*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात् (२)*
*अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरा गमत् ॥*
-ऋ० १ । १ । १।५
*व्याख्यान-* हे सर्वदृक् ! सबको देखने वाले *‘‘होताकवि’’* सब शुभ गुणों और चक्रवर्ती राज्यादि को देने वाले और सर्वज्ञ *“क्रतुः”* सब जगत के जनक *“सत्यः”* अविनाशी, अर्थात् जिसका नाश कभी नहीं होता, *“चित्र श्रवस्तमः”* आश्चर्यश्रवणादि, आश्चर्यगुण, आश्चर्यशक्ति , आश्चर्यरूपवान् और अत्यन्त उत्तम आप हो, जिन आपके तुल्य वा आपसे बड़ा कोई नहीं है। *‘‘देवः"* हे जगदीश ! *“देवेभिः’’* दिव्य गुणों के सह वर्तमान *‘‘आगमत्’’* हमारे हृदय में आप प्रकट हों, सब जगत में भी प्रकाशित हों, जिससे हम और हमारा राज्य दिव्य गुणयुक्त हो । वह राज्य आपका ही है, हम तो केवल आपके पुत्र तथा भृत्यवत् हैं ।
महर्षि दयानंद सरस्वती, आर्याभिविनय से
प्रस्तुति- *राजीव*
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