ॐ ईश्वर सबका कल्याण करें।
गतान्क से आगे योगसूत्रभाष्य
श्रद्धा—— मोक्ष प्राप्तिकी भवन से
योगाभ्यास में चित्त का प्रसन्न रहना, उधर से
नितांत भी उपेक्षा का भाव न
आना ‘श्रद्धा’ है। यह श्रद्धावान्
व्यक्ति को अनन्य चित्त बनाकर उसके
अभिलषित कार्य के सम्पादन में सदा तत्पर
रखती है।
वीर्य——- का तातपर्य है—उत्साह। श्रद्धालु
व्यक्ति सदा उत्साहपूर्वक अपने संपाद्य
को सिद्ध करने में लगा रहता है।
श्रद्धा कार्यसम्पादन में व्यक्ति के उत्साह
को सदा बनाये रखती है।
स्मृति——- श्रद्धापूर्वक उत्साह के साथ अपने
अभिलाषित को सिद्ध करने के लिए यत्न
करता हुआ व्यक्ति पूर्वाभ्यस्त
स्थिति को निरन्तर याद करता हुआ आगे के
आधार को दृढ बनाये रखने में
उपेक्षा नही करता।
समाधि—— श्रद्धा और उत्साह मसे
पूर्वाजित योग-सम्पत्ति को स्मृतिरूप में
सुरक्षित रखता हुआ योगी असम्प्रज्ञात
समाधि के स्तर तक पहुंच जाता है। इस स्तर पर
होने वाली विवेकज्ञान की झलकमात्र से वह
सन्तुष्टिलाभ नही करता ।
प्रज्ञा——-तब उस ज्ञान की पूर्ण
स्थिरता के लिए प्रयत्न करता हुआ परवैराग्य
की उत्कृष्ट कोटि कोप्राप्त क्र
ऋतम्भरा प्रज्ञा के स्तर तक पहुंच जाता है।
यह पूर्ण आत्मसाक्षात्कार की स्थिति है।अब
आत्मा सब क्लेश व
अविद्या आदि का फंदा काटकर स्वरूप् में
अवस्थित होजाता है।
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