वैदिक धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाले अन्य मतों के अनुयायी
ओ३म्
‘वैदिक धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाले अन्य मतों के अनुयायी’ –मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून। महर्षि दयानन्द पौराणिक माता-पिता की सन्तान थे जिन्होंने सत्य की खोज की और जो सत्य उन्हें प्राप्त हुआ उसे अपनाकर उन्होंने अपनी पूर्व मिथ्या आस्थाओं व सिद्धान्तों का त्याग किया। सत्य ही एकमात्र मनुष्य जाति की उन्नति का कारण होता है, अतः उन्होंने सत्य को न केवल अपने जीवन में स्थान दिया अपितु अपने गुरू विरजानन्द सरस्वती व ईश्वर की प्ररेणा से उसका दिग-दिगन्त प्रचार भी किया। महर्षि दयानन्द ने चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य सत्य सनातन वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार करना था। इस सत्य सनातन वैदिक धर्म की प्रमुख विशेषता यह है कि यह सत्य को स्वीकार करता था और असत्य का खण्डन करता था जिसकी प्रेरणा ईश्वरीय ज्ञान वेद व प्राकृतिक नियमों सहित मनुष्यों को अपनी आत्मा से मिलती है। महर्षि दयानन्द के ज्ञान से पूर्ण विचारों, उपदेशों व सत्य सिद्धान्तों को अनेक लोगों ने सुना, समझा, जाना व पढ़ा और शुद्ध व पवित्र ज्ञानयुक्त बुद्धिवाले लोग आर्यसमाज के अनुयायी बनने लगे। एक बहुत बड़ी संख्या उनके जीवनकाल में उनके अनुयायिययों की हो गई थी। यह संख्या निरन्तर बढ़ती रही। आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म को अपनाने वाले न केवल पौराणिक हिन्दू ही होते थे अपितु अन्य मतों के अनुयायी भी होते थे जो आर्यसमाज के सत्य सिद्धान्तों और उनके मानवजाति के लिए कल्याणप्रद होने के कारण उसे अपनाते थे। आज के लेख में हम एक सिख बन्धु सरदार सुचेतसिंह जी का परिचय दे रहे हैं जिन्होंने मन–वचन–कर्म से आर्यसमाज को अपनाया। एक अन्य श्री हाजी अल्लाह रखीया रहमतुल्ला जी, मुम्बई मुस्लिम बन्धु हैं जिन्होंने अपने मत में रहकर भी आर्यसमाज के सत्य सिद्धान्तों के प्रति सच्ची श्रद्धा व निष्ठा का प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत किया, उनका परिचय भी लेख में प्रस्तुत है। यह दोनों सत्य घटनायें वा जीवन-परिचय सिख मत में जन्में और आर्यसमाज के निष्ठावान अनुयायी बने स्वामी स्वतन्त्रानन्द द्वारा लिखित हैं जिनका संकलन ‘इतिहासदर्पण’ नामक पुस्तक में आर्यसमाज के विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने प्रकाशित किया है। सरदार सुचेतसिंह जी का यह परिचय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने सन् 1942 ई. में लिखा था। सरदार सुचेतसिंह जी जिला गुरदासपुर में छीना ग्राम के निवासी थे। इस ग्राम में प्रधानता जाटों की है और उनका गोत्र छीना है। इसी कारण ग्राम का नाम भी छीना है। आप नम्बरदार, जैलदार, डिस्ट्रक्ट बोर्ड के सदस्य व आनरेरी मजिस्ट्रेट के पद पर रहे, अतः जिले में प्रख्यात थे। इस जिले में सरदार विशनसिंहजी रईस भागोवाल आरम्भ समय के आर्यसमाजियों में से थे। उनके संग से ही आप आर्यसमाजी बने थे। आप गुरदासपुर जिले के वेद प्रचार मण्डल के अध्यक्ष थे। आपकी रूचि वेद–प्रचार में अधिक थी। आप प्रायः आर्यसमाज के उत्सवों में सम्मिलित हुआ करते थे। आप आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के भी सदस्य थे। आपके सन्तान नहीं थी। पत्नी का देहान्त होने पर आपने दूसरा विवाह भी नहीं