🌷🌷ओ३म्🌷🌷
🌷विश्वशान्ति केवल वेद द्वारा सम्भव🌷
आइये वेद के कुछ मन्त्रों का अवलोकन करें,कैसी दिव्य भावनाएं हैं:-
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय ।-(ऋग्वेद ५/६०/५)
अर्थ:-ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा।तुम सब भाई-भाई हो।सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो।
ईश्वर इस मन्त्र में मनुष्य-मात्र की समानता का उपदेश दे रहे हैं।इसके साथ साम्यवाद का भी स्थापन कर रहे हैं।
अथर्ववेद के तीसरे काण्ड़ के तीसवें सूक्त में तो विश्व में शान्ति स्थापना के लिए जो उपदेश दिये गये हैं वे अद्भूत हैं।इन उपदेशों जऐसे उपदेश विश्व के अन्य धार्मिक साहित्य में ढूँढने से भी नहीं मिलेंगे।
वेद उपदेश देता है-
सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः ।
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या ।।-(अथर्व० ३/३०/१)
अर्थ:-मैं तुम्हारे लिए एकह्रदयता,एकमनता और निर्वेरता करता हूं।एक-दूसरे को तुम सब और से प्रीति से चाहो,जैसे न मारने योग्य गौ उत्पन्न हुए बछड़े को प्यार करती है।
वेद हार्दिक एकता का उपदेश देता है।
वेद आगे कहता है-
ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः ।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि ।।-(अथर्व० ३/३०/५)
अर्थ:-बड़ों का मान रखने वाले,उत्तम चित्त वाले,समृद्धि करते हुए और एक धुरा होकर चलते हुए तुम लोग अलग-अलग न होओ,और एक-दूसरे से मनोहर बोलते हुए आओ।तुमको साथ-२ गति वाले और एक मन वाले मैं करता हूं।
इस मन्त्र में भी एक-दूसरे से लड़ने का निषेध किया गया है और मिलकर चलने की बात की गई है।
और देखिये-
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवां भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ।।-(ऋ० १०/१९१/२)
अर्थ:-हे मनुष्यो ! मिलकर चलो,परस्पर मिलकर बात करो।तुम्हारे चित्त एक-समान होकर ज्ञान प्राप्त करें।जिस प्रकार पूर्वविद्वान,ज्ञानीजन सेवनीय प्रभु को जानते हुए उपासना करते आये हैं,वैसे ही तुम भी किया करो।
इस मन्त्र में भी परस्पर मिलकर चलने,बातचीत करने और मिलकर ज्ञान प्राप्त करने की बात कही गई है।
इस मन्त्र में भी वैचारिक और मानसिक एकता की बात कहकर वेद सन्देश देता हैँ-
समानी व आकूतिः समाना ह्रदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।-(ऋ०१०/१९१/४)
अर्थ:-हे मनुष्यों ! तुम्हारे संकल्प समान हों,तुम्हारे ह्रदय परस्पर मिले हुए हों,तुम्हारे मन समान हों जिससे तुम लोग परस्पर मिलकर रहो।
एकता तभी हो सकती है जब मनुष्यों के मन एक हों।वेदमन्त्रों में इसी मानसिक एकता पर बल दिया गया है।संगठन का यह पाठ केवल भारतीयों के लिए ही नहीं,अपितु धरती के सभी मनुष्यों के लिए है।यदि संसार के लोग इस उपदेश को अपना लें तो उपर्युक्त सभी कारण जिन्होंने मनुष्य को मनुष्य से पृथक कर रखा है,वे सब दूर हो सकते हैं,संसार स्वर्ग के सदृश्य बन सकता है।
वेद से ही विश्व शान्ति संभव है।संसार का कोई अन्य तथाकथित धर्म-ग्रन्थ इसकी तुल्यता नहीं कर सकता।वेद का सन्देश संकीर्णता,संकुचितता,पक्षपात,घृणा,जातीयता,प्रान्तीयता और साम्प्रदायिकता से कितना ऊंचा है।
कुरआन इस्लाम का आधारभूत ग्रन्थ है।क्या विश्वशान्ति कुरआन द्वारा सम्भव हो सकती है,इस सन्दर्भ में कुरआन की कुछ आयतें देखिए-
(1) जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे जाते हैं उनके लिए यह मत कहो कि ये मृतक हैं,किन्तु वे जीवित हैं।(२-२-१५४)
