Monday, December 3, 2018

ईसाईयों ने ईसा मसीह को मानते हुए ही दुनिया भर में 150 देशों तक अपनी पहुँच बना ली !मुसलमानों ने...

ईसाईयों ने ईसा मसीह को मानते हुए ही दुनिया भर में 150 देशों तक अपनी पहुँच बना ली !

मुसलमानों ने मुहम्मद के दम पर ही 56 देशों तक अपनी पकड़ बना ली !

हिन्दुओं ने खुद ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारते हुए ‘श्री राम’ को छोड़ आसाराम और रामपाल को अपना लिया!

श्री कृष्ण को छोड़ साईं बाबा संग प्रीत लगा ली !

'गुरु नानक के सच्चे सौदे को बिसार राम रहीम को सच्चा सौदा बना दिया !

गुरु गोबिंद सिंह की बहादुरी छोड़ कायरता को अपना लिया!

हनुमान के ब्रह्मचार्य त्याग ओशो का संभोग अपना लिया!

भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद को छोड़, नक्सली, माओवादी, कन्हैया और हार्दिक पटेल जैसों को अपना लिया!

हिन्दुओं ने महानता छोड़ दी और तुच्छ जीवन जीने की शैली अपना ली!

शाकाहार छोड़ दिया और माँसाहार अपना लिया!

विज्ञान और धर्म की शिक्षा देने वाले वेद छोड़ दिये और जादू, टोना, चमत्कार और तंत्र अपना लिए!

अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, इतनी देर अभी नहीं हुई कि लौटा न जा सके!

अपने मूल की ओर लौटे

और

फिर देख कैसे भारत फिर दुबारा विश्व का सिरमौर बनता है।

'सर्व धर्म समभाव’ वाली सोच हिन्दूओं को मिटा देगी !!


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Friday, November 30, 2018

◆ भारत / विश्व के इतिहास पर करीब 300...

◆ भारत / विश्व के इतिहास पर करीब 300 pdfs

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◆ जीवन चरित संग्रह: हिंदी / अंग्रेजी में महापुरुषों के करीब 170 जीवन...

◆ जीवन चरित संग्रह: हिंदी / अंग्रेजी में महापुरुषों के करीब 170 जीवन चरित

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◆ वैदिक साहित्य : हिंदी / अंग्रेजी में करीब 280...

◆ वैदिक साहित्य : हिंदी / अंग्रेजी में करीब 280 पुस्तकें…

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◆ ईसाई मत खण्डन के लिए हिंदी/अंग्रेजी में करीब 380...

◆ ईसाई मत खण्डन के लिए हिंदी/अंग्रेजी में करीब 380 पुस्तकें…

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Friday, November 23, 2018

नमस्ते जीहमारे साथ जुड़े हुए पाठकगण यदि सोए हुए तो कृप्या अन्यों के लिए नही तो कमसे कम स्वयं के लिए...

नमस्ते जी

हमारे साथ जुड़े हुए पाठकगण यदि सोए हुए तो कृप्या अन्यों के लिए नही तो कमसे कम स्वयं के लिए जागे।

उक्त प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर इसप्रकार से जाने।

१ ) मनुष्य जीवन मे अर्थात मनुष्यरूपी शरीर के प्रयोजन का प्रयोजक साधन *धर्म* है।

२ ) अभ्युदय उसे कहते है जो लौकिक और पारलौकिक उन्नति से सम्पन हो। अर्थात *जो अर्थ और काम की प्राप्ति होती हो, वह निःश्रेयस में सहायक हो, और निःश्रेयस के लिए सम्पन्न हो।*

३) निःश्रेयस की प्राप्ति अत्यन्त दुःखों से छूटना अर्थात *नि: = नितान्त, श्रेयस= कल्याण निःश्रेयस धर्म की भूमि पर पनपता है और धर्म, अर्थ और काम को निःश्रेयस की छांव रहती है।* अर्थात इतरेइत्तराश्रय

