◼️महर्षि ने क्या किया? क्या दिया?◼️
✍🏻 लेखक - स्वामी सत्यानंद जी
स्वामी दयानन्द महाराज समय की आवश्यकता की मूर्ति थे। इस कारण उनका कार्य अत्यन्त सच्चा तथा उत्तम था। उन्होंने अपने जीवन काल में जो कार्य बड़े बल से किया था उसके चार भाग हैं। उनके कार्य का प्रथम भाग एक अखण्ड निराकार ईश्वर का विश्वास जनता में उत्पन्न करना था। इस कार्य को उन्होंने अपनी समस्त शक्ति से किया था। ईश्वर विषयक जितनी भ्रान्तियाँ फैली हुई थीं उनको दूर करने में उन जैसा कोई विरला ही मनुष्य हुआ होगा जिसने भ्रम-भञ्जन के लिए इतना प्रयत्न, ऐसा उद्योग किया हो। जन साधारण की तथा सुपठित लोगों की यही धारणा था कि वेदों में अनेक देवी-देवताओं का पूजन पाया जाता है। वेद अनेक देवताओं की आराधना का वर्णन करते हैं।
◼️ वेद का ईश्वर एक है, एक है और एक ही हैः- परन्तु यह शोभा श्री स्वामी जी को ही प्राप्त हुई कि उन्होंने वेद के प्रमाणों से तथा वैदिक साहित्य के उदाहरणों से यह सिद्ध कर दिखाया कि वेद अनेक नामों से एक ही परमात्मा का गुणगान करते हैं। वेद में एक ही ईश्वर का वर्णन है। वेद एक ही परमदेव का आराधन बताते हैं तथा एक ही ब्रह्म की उपासना का उपदेश देते हैं।
◼️ वेद में एकेश्वरवाद सिद्ध करने में सफल रहेः- जो विद्वान् वेद में देवताओं के अनेक नामों को देखकर यह मानते हैं। कि वेद में अनेकेश्वरवाद है उनको चाहिए कि वे स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों का मनन करें। उनकी युक्तियों को जाँचे-परखें। उनकी शैली को समझें। मेरे विचार में स्वामी जी महाराज अपने कार्य के इस भाग में अपने जीवन काल में ही सफल हो गये थे।
◼️ जगत् मिथ्या को भ्रान्त मतः- स्वामी जी के कार्य का दूसरा भाग नाना आत्मवाद है। जीव असंख्य हैं, यह वैदिक मान्यता है। यह युग दार्शनिक युग है यह विज्ञान का युग है। यह कल्पना का युग है। इस युग में नाना आत्मवाद को (जीव की स्वतन्त्र सत्ता तथा जीव असंख्य हैं) सिद्ध करना श्री स्वामी जी
का ही कार्य था। शंकर आदि महामान्य आचार्यों के तथा पश्चिमी विद्वानों के विचारों को देखकर जनता मोहित हो रही थी। ऐसे समय में त्रैतवाद का मण्डन करना बड़ा कठिन कार्य है परन्तु श्री स्वामी जी ने कुछ ऐसी सहज युक्तियाँ सत्यार्थप्रकाश में दी हैं जिन्हें समझकर नवीन वेदान्त का (शांकर मत-जगत् मिथ्या) का सकल दुर्ग आप ही भ्रान्ति रूप में देखने लग
जाता है।
◼️ वैदिक सभ्यता का उद्धारः- स्वामी जी महाराज का तीसरा बड़ा कार्य वैदिक सभ्यता का उद्धार था। यह कार्य आपने अत्यन्त वीर भाव से किया। इस कार्य में उनको देशियों व विदेशियों (अपनों तथा परायों) दोनों के विरोध का सामना करना पड़ा। महाराज के जीवन काल में लोगों का अधिक निश्चय यही था कि वर्तमान काल ही स्वर्ण युग है। सब दृष्टियों से यह समय सुन्दर है। यह युग प्रत्येक प्रकार से उत्तम युग है। यह युग प्रत्येक प्रकार से आदर के योग्य है। महाराज ने ऐसे निश्चय के विरुद्ध एक सैनिक की भाँति संग्राम किया तथा एक विजेता की भाँति वे आदर से देखे गये। आर्य जाति के जीवन की जड़ को दृढ़ करने के लिए स्वामी जी का यह कार्य अमृत के समान सिद्ध हुआ।
स्वामी जी के कार्य का चौथा भाग सामाजिक सुधार था। इस कार्य को करते हुए महर्षि को घोर विरोध का सामना करना पड़ा। समाज सुधार के-कुरीति निवारण के लिए संग्राम करते हुए उनको घरेलू वाद-विवाद में बहुत ही समय बिताना पड़ा। ऐसा जान पड़ता है कि जाति ने उनके सुधार कार्य को अपना लिया है। आज सुधार की चर्चा सर्वत्र विराट् रूप धारण कर रही है।
[ विशेष टिप्पणीः- स्वामी जी का यह लेख ‘प्रकाश’ के ऋषि-निर्वाण अंक पृष्ठ 7 पर 8 नवम्बर सन् 1931 में प्रकाशित हुआ था। ‘जिज्ञासु’ ]
लेखक - स्वामी सत्यानंद जी (📖पुस्तक - सत्योपदेशमाला)
साभार - प्रो० राजेंद्र जिज्ञासु जी (अनुवादक)
॥ओ३म्॥
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प्रस्तुति - 📚आर्य मिलन
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