Friday, December 19, 2014

ॐ पतंजलि योगसूत्र पर विद्योदय भाष्य गतांक से...



पतंजलि योगसूत्र पर विद्योदय भाष्य गतांक

से आगे

श्रध्दावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक

इतरेषाम्॥२०॥

[श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधि-प्रज्ञापूर्वक:]

श्रद्धा’ वीर्य,स्मृति,समाधि, प्रज्ञापूर्वक(अ

सम्प्रज्ञात समाधि का ‘उपायप्रत्यय’ नामक

स्तर है, जो),[इतरेषां] अन्यों का (विदेह और

प्रकृतिलय योगियों से भिन्न योगियों का)

होता है।

जो योगी इन्द्रिय, तन्मात्र, अहंकार, महत्

तथा प्रकृति में आत्म भावना से उपासना व

अनुष्ठान न कर पूर्ण

मोक्षप्राप्ति की भावना से योगाभ्यास में

समलग्न होते हैं; भले ही योगाभ्यास के आरम्भ

में अभ्यास के लिए उनके आलम्बन इन्द्रिय

आदि तत्व रहें; प्रत्युत श्रद्धा आदि उपायपूर्वक

पूर्ण आत्मसाक्षात्कार के लिए समलग्न रहते

हैं। वे विदेह और प्रकृतिलय स्तरों में न रुककर

निरन्तर आगे बढ़ते रहते हैं;इसके फलस्वरूप पूर्ण

आत्मसाक्षात्कार होने पर मोक्ष पा जाते

हैं।

उक्त श्रद्धा आदि के विषय में अगले अंक में

लिखेंगे।




from Tumblr http://ift.tt/1wwqMkX

via IFTTT

No comments:

Post a Comment