ॐ
पतंजलि योगसूत्र पर विद्योदय भाष्य गतांक
से आगे
श्रध्दावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक
इतरेषाम्॥२०॥
[श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधि-प्रज्ञापूर्वक:]
श्रद्धा’ वीर्य,स्मृति,समाधि, प्रज्ञापूर्वक(अ
सम्प्रज्ञात समाधि का ‘उपायप्रत्यय’ नामक
स्तर है, जो),[इतरेषां] अन्यों का (विदेह और
प्रकृतिलय योगियों से भिन्न योगियों का)
होता है।
जो योगी इन्द्रिय, तन्मात्र, अहंकार, महत्
तथा प्रकृति में आत्म भावना से उपासना व
अनुष्ठान न कर पूर्ण
मोक्षप्राप्ति की भावना से योगाभ्यास में
समलग्न होते हैं; भले ही योगाभ्यास के आरम्भ
में अभ्यास के लिए उनके आलम्बन इन्द्रिय
आदि तत्व रहें; प्रत्युत श्रद्धा आदि उपायपूर्वक
पूर्ण आत्मसाक्षात्कार के लिए समलग्न रहते
हैं। वे विदेह और प्रकृतिलय स्तरों में न रुककर
निरन्तर आगे बढ़ते रहते हैं;इसके फलस्वरूप पूर्ण
आत्मसाक्षात्कार होने पर मोक्ष पा जाते
हैं।
उक्त श्रद्धा आदि के विषय में अगले अंक में
लिखेंगे।
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