*स्वाध्याये नित्य युक्तः स्यात्*
*ओ३म्*
*शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा।*
*शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ॥*
–ऋ० अ० १। अ० ६ । व० १८ । मं० ९॥
*व्याख्यान-*
हे सच्चिदानन्दान्तस्वरूप! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव! हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण ! हे अज, निराकार, सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन्! हे जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार! हे
सनातन, सर्वमङ्गलमय, सर्वस्वामिन् ! हे करुणाकरास्मत्पितः,
परमसहायक! हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक! हे अविद्या
अन्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक! हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रसारक! हे अधमोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद! हे विश्वविनोदक,विनयविधिप्रद ! हे विश्वासविलासक! हे निरञ्जन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार ! हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद ! हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर,परमसुखदायक! हे दारिद्र्यविनाशक, निर्वैरिविधायक, सुनीतिवर्धक! हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक! हे सर्वबलदायक,निर्बलपालक! हे धर्मसुप्रापक! हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद!
हे सन्ततिपालक, धर्मसुशिक्षक, रोगविनाशक! हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धिप्रद ! हे सज्जनसुखद, दुष्टसुताड़न, गर्वकुक्रोधकुलोभविदारक! हे परमेश, परेश, परमात्मन्, परब्रह्मन् ! हे जगदानन्दक, परमेश्वर, व्यापक, सूक्ष्माच्छेद्य ! हे अजरामृताभयनिर्बन्धानादे! हे अप्रतिमप्रभाव, निर्गुणातुल, विश्वाद्य, विश्ववन्द्य,विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य! हे मङ्गलप्रदेश्वर! *“शं नो मित्रः"* आप सर्वथा सबके निश्चित मित्र हो, हमको सर्वदा सत्यसुखदायक हो। हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय, वरेश्वर! *“शं वरुणः”* आप वरुण, अर्थात् सबसे परमोत्तम हो, सो आप हमको परमसुखदायक हो। *“शन्नो भवत्वर्यमा”* हे पक्षपातरहित, धर्मन्यायकारिन् ! आप अर्यमा (यमराज) हो, इससे हमारे लिए न्याययुक्त सुख देने वाले आप ही हो।*‘‘शन्नः इन्द्रः’’* हे परमैश्वर्यवन्, इन्द्रेश्वर! आप हमको परमैश्वर्य युक्त स्थिर सुख शीघ्र दीजिए । हे महाविद्यवाचोऽधिपते ! *“बृहस्पतिः"* बृहस्पते, परमात्मन्! हम लोगों को (बृहत्) सबसे बड़े सुख को देनेवाले आप ही हो। *“शन्नो विष्णुः उरुक्रमः”* हे सर्वव्यापक, अनन्तपराक्रमेश्वर, विष्णो ! आप हमको अनन्त सुख देओ, जो कुछ माँगेंगे तो आपसे ही हम लोग माँगेंगे, सब सुखों को देने वाला आपके बिना कोई नहीं है। हम लोगों को सर्वथा आपका ही आश्रय है, अन्य किसीका नहीं, क्योंकि सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयामय सबसे बड़े पिता को छोड़ के नीच का आश्रय हम लोग कभी न करेंगे। आपका तो स्वभाव ही है कि अङ्गीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप हमको सदैव सुख देंगे, यह हम लोगों को दृढ़ निश्चय है ।
*विशेष-* व्याख्याकार ने उपर्युक्त व्याख्या मे ईश्वर के लिए अस्सी से अधिक सम्बोधन का प्रयोग किया है जिस पर विचार करने से स्वाध्यायकर्ता के हृदय मे ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव का प्रकाश होता है ।
महर्षि दयानंद सरस्वतीकृत आर्याभिविनय से
प्रस्तुति- *आचार्य राजीव*
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