा व्योम ऋचाक्षर (वेद के मन्त्रों के अर्थ भाव स्थल) से उद्भूत गुण प्रबन्धन को अभिव्यक्त करता है। यहां दिव्य शब्दों के दिव्य अर्थ अवतरित होते हैं। ये सुधवल अरुण चक्र का प्रवहण करते कार्य में उतरते हैं। सुधवलता परिशुद्धि की पराकाष्ठा है। शून्य त्रुटि को धवल कहा जा सकता है। सुधवल गुण मात्र से परिपूर्ण रामायण में राम के चरित्र के समान गुणपालन को कहा जा सकता है। अरुण का तात्पर्य सुधवलता का आकर्षक विकास है। मूल आदि बिन्दु से रेखा तल आयतन तक विकसित तथा इनमें समाहित कलात्मिकता का मूलाधान से आज्ञा (नौ चक्रों) तथा सहस्रार से परम (आठ ब्रह्म चक्रों) का जागृत पुरुष जब परिपूर्ण प्रयोग करता है तो एक उद्योग स्थापित होता है। जिसके कल पुर्जे संसाधन उपकरण सुक्ष्माकारित वक्रित सटीक सृजनमय अन्तस के करणों से सुसंचालित होते ‘श्रीचक्र’ को यथार्थ पर उतारते हैं तो यह व्यवस्था सतत धारण करने योग्य नमन करने योग्य होती है। यह ध्यान मन्त्र ध्येय मन्त्र है। ऐसा उद्योगचक्र ब्रह्म संचालित ब्रह्मांड और आत्म संचालित पिंड (शरीर) में दर्शनीय है। श्रीयन्त्रोद्धार तथा श्रीयन्त्र का ध्यान मन्त्र अनेकानेक प्रबन्धन विधाओं से संसिक्त है।
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