प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है । वह अपनी इच्छा से , अपनी बुद्धि से, अपने संस्कारों से सारे काम करता है , चाहे वे गलत हों या सही हों । उसको जो सही लगता है वह व्यक्ति उसी काम को करता है , जैसे रावण और दुर्योधन का उदाहरण आप सब जानते हैं ।
फिर जब ईश्वर सबको मन में सुझाव देता है कि बुरे काम मत करो , अच्छे काम करो । बुरे काम करते समय ईश्वर मन में भय शंका लज्जा उत्पन्न करता है । और अच्छे काम करते समय उत्साह आनंद निर्भयता उत्पन्न करता है। बस यहीं तक ईश्वर की सीमा है । इसके बाद व्यक्ति स्वतंत्र है वह ईश्वर का सुझाव माने , या ना माने ।
जो नहीं मानता और बुरे काम करता ही रहता है, तब ईश्वर उसके कर्मानुसार उसे दंड देता है , और उसकी बुद्धि कम कर देता है । उसे चिंता तनाव आदि उत्पन्न कर देता है । ऐसा करने से उसकी बुद्धि का पेच ढीला हो जाता है । और फिर उतनी ही उन्नति कर पाता है जितना उसकी बुद्धि काम करती है ।
तब वह उल्टे सीधे काम करके दंड भोगता है । और बहुत बाद में उसे समझ में आता है कि मुझे अच्छे काम करने चाहिएँ , बुरे नहीं । इस प्रकार से ईश्वर उसका भी सुधार करता है। -स्वामी विवेकानंद परिव्राजक।
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