संसार में पुत्र की उत्पत्ति के बिना कोई भी स्त्री स्वयं को सम्पूर्ण नही मानती और ये भी कटू सत्य है कि जितनी सावधानी उसे गर्भ सम्भालने में रखनी पड़ती हैं..जितनी पीड़ा उसे सन्तान जन्मते पड़ते हैं..जितनी नींद खराब और पापड़ बेलने पड़ते हैं…उतना पुरुषार्थ..पीड़ा..सावधानी उसे किसी कार्य में नही रखनी पड़ती।
अब विचार करें किसलिए…??
उन सब कष्टों से उसे परिणाम क्या मिलता है,एक सन्तान जन्म लेती है, पता नही भविष्य में उसका क्या व्यवहार हो।
स्त्री का कोई व्यक्तिगत हित व लाभ नही है।फिर भी सन्तान जन्म हेतु सब जगह दौडती फिरती है यदि गर्भ धारण में अधिक विलम्ब हो तो।
उसके पश्चात् सन्तान से अत्यंत मोह आसक्ति हो जाती है जिसमे कर्तव्य बोध कम ममत्व अधिक होता है। लगता है जैसे जीवन का चरम सुख मिल गया हो।
परम सुख मिला या नही इसका तो हमे ज्ञान नहीं परन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि वह सब कष्ट सहती है,युवाधन गंवाती है,तब जाकर एक उपलब्धी और उसका भी भविष्यत व्यवहार ज्ञात नहीं।
सो चाहिए सन्तान को उत्पन्न करे स्त्री…परन्तु आसक्ति,ममत्व के लिए नही ईश्वर की सृष्टि को आगे बढ़ाने में योगदान करने के कर्तव्य को निभाने के लिए…लालन-पालन हो परन्तु आसक्ति से नही,बल्कि ईश्वर की अमानत समझकर कर्तव्यबोध से करें।
ममत्व में पड़ने से अंत में दुःख मिलता है या फिर क्षणिक सुख…परन्तु यदि यही कर्म कर्तव्य बोध के विवेक से किया जाये तो फिर वह न केवल सब पीड़ा हरता है अपितु मोक्ष का रास्ता भी खोल देता है।
समस्त माँ शक्ति से विनय हैं मेरी बात पर विचार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें।। ॐ।।
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