Sunday, August 5, 2018

*।। ओ३म् ।।**स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(३)**अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।**होतारं...

*।। ओ३म् ।।*

*स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्-(३)*




*अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।*

*होतारं रत्नधातमम्॥*

-ऋ० १ । १।१।



*व्याख्यान-* हे वन्द्येश्वराग्ने ! आप ज्ञानस्वरूप हो, आपकी मैं स्तुति करता हूँ ।

सब मनुष्यों के प्रति परमात्मा का यह उपदेश है- हे मनष्यो ! तुम लोग इस प्रकार से मेरी स्तुति-प्रार्थना और उपासनादि करो । जैसे पिता वा गुरु अपने पुत्र वा शिष्य को शिक्षा करता है कि तुम पिता वा गुरु के विषय में इस प्रकार से स्तुति आदि का वर्तमान करना, वैसे सबके पिता और परम गुरु ईश्वर ने हमको अपनी कृपा से सब व्यवहार और विद्यादि पदार्थों का उपदेश किया है, जिससे हमको व्यवहार-ज्ञान और परमार्थ-ज्ञान होने से अत्यन्त सुख हो। जैसे सबका आदि कारण ईश्वर है, वैसे परमविद्या वेद का भी आदिकारण ईश्वर है ।


हे सर्वहितोपकारक! आप *‘‘पुरोहितम्"* सब जगत् के हितसाधक हो । हे यज्ञदेव! *“यज्ञस्य देवम्”* सब मनुष्यों के पूज्यतम और ज्ञान-यज्ञादि के लिए कमनीयतम हो । *“ऋत्विजम”*

सब ऋतु–वसन्त आदि के रचक, अर्थात् जिस समय जैसा सुख चाहिए, उस सुख के सम्पादक आप ही हो। *“होतारम्”* सब जगत् को समस्त योग और क्षेम के देनेवाले हो और प्रलय समय में कारण में सब जगत् का होम करनेवाले हो। *“रत्नधातमम्”* रत्न अर्थात् रमणीय पृथिव्यादिकों के धारण, रचन करनेवाले तथा अपने सेवकों के लिए रत्नों के धारण करनेवाले एक आप ही हो। हे सर्वशक्तिमन्! परमात्मन्! इसलिए मैं बारम्बार आपकी स्तुति करता हूँ, इसको आप स्वीकार कीजिए, जिससे हम लोग

आपके कृपापात्र होके सदैव आनन्द में रहें ।



महर्षि दयानंद सरस्वतीकृत-

आर्याभिविनय से

प्रस्तुति- *राजीव*


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