नमस्ते जी
उक्त आशंका का समाधान करते हुए महर्षि कणाद बताते है कि:- *संज्ञाकर्म त्वस्मद्विशिष्टानां लिङ्गम्।। १८।। ( २ - १ )*
नामकरण अर्थात किसी वस्तु का नाम रखना तो हमसे विशिष्टों का साधक है।
जिन पदार्थो को हम प्रत्यक्ष नहीं देखते, ऐसे पदार्थो का नाम रखना उन्ही का कार्य है, जो उन पदार्थों की विशेषताओं के अनुसार जिन्होंने उन पदार्थों को प्रत्यक्ष से जाना है। ईश्वर सभी पदार्थों के गुणधर्मों को जानता है; क्योंकि उसने इन पदार्थों की रचना की है। उसी ने सर्गादिकाल में वेदरूप से इनके नामों का संकेत किया। आगे साक्षात् - कृतधर्मा ऋषियों एवं आचार्यों ने बहुत से नाम संकेतो की कल्पना की है। उन ऋषियोने भी जानकर दूसरों को जनाया।
यह उक्त सूत्र से संकेत मिल रहा है, की अस्मद् अर्थात ‘हमसे’ विशिष्टानां अर्थात विशिष्ट
वि+ शिष्ट = जो अच्छी तरह धर्म का पालन करता हो, आचार व्यवहार में निपृण हो ,शांत,धीर शिक्षित,बुद्धिमान हो वह विशिष्ट होता है।
अस्मदादिकों सदृश व्यक्तियों के वाक्यों में भ्रम,प्रमाद विप्रलिप्सा आदि दोषों के कारण अप्रामाणिकता की आशंका हो सकती है। अर्थात हमलोगों के समान मनुष्यो में किसी में कम तो किसी में अधिक मात्रा में उक्त दोष पाए जातें है; किन्तु सर्वज्ञ, सर्वव्यापक,सर्वान्तर्यामी परमेश्वर तथा साक्षात् - कृतधर्मा, रजोगुण- तमोगुण के प्रभाव रहित, निर्मलबुद्धि वाले ऋषियों के वाक्यों में अप्रामाणिकता की आशंका नही रहती। अतः अप्रत्यक्ष पदार्थों का भी नामकरण होना हमसे विशिष्टों परमेश्वर और योगियों का ज्ञापक अर्थात साधक ( लिङ्ग ) है।
क्रमशः
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