(2) अल्लाह के मार्ग में लड़ो उनसे जो तुमसे लड़ते हैं।मार डालो तुम उनको जहाँ पाओ।कत्ल से कुफ्र बुरा है।यहाँ तक उनसे लड़ो कि कुफ्र न रहे और होवे दीन अल्लाह का।(२-२-१९४)
(3) जिन लोगों ने हमारी आयतों का इन्कार किया उन्हें हम जल्द अग्नि में झोंक देंगे।जब उनकी खालें पक जाएँगी तो हम उन्हें दूसरी खालों से बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर ले।निःसन्देह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्त्व दर्शाया है।(५-४-५६)
(4) वे चाहते हैं कि जिस तरह से वे काफिर हुए हैं,उसी तरह से तुम भी काफिर हो जाओ,फिर तुम एक जैसे हो जाओ तो उनमें से किसी को अपना साथी ना बनाना जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें;और यदि वे इससे फिर जावे तो उन्हें जहाँ कहीं पाओ पकड़ो और उनका (कत्ल) वध करो।और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना।(५-४-८९)
(5) निःसन्देह काफिर(गैर मुस्लिम) तुम्हारे खुले दुश्मन हैं।(५-४-१०१)
(6) फिर हमने उनके बीच कियामत के दिन तक के लिए वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी और अल्लाह जल्प उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं।(६-५-१४)
(7) हे ईमान लाने वालो(मुसलमानों) तुम यहूदियों और ईसाइयों को मित्र न बनाओ ये आपस में एक-दूसरे के मित्र हैं और जो कोई तुममें से उनको मित्र बनाएगा वह उन्हीं में से होगा।निःसन्देह अल्लाह जुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखाता।(६-५-५१)
(8) हे ईमान लाने वालो !…..और काफिरों को अपना मित्र मत बनाओ।अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो।(६-५-५७)
(9) और लड़ो उनसे यहाँ तक कि न रहे फ़ितना अर्थात् काफ़िरों का और होवे दीन तमाम वास्ते अल्लाह के।और जानो तुम यह कि जो-कुछ तुम लूटो किसी वस्तु से निश्चय वास्ते अल्लाह के है।पाँचवाँ हिस्सा उसका और वास्ते रसूल के।(९-८-४१)
(10) हे नबी ! ईमान वालों (मुसलमानों) को लड़ाई पर उभारों यदि तुममें २० जमे रहने वाले होंगे तो वे २०० पर प्रभुत्व,प्राप्त करेंगे।और यदि तुममें १०० हों तो १००० काफिरों पर भारी रहेंगे।क्योंकि वह ऐसे लोग हैं जो समझ-बूझ नहीं रखते।(१०-८-६५)
(11) तो जो कुछ गनीमत (लूट) का माल तुमने हासिल किया हैं उसे हलाल व पाक समझ कर खाओ।(१०/८/६९)
(12) उन (काफिर ) से लड़ो ! अल्लाह तुम्हारे हाथों चातना देगा और उन्हें रुसवा करेगा और उनके मुकाबले में तुम्हारी सहायता करेगा और ईमान वालों के दिल ठण्डे करेगा।(१०/९/१४)
(13) हे ईमान लाने वालो मुश्रिक नापाक हैं।(१०-९-२८)
(14) फिर जब हराम के महीने बीत जाए तो मुश्रिको (मूर्तिपूजक) को जहाँ कहीं पाओ कत्ल करो और उन्हें पकड़ो और उन्हें घेरो।और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो फिर यदि वे तौबा कर लें नमाज कायम करें और जकात दे तो उनका मार्ग छोड़ दो निःसन्देह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है।(१०-९-५)
(15) हे ईमान लाने वालो (मुसलमानों) अपने बापों और भाइयों को अपना मित्र बनाओ यदि वह ईमान की अपेक्षा कुफ्र को पसन्द करे और तुममें से जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा तो ऐसे ही लोग जालिम होंगे।(१०-९-२३)
(16) किताब वाले जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं न अन्तिम दिन पर,न उसे हराम करते हैं जिसे अल्लाह और उसके रसूल ने हराम ठहराया है और न सच्चे दीन को अपना दीन बनाते हैं।उनसे लड़ो यहाँ तक कि वे अप्रतिष्ठित(अपमानित) होकर अपने हाथों से जजिया देने लगें।(१०-९-२९)