४ शास्त्र *विषयी* है और तत्त्वज्ञान *विषय* अर्थात जिसमें विषय रहता हो वह विषयी = शास्त्र।

मुक्ति *कार्य* है और *तत्त्वज्ञान* कारण। अर्थात पदार्थो का वर्णन करने से ज्ञायक और पदार्थ ज्ञेय अर्थात जानने योग्य।

५ ) निःश्रेयस को ध्यान में रखते हुए अभ्युदय की प्राप्ति करनी चाहिए अर्थात हमारे पास साधन व कामनाएं हो वह धर्म के अनुकूल होने से निःश्रेयस के सहायक है और जो अभ्युदय में अन्याय युक्त साधन की प्राप्ति है अर्थात अधर्म से की गई प्राप्ति से भी अभ्युदय तो होता है केवल इसी जीवन में किन्तु आगे के लिए बाधक है।

शेष प्रश्नों का उत्तर देना का पाठकगण कृप्या प्रयास करें।


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नमस्ते जीपूर्णावर्तन में समस्त पाठकगण का स्वागत है।अब तक हमने जो जाना - समझा है उन्ही में से प्रश्न...

नमस्ते जी

पूर्णावर्तन में समस्त पाठकगण का स्वागत है।

अब तक हमने जो जाना - समझा है उन्ही में से प्रश्न होंगे, और इससे पाठकगण का अभ्यास भी ठीक हो जाएगा।

प्रश्न १ ) मनुष्य के प्रयोजन का प्रयोजक कौनसा साधन है ? अर्थात प्रयोजन का सहायक होने से उनका साधन है। मनुष्य को अपना प्रयोजन सिद्ध करना हो, तो साधन तो चाहिए और उस प्रयोजन को सिद्ध करने का सबसे उत्तम और अनिवार्य साधन है।

वह साधन कौनसा है ?

२ ) अभ्युदय किसे कहते है ?

३) निःश्रेयस की प्राप्ति किसे कहते है ? निःश्रेयस किस की भूमि पर पनपता है और किस की छांव है ?

४ ) शास्त्र और तत्त्वज्ञान में कौन विषय और विषयी है ? मुक्ति और तत्वज्ञान में कौन कारण है और कौन कार्य ?

५ ) किसे ध्यान में रखते हुए अभ्युदय को प्राप्त करते है, वही व्यक्ति सम्यक रूप से प्राप्त करेंगे।

६ ) इस शास्त्र के अनुसार लक्षण कितने प्रकार के होते है ?

कौन कौन से ?

७ ) जो द्रव्य धर्म रूप में था वह कार्यद्रव्य में आने से धर्मी बनजाता है उनका उदाहरण बताने का प्रयास करें

८) ईश्वर ने संसार क्यों बनाया है ?

९ ) वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है वह कैसे प्रमाणित होता है ?

१० ) क्या अधर्म को अधर्म बताना या कहना भी धर्म है ?

यदि किसी सदस्य ने उत्तर दे दिया है और उसे ऐसा ज्ञात हो कि यह उत्तर मुझे भी ज्ञात था तो वह अपनी सहमति दे देवें।


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Thursday, November 22, 2018

यमुना नदी के किनारे सफेद पत्थरों से निर्मित ‘ताजमहल’ की न केवल भारत में, बल्कि पूरे विश्व में अपनी...

यमुना नदी के किनारे सफेद पत्थरों से निर्मित ‘ताजमहल’ की न केवल भारत में, बल्कि पूरे विश्व में अपनी पहचान है। ताजमहल को दुनिया के सात आश्चर्यों में शामिल किया गया है। हालांकि इस बात को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं कि ताजमहल को शाहजहां ने बनवाया है या फिर किसी और ने। भारत के मशहूर इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने ताजमहल को हिंदू संरचना साबित किया था। पीएन ओक ने अपने शोध पत्रों के माध्यम से साबित किया था कि ताजमहल मकबरा नहीं बल्कि तेजोमहालय नाम का हिंदू स्मारक था। तब नेहरूवादी और मार्क्सवादी इतिहासकारों ने उनका खूब मजाक उड़ाया था, लेकिन अब अमेरिका के पुरातत्वविद प्रो. मार्विन एच मिल्स ने ताजमहल को हिंदू भवन माना है। उन्होंने अपने शोध पत्र में सबूत के साथ स्थापित किया है। इतिहास में झूठ और फरेब स्थापित करने में लगे नेहरूवादी और मार्क्सवादी इतिहासकारों को इससे चोट पहुंच सकती है।

अमेरिका के न्यूयॉर्क स्थित प्रैट इंस्टीट्यूट के प्रसिद्ध पुरात्वविद तथा प्रोफेसर मार्विन मिल्स ने ताजमहल का विस्तृत अध्ययन किया और उस पर अपना शोध पत्र भी लिखा। ताजमहल पर लिखा उनका शोध पत्र उस समय न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित हुआ था। उनके शोध से ही ताजमहल के बारे में नए तथ्य सामने आए हैं। जो भारतीय इतिहासकार ओक के दावों की पुष्टि करते हैं की ताजमहल मकबरा ना होकर एक हिन्दू संरचना हैं।

मिल्स ने अपने शोध पत्र में जोर देते हुए कहा है कि शुरू में ताजमहल एक हिंदू स्मारक था, जिसे बाद में मुगलों ने कब्जा कर उसे मकबरे में बदल दिया। उन्होंने अपने शोधपत्र में ताजमहल से जुड़े ऐसे-ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य दिए हैं कि कोई उसे झुठला नहीं सकता। ताजमहल की बाईं ओर एक भवन है जो अब मसजिद है। वह मसजिद पश्चिमाभिमुख है यानि उसका मुख पश्चिम की ओर है। सवाल उठता है कि अगर उसे मूल रूप से मसजिद के रूप में बनाया गया होता तो उसका मुख पश्चिम की बजाय मक्का की ओर होता। जबकि यह मसजिद पश्चिमोन्मुख है।

इसकी मीनारें भी बताती हैं कि यह मसजिद का नहीं बल्कि हिंदू स्मारक की प्रतीक हैं। ताज महल के चारों ओर बनाई गई मीनारें भी कब्र या मसजिद के हिसाब से उपयुक्त नहीं है। तर्क के साथ देखें तो इन चारों मीनारों को मसजिद के आगे होना चाहिए, क्योंकि यह जगह नमाजियों के लिए होती हैं। जबकि चारों मीनारें मसजिद की चारों ओर बनाई गई हैं। जो हिंदू स्मारकों की दृष्टि से बिल्कुल उपयुक्त है।

इस प्रकार उन्होंने अपने शोधपत्र के माध्यम से यह अपील की है कि ताजमहल के उद्भव को जानने के लिए कार्बन -14 और थर्मोल्यूमिनेन्सेंस के माध्यम से असली तारीख तय की जा सकती है। इसके लिए भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग को सरकार से इस कार्य को पूरा कराने का अनुरोध करना चाहिए। ताकि इस विश्व धरोहर की सच्चाई देश और देशवासियों के सामने आ सके।

मिल्स ने कहा है कि वैन एडिसन की किताब ताज महल तथा जियाउद्दीन अहमद देसाई की लिखी किताब द इल्यूमाइंड टॉम्ब में काफी प्रशंसनीय आंकड़े और सूचनाएं हैं। जो इनलोगों ने ताजमहल के उद्भव और विकास के लिए समकालीन स्रोतों के माध्यम से एकत्रित किए थे। इनमें कई फोटो चित्र, इतिहासकारों के विवरण, शाही निर्देशों के साथ-साथ अक्षरों, योजनाओं, उन्नयन और आरेखों का संग्रह शामिल है। लेकिन दोनों इतिहासकारों ने प्यार की परिणति के रूप में ताजमहल के उद्भव की बात को सिरे से खारिज कर दिया है। दोनों इतिहासकारों ने ताजमहल के उद्भव को मुगलकाल का मानने से भी इनकार कर दिया है।

मिल्स ने ताजमहल पर खड़े किए ये सवाल

ताजमहल के दोनों तरफ बने भवनों को गौर से देखिए। कहा जाता है कि इसमें से एक मसजिद के रूप में कार्य करता है तो दूसरे का अतिथि गृह के रूप में उपयोग किया जाता। जबकि दोनों भवनों की बनावट एक जैसी है। सवाल उठता है कि जो शाहजहां अपनी बीवी के प्रेम में ताजमहल बनवा सकता है क्या वे दो प्रकार के कार्य निष्पादन करने के लिए एक ही प्रकार का भवन बनवाया होगा। दोनों भवनो को भिन्न-भिन्न प्रकार से बनाया जाना चाहिए था?

दूसरा सवाल है कि जब मुगलों ने भारत पर आक्रमण किया था उसी समय देश में तोपें आ गई थी, उसके बाद भी आखिर ताजमहल परिसर की दीवारें मध्ययूगीन, तोपखाने पूर्व तथा रक्षात्मक क्यों थीं? सवाल उठता है कि कि कब्र के लिए सुरक्षात्मक दीवार की आवश्यकता क्यों? (जबकि किसी राजमहल के लिए ऐसा होना अनिवार्य होता है )

तीसरा सवाल है कि आखिर ताजमहल के उत्तर दिशा में टेरेस के नीचे 20 कमरे यमुना की तरफ करके क्यों बनाए गए? किसी कब्र को 20 कमरे कि क्या जरूरत है? किसी कब्र को 20 कमरे कि क्या जरूरत है? जबकि राजमहल की बात अलग है क्योंकि कमरे का अच्छा उपयोग हो सकता था।

चौथा सवाल है कि ताजमहल के दक्षिण दिशा में बने 20 कमरों को आखिर सील कर क्यों रखा गया है। आखिर विद्वानों को वहां प्रवेश क्यों नहीं है ? विद्वानों को अंदर जाकर वहां रखी चीजों का अध्ययन करने की इजाजत क्यों नहीं दी जाती है?

पांचवां और सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर यहां जो मसजिद है वह मक्का की तरफ नहीं होकर पश्चिम की ओर क्यों है ? अगर यह सातवीं शताब्दी की बात होती तो इसमें कोई परेशानी नहीं थी।

छठा सवाल उठता है कि आखिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने ताजमहल की वास्तविक तारीख तय करने के लिए कार्बन -14 या थर्मो-लुमिनिस्कनेस के उपयोग को ब्लॉक क्यों कर रखा है? अगर इसकी इजाजत दे दी जाती है तो ताजमहल के उद्भव को लेकर उठने वाले विवाद तुरंत शांत होंगे क्योंकि इस विधि से आसानी से पता लगाया जा सकता है कि ताजमहल कब बना था? लेकिन न तो इसके लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण तैयार है न ही भारत सरकार।

अब जब ताजमहल को लेकर नए-नए तथ्य उजागर होने लगे हैं तो मुसलमानों ने अपनी मंशा जाहिर कर दी है। तामजमहल को लेकर अपनी धार्मिक बुनियाद मजबूत करने के लिए ही मुसलमानों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर नमाज अदा करने की इजाजत मांगी थी। लेकिन उनकी मंशा को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उनकी मांगें खारिज कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह विश्व धरोहर के साथ ही दुनिया के सात अजूबों में से एक है। इसलिए इसलिए इसे ध्यान में रखने हुए ताजमहल स्थित मसजिद में नमाज अदा करने की कोई अनुमित नहीं दी जाएगी। नमाज कहीं और भी अदा की जा सकती है।


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*प्रश्न :- धर्म तो श्रद्धा और भावना का विषय है फिर उसमें तर्क करने की क्या आवश्यक्ता है ?**उत्तर :-*...

*प्रश्न :- धर्म तो श्रद्धा और भावना का विषय है फिर उसमें तर्क करने की क्या आवश्यक्ता है ?*

*उत्तर :-* यस्तर्केणानुसन्धते स धर्मम् वेद नेतरः ।। ( मनुस्मृति 12/106)

जो तर्क के द्वारा अनुसंधान करता है उसी को धर्म का तत्व बोधित होता है ।धर्म का ज्ञान सत्य जाने बिना प्राप्त नहीं होता।मानो तो देव ,ना मानो तो पत्थर ।ऐसा कहने वालो से एक बार पूछो की मै आपको दस का नोट सौ रुपए मान कर देता हूं ।आप दस के नोट को सौ रुपए मान कर रख लो।क्या आपका कहा मानकर वह दस रुपए का नोट सौ रुपए का मान कर रख लेगा ।कदापि नहीं मानेगा वो। वह उसे दस का ही नोट मानेगा।इसलिए कोई भी चीज केवल मान लेने से नहीं बल्कि सत्य मानने और होने से ही होती हैं।जैसे पत्थर की मूर्ति को भगवान मान लेने से वह भगवान नहीं कहलाएगी।वह पत्थर की मूर्ति जड़ ही कहलाएगी ।चेतन नहीं।और ईश्वर का स्वरूप चेतन है ।मूर्ति में ईश्वर अवश्य है क्युकी ईश्वर सर्वव्यापक है परन्तु पूजा और उपासना ईश्वर की वहा हो सकती जहां आत्मा और पमात्मा दोनों ही विराजमान हो।मूर्ति में ईश्वर तो है परन्तु आत्मा नहीं है क्युकी मूर्ति तो जड़ पदार्थ है ।मूर्ति प्रकृति के अंश से बनी है ।लेकिन आपके हृदय -मन मंदिर में आत्मा भी है और परमातमा भी है ।अत:अपने मन में आत्मा द्वारा योग विधि द्वारा हृदय में बसने वाले परमात्मा की पूजा करो।

किसी पदार्थ में श्रद्धा तो उस पदार्ध को यथार्थरूप में जानने पर ही होती है । तो यदि तर्क से धर्म के शुद्ध विज्ञान को न जाना तो श्रद्धा किस पर करोगे ? कटी पतंग की भांती इधर उधर उड़ना ठीक नहीं है ।

सत्य जानकर उस पर विशवास करना ही *श्रद्धा* कहलाती है ।

और सत्य जाने बिना विश्वाश कर लेने को *अंधश्रद्धा* कहते है ।

लोगो ने धर्म व ईश्वर के सम्बन्ध में अंधश्रद्धा को श्रद्धा समझ कर मानना प्रारम्भ कर दिया है ।

जैसे मुसलमानो की कब्रो , साईं जैसे पीरो, मजारो को भगवान् की तरह पूजना *अंधश्रद्धा* व उनकी सच्चाई जानकार की ये सभी तो दुस्ट मुसलमानो की कब्रे है , उन कब्रो का तिरस्कार करना ही *श्रद्धा* है ।

हनुमान व गणेश को बन्दर हाथी , शिवजी को भंगेडी, क्रष्ण को रसिया मान लेना *अंधश्रद्धा* , इन्हें महापुरुष मानना श्रद्धा है।

पुराणों की जादू चमत्कारों की झूठी कथाओं को सच मानना *अंधश्रद्धा* व वेदज्ञान को जान परख कर धर्म का आधार मानना *श्रद्धा* है ।

श्रद्धा और विश्वास के साथ सत्य का होना नितांत आवश्यक हैं ।क्युकी ज्ञान -विज्ञान से रहित आस्था ही अंधविश्वास कहलाती हैं।

और धर्म को अनुसन्धान बुद्धि विवेक से जाने 🙏🏼🙏🏼

ओ३म् .राहुल क्रांतिकारी आरय।


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Wednesday, November 21, 2018

◆ क्या यीशु / जीसस ही एक मात्र उद्धारक है?ईसाई लोगों की दृढ़ व प्रमुख मान्यता है कि मुक्ति केवल यीशु...

◆ क्या यीशु / जीसस ही एक मात्र उद्धारक है?

ईसाई लोगों की दृढ़ व प्रमुख मान्यता है कि मुक्ति केवल यीशु के माध्यम से ही मिल सकती है और ईसाई धर्मांतरण भी ठीक इसी बात पर आधारित है कि यीशु में विश्वास से सभी पाप धूल जाते है और हमेशा के लिए मुक्ति (salvation) मिल जाती है। इसलिए हिंदुओ व अन्य लोगों, जिसका धर्मांतरण करने की कोशिश की जाती है, के लिए ईसाईयत की इस प्रमुख मान्यता को समझना नितान्त आवश्यक हो जाता है।

ईसाई मत की नींव ही पाप (sin) और उससे उद्धार (Salvation) की विचारधारा है। ईसाई मत (बाईबल) के अनुसार आदम (Adam) और हव्वा (Eve) पहले पुरुष और महिला थे और बाइबिल के अनुसार वे शैतान (Satan) के बहलावे में आकर ईश्वर (God / Yahve / Jehovah) के विरुद्ध हो गए और अदन के बाग (Garden of Eden) में ज्ञान के वृक्ष (tree of knowledge) का फल खाकर पहला पाप (original sin) किया। उस पहले पाप का संक्रमण आदम और एव की आनेवाली सन्तानो (पूरी आदमजात) में हो गया और इसी कारण हम सभी (आदमी) जन्म से ही पापी पैदा होते हैं। (ज्ञान का फल खाने से मनुष्य पापी हो गया! क्यो? क्या ईसाइयों का गॉड नही चाहता था कि आदमी ज्ञानी हो? विचित्र!!) हमारा उद्धार ईश्वर के एक ही बेटे (दि ओन्ली सन ऑफ गॉड), जिसका नाम यीशु /जीसस है, उनके द्वारा होता है। यीशु को ईश्वर ने धरती पर हमारा उद्धार करने के लिए भेजा था। यीशु ने हमें हमारे और आदम और हव्वा के पहले पाप से बचाने के लिए सूली / सलीब /cross पर अपनी जान दी, और उनके खून ने वे पाप धो दिए! (यदि ज्ञान के वृक्ष का फल खाना पाप है, तो पाप एक ने किया; दोषी कोई दूसरा हुआ; और पाप धोने के लिए कोई तीसरा ही भेजा गया !!) अस्तु।

जो यीशू को अपना मुक्तिदाता (saviour) स्वीकार करके ईसाई बनते हैं, उनको तुरंत पापों से बचाने का विश्वास दिलाया जाता है। यीशु पर विश्वास ही पाप से मुक्ति का एक मात्र आधार है, न कि हमारे अपने के कर्म!! ईसाई मत के अनुसार, यीशू को स्वीकार किए बिना आप चाहे कितना ही अच्छा जीवन जिओ या कितने ही अच्छे पुण्य कर्म करो, आप (आदम-ईव का पाप जो आप में संक्रमित हुआ है उनसे) मुक्ति नहीं पा सकते! आपका उद्धार नहीं हो सकता!! जो लोग यीशू को स्वीकार नहीं करते वे हमेशा के लिए अभिशप्त (cursed / damned) हो जाते हैं, चाहे वो कितने ही अच्छे और विवेकशील क्यों ना हों। यीशू को स्वीकार करने या ना करने का निर्णय लेने के लिए हर इंसान को सिर्फ एक ही जीवन मिलता है; इसके बाद यह निर्णय अनंतकाल तक बदला नहीं जा सकता।

यह बाईबल का एक संक्षिप्त वृत्तान्त है। इन शॉर्ट, बिना यीशू के कोई ईसाईयत नहीं और यीशू में विश्वास के अलावा कोई उद्धार नहीं। यीशू में विश्वास के द्वारा उद्धार और स्वर्ग में जगह पाने की धारणा ही ईसाई धर्मपरिवर्तन के प्रयत्नों और ईसाई बनाने के लिए किये जाने वाले ‘बप्तिस्मा’ (baptism) का आधार है।

हमारे यहाँ ईसाई मत की पाप से मुक्ति (salvation) की मान्यता और सनातन धर्म के ‘मोक्ष’ को एक जैसा मानने की एक सतही सोच और बिना प्रश्न किये कुछ भी स्वीकार कर लेने का तरीका चला आ रहा है। यही बात संस्कृत शब्द ‘धर्म’ को आस्था, मत, पंथ (religion) के ही बराबर मान लेने की बात के बारे में कही जा सकती है। वैदिक / सनातन / हिन्दू धर्म में पूर्वजों या शैतान के कोई ‘पहला पाप’ की धारणा नहीं है, जिसके लिए हमें प्रायश्चित करना पड़े। ग़लत कर्म और अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है। यह अज्ञानता सत्य के ज्ञान और एक उच्चतर चेतना के विकास से दूर होती है, न कि सिर्फ आस्था से। हमारी वर्तमान स्थिति हमारे कर्मों के परिणाम स्वरुप हैं और इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। कुछ कर्म स्वाभाविक रूप से गलत होते हैं। ये किसी देवता की आज्ञा पर निर्भर नहीं करते, बल्कि धर्म और प्राकृतिक नियमों को तोड़ने पर निर्भर करते हैं। हमारे यहां उद्धार या आध्यात्मिक बोध ईश्वर के इकलौते पुत्र या अंतिम नबी के रूप में किसी प्रतिनिधि द्वारा नहीं होता। न यीशु और न ही कोई दूसरी हस्ती आपको आपके कर्मों के फल से बचा सकती है, न आपको सत्य का बोध करवा सकती है। केवल किसी पर विश्वास कर लेने / ईमान लाने या किसी को अपना उद्धारक / अंतिम रसूल मान लेने से व्यक्ति अपने कर्मों और अज्ञानता से परे नहीं जा सकता। यह केवल खयाली पुलाव है। जिस प्रकार कोई दूसरा व्यक्ति आपके बदले खाना नहीं खा सकता या आपके बदले शिक्षित नहीं हो सकता, उसी प्रकार आपको अपने पुण्य कर्मों से, ईश्वर की उपासना से सार्वभौमिक चेतना तक पहुँचने के लिए के स्वयं ही आध्यात्मिक उन्नति करनी होती हैं।

यदि बाइबल के नये करार (New Testament) की प्रथम चार पुस्तके, जिसे सुसमाचार - Gospels कहा जाता है, में वर्णित यीशु को एक ऐतिहासिक व्यक्ति मान कर चले (हालांकि पिछले 200 - 250 वर्षों में पश्चिम के विद्वानों ने यीशु के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है), तो हम यीशु के द्वारा दिखाई गयी करुणा का सम्मान कर सकते हैं, लेकिन पाप और उद्धार की ईसाई धारणा सत्य से बहुत दूर है, हास्यास्पद है।


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ઈ-પુસ્તક ई-पुस्तक મહર્ષિ દયાનંદ સરસ્વતી महर्षि दयानन्द सरस्वती જીવન ચરિત્ર લેખક :- સ્વામી સચ્ચિદાનંદ...

ઈ-પુસ્તક ई-पुस्तक

મહર્ષિ દયાનંદ સરસ્વતી महर्षि दयानन्द सरस्वती

જીવન ચરિત્ર લેખક :- સ્વામી સચ્ચિદાનંદ जीवन चरित्र लेखक :- स्वामी सच्चिदानन्द

પ્રકાશક :- ગુર્જર સાહિત્ય ભવન - અમદાવાદ प्रकाशक :- गुर्जर साहित्य भवन

સ્વામી સચ્ચિદાનંદ આર્ય સમાજ ના સભ્ય કે અનુયાયી નથી છતાં મહર્ષિ દયાનંદ જી પ્રત્યે માનભાવ રાખે છે. આ જીવન ચારિત્રમાં સ્વામી દયાનