“नम: शिवाय च शिवतराय च”
- यजुर्वेद १६.४१
“शिव का सम्मान जितना मैं करता हूँ, उतना कोई क्या करेगा ?” - महर्षि दयानन्द
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स्थान : लाहौर
वर्ष : १८७७ ई०
पण्डित सोहनलाल जी ने स्वामी दयानन्द से आक्षेप करते हुए कहा - “आप संन्यास धर्म में होकर उसके विरुद्ध काम करते हैं ।”
स्वामी जी ने पूछा कि - “मैं कौन-सा काम संन्यास के विरुद्ध करता हूँ ?”
कहा कि - “आप शिव जी की निन्दा करते हैं ।”
स्वामी जी ने उत्तर दिया कि - “मैं शिव की निन्दा नहीं करता हूँ । प्रत्युत जितना सम्मान शिव का मेरे मन में है, अन्य किसी के मन में क्या होगा ? उस कल्याण-स्वरूप शिव का तो सब सम्मान करते हैं । हाँ, तुम्हारा पथ्थर का शिव, जो जड़ अथवा मृत और मन्दिर के भीतर बन्द है, मैं उसको नहीं मानता और न उसका सम्मान करता हूँ, न वह सम्मान के योग्य है ।”
इस पर वह निरुत्तर होकर चले गए ।
[सन्दर्भ ग्रन्थ : पण्डित लेखराम आर्यपथिक संगृहीत “महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन-चरित्र”, पृष्ठ ३१९-३२०, २००७ ई० संस्करण]
टिप्पणी :
ध्यातव्य है कि सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में स्वामी जी ने ‘शिव’ नाम के सम्बन्ध में लिखा है -
“शिवु कल्याणे - इस धातु से 'शिव’ शब्द सिद्ध होता है । 'बहुलमेतन्निदर्शनम्’ (धातुपाठे चुरादिगणे) - इससे शिवु धातु माना जाता है । जो कल्याण-स्वरूप और कल्याण का करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम 'शिव’ है ।”
संकलन : भावेश मेरजा
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