(17) अल्लाह काफिर लोगों को मार्ग नहीं दिखाता।(१०-९-३७)
(18) अल्लाह ने मुनाफिक (अर्ध मुसलिम) पुरुषों और मुनाफिक स्त्रियों और काफिरों से जहन्नुम की आग वादा किया है-जिसमें वे सदा रहेंगे यही उन्हें बस है।अल्लाह ने उन्हें लानत की और उनके लिए स्थायी यातना है।(१०-९-६८)
(19) हे ईमान लाने वालो (मुसलमानों) उन काफिरों से लड़ो जो तुम्हारे आसपास हैं और चाहिए कि वे तुममें सख्ती पाये…….(११-९-१२३)
(20) निःसन्देह अल्लाह ने ईमान वालों (मुसलमानों) से उनके प्राणों और उनके मालों को इसके बदले में खरीद लिया है कि उनके लिए जन्नत है।अल्लाह के मार्ग पर लड़ते हैं तो मारते भी हैं और मारे भी जाते हैं। (११-९१-१११)
(21) (कहा जाएगा) : निश्चय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे जहन्नुम का ईंधन हो।तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे। (१७-२१-९८)
(22) बस मत कहा मान काफ़िरों का और झगड़ा कर उनके साथ बड़ा झगड़ा।(१९-२५-५२)
(23) और उनसे बढ़कर जालिम कौन होगा जिसे उसके रब की आयतों के द्वारा चेताया जाए और फिर वह उनसे मुँह फेर ले।निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है। (२१-३२-२२)
(24) फटकारे हुए (गैर मुस्लिम) जहाँ कहीं पाए जाएँगे,पकड़े जाएँगे,और बुरी तरह कत्ल किए जाएँगे। (२२-३३-६१)
(25) तो अवश्य हम कुफ्र करने वालों को यातना का मजा चखाएँगे और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे। (२४-४१-२७)
(26) यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का (जहन्नम) आग इसी में उनका सदा घर है इसके बदले में कि हमारी आयतों का इन्कार करते थे। (२४-४१-२८)
(27) अल्लाह ने तुमसे बहुत सी गनीमतों (लूट) का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ आयेंगी। (२६-४८-२०)
(28) निश्चय अल्लाह मित्र रखता है उन लोगों को कि लड़ते हैं बीच मार्ग उसके।(२८-६४-४)
(29) हे नबी ! काफिरों और मुनाफिकों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना जहन्नुम है और बुरी जगह है जहाँ पहुँचे।(२८-६६-९)
(30) ऐ नबी ! झगड़ा कर काफिरों और गुप्त शत्रुओं से और सख्ती कर ऊपर उनके।(२८-६६-९)
उपर्युक्त आयतों को पढ़कर यह पता चलता है कि ईश्वर और मजहब का नाम लेकर कुरआन ने पिछले १४०० वर्षों में रक्तपात और नरसंहार को बढ़ावा दिया है।लाखों व्यक्ति इस्लाम के नाम पर मारे जा चुके हैं।मजहब का प्रसार तो प्रचार से होना चाहिए था न कि तलवार से।इसी प्रचार-भावना को लेकर दूसरे देशों पर आक्रमण किये गये।वहाँ के राजनीतिक नेताओं की हत्याएँ की गईं।वहाँ के लोगों को जबर्दस्ती मुसलमान बनाया गया।इस्लाम अस्वीकार करने वालों को कत्ल किया गया।देश देशो से टकराये।विश्व की शान्ति को भंग किया गया।वैमनस्य,घृणा,लूटपाट और रक्तपात का बाजार संसार में गर्म किया गया-केवल ईश्वर का नाम लेकर और मजहब का नाम लेकर।क्या ईश्वर रक्तपात करवाना चाहता है ?क्या केवल इस्लाम ही ईश्वर-प्रदत्त मजहब है?
क्या केवल मुसलमान ही उसके मजहब के एजेन्ट हैं?ये सारी बातें विचारणीय हैं,परन्तु एक बात तो निश्चित है कि इस्लाम का नाम लेकर तविश्वशान्ति को भंग किया गया है।देशों की परस्पर लड़ाईयाँ,साम्प्रदायिक दंगे,अन्य मत-मतान्तर वालों के प्रति असहिष्णुता की भावना-ये विश्व को इस्लाम की बहुत बड़ी देन है।
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