किया था। आपके एक भ्राता थे, जिनका स्वर्गवास हो गया था। गृहकृत्य उनकी भावज ही संभालती थी। उसके भी कोई सन्तान न थी। सम्बन्धियों ने श्री सुचेतसिंहजी की सम्पत्ति के लोभ से उनको मार दिया, परन्तु पुलिस ने परिश्रम करके पूरा-पूरा पता लगा किया। उनके मारे जाने पर उनकी भावज भी अपने भाई के पास चली गई, वहां जाते समय वह सम्पत्ति भी अपने साथ ले-गई। उस सम्पत्ति में श्री सुचेतसिंहजी के कागज पत्रादि भी थे। उनके पत्रों में एक पत्र उनके हाथ का लिखा मिला जो उनकी इच्छा को प्रकट करता था। उनकी भावज और भावज के भाई अनपढ़ थे। उन्होंने वे कागज एक व्यक्ति को दिखाये ताकि पता हो उनमें क्या लिखा है? उस व्यक्ति ने जब कागज पढ़े, उसे वह कागज भी मिला जिसमें उनकी इच्छा लिखी थी। उसने आकर आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब में सूचना दी। सभा ने वह पत्र प्राप्त कर लिया और जब देखा तो उसमें लिखा था कि मेरी सब चल तथा अचल सम्मत्ति आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को मिले और वह उसकी आय से जिले में वेद–प्रचार करे और दो व्यक्तियों को जो उसकी सेवा किया करते थे पांच पांच रूपये प्रमिास उनके जीवनपर्यन्त दिये जाएं। सरदार सुचेतसिंह जी की भूमि का श्री सरफजल हुसैन जी 80 सहस्र देते थे। श्री सरफजल हुसैन पंजाब के एक प्रख्यात राजनेता थे और मन्त्री भी रहे। वह छीना के पास बटाला के निवासी थे। उस समय के हिसाब से वर्तमान में यह घनराशि 1 व 2 करोड़ रूपये लगभग सकती है। सरदार सुचेतसिह जी उस समय उनसे 1 लाख रूपये मांगते थे। इस प्रकार एक लाख या 80 हजार की सम्पत्ति सरदार सुचेतसिंह जी आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को वेद–प्रचार के लिए लिखकर दे गये। तब उस भूमि आदि सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए सभा ने न्यायालय की शरण ली थी। सरदारजी का एक बाग छीना-स्टेशन के साथ ही है जो जिले में अच्छे बागों में समझा जाता था। छीना अमृतसर से पठानकोट को जाते समय बटाला और धारीवाल के बीच का स्टेशन है। इस पर टिप्पणी करते हुए आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि गुरदासपुर जिला आमों के बागों के लिए विख्यात रहा है। यह बाग उन्होंने भी देखा है। वह वहां सरदारजी की स्मृति में बसन्त मेले पर प्रचारार्थ जाया करते थे। उनके अनुसार सभा ने वहां की भूमि वा बाग, सब कुछ, बेच दिया है। उनके अनुसार प्रचार में सभाओं की रुचि नहीं है। ऐसी ही स्थिति हमने अपने नगर में भी देखी है। पुराने समय में लोग आर्यसमाजों को अपनी बड़ी-बड़ी सम्पत्तियां दान देते थे। सामान्य सदस्य इन कार्यों में रूचि नहीं लेते और चतुर अधिकारी इसका विवरण वार्षिक आयव्यय में भी प्रकाशित नहीं करते। यह सम्पत्तियां कब किसको किस मूल्य पर बेच दी जाती है, सदस्यों को पता ही नहीं चलता। इनकी सूचना सम्पत्तियों की स्वामिनी प्रादेशिक सभा को भी नहीं दी जाती। इससे प्राप्त धन का भी किसी को पता नहीं होता। ऐसी अनेक आशंकायें स्थानीय स्तर पर हमें भी हैं। इस प्रकार सुचेतसिंह जी अपनी सारी सम्पत्ति आर्य–प्रतिनिधि–सभा को दे गये और जीवनभर आर्यसमाज के प्रचार में भाग लेते रहे। साधारण रीति से पंजाब में ग्रामों में प्रचार अम्बाला कमिश्नरी में ही अधिक है। शेष पंजाब के ग्रामों में प्रचार की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है और यदि प्रचार किया जाए तो प्रत्येक जिले में सफलता प्राप्त हो सकती है। परन्तु सफलता उसी समय होगी जब दयानन्द के प्रचारक दयानन्द के चरण–चिन्हों पर चलकर काम करें अथवा सरदार सुचेतसिंहजी जैसे वेद–प्रचार के प्रेमी हों जो अपना समय और सम्पत्ति वेद–प्रचार पर निछावर करनेवाले हों। इन पंक्तियों का लेखक सरदार सुचेतसिंह जी की ईश्वर-वेद-दयानन्द जी की भक्ति पर मुग्ध है और उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी द्वारा लिखित श्री हाजी अल्लाह रखीया रहमतुल्लाजी मुम्बई का परिचय भी प्रस्तुत है। श्री हाजी साहिब कच्छ (गुजरात) के रहनेवाले थे और मुम्बई में सोने का व्यापार किया करते थे। आप धार्मिक दृष्टि से आर्यसमाजी थे और सर्वदा कहा करते थे कि संसार में धर्म तो वैदिक धर्म ही है। वे आर्यसमाज के सत्संग में नियमपूर्वक आया करते थे। वे आर्यसमाज के सिद्धान्तों से पूर्णतया परिचित थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को श्री नन्दकिशोर चैबे ने बतलाया था कि एक बार एक स्नातक ने कहा ‘‘किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ ले।” तब हाजी जी ने एक प्रश्न किया। स्नातकजी ने उसका उत्तर दिया। तब आपने कहा कि यह उत्तर ठीक नहीं है। स्नातकजी ने कहा, ‘‘ठीक है।” हाजीजी ने सत्यार्थप्रकाश मंगवाया और दिखाया कि जो कुछ वह कहते है, वही ठीक है। पुस्तक में उनका मत देखकर आर्यसमाजी लज्जित हुए। हाजीजी ने कहा, ‘‘आपने तप किया है। जंगल में रहे हैं और गुरुओं के पास रहे हैं, परन्तु आपने ऋषि दयानन्द लिखित वैदिक सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त नहीं किया।” आप सर्वदा विद्यार्थियों को पुस्तकें और छात्रवृत्ति दिया करते थे। निर्धनों की सहायता किया करते थे। कोई कहता था कि आप शुद्ध क्यों नहीं होते तो आप उत्तर दिया करते थे, ‘‘मैं अशुद्ध नहीं हूं।” आप आर्यसमाज में कई बार अपने पुत्रों को भी साथ लाया करते थे। आपने मरते समय पुत्रों को धन देकर लाखों का ट्रस्ट बनाया जिससे छात्रों की सहायता और रोगियों की चिकित्सा की जाये। आर्यसमाज ने जब मन्दिर के पिछले भाग में मकान बनवाया और वह बनकर तैयार हो गया तब श्री विजयशंकरजी, प्रधान ने साप्ताहिक सत्संग में कहा कि इस मकान के बनवाने में आर्यसमाज पर ऋण हो गया है। अब अन्य कार्यों के साथ–साथ आर्यसमाज को यह ऋण भी उतारना होगा। आपने उठकर पूछा कि आर्यसमाज पर कितना ऋण है तो प्रधानजी ने कहा पांच सहस्र रूपये (रूपये 5,000.00) है। आपने कहा, ‘‘मेरी दुकान से आकर ले–लो।” वे गये। आपने प्रधानजी को 5,000.00 का चैक दे दिया। उस मकान पर जो शिला लगाई गई है, जिस पर दानियों के नाम हैं, उनमें सबसे प्रथम हाजी जी का ही नाम है। आपके नाम से प्रत्येक व्यक्ति उनको वैदिक धर्मी नहीं समझेगा, परन्तु हाजी अल्लाह रखिया रहमतुल्ला जी उतने ही वैदिक धर्मी थे जितना कि कोई वैदिक धर्मी हो सकता है। हमने इतिहासदर्पण पुस्तक से मात्र दो परिचय प्रस्तुत किये हैं। पुस्तक में ऐसे 56 प्रेरणादायक परिचय दिये गये हैं। हम इतना ही कह सकते हैं कि यह पुस्तक पठनीय एवं अति उपयोगी है। इसका अध्ययन कर हमें भी जीवन में किसी अच्छे कार्य को करने की प्रेरणा मिल सकती है। यदि इसे पढ़कर कोई व्यक्ति जीवन में बुरा काम न करने का भी व्रत ले ले, तो भी उसका कल्याण ही होगा। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं। –मनमोहन कुमार आर्य पताः 196 चुक्खूवाला-2 देहरादून-248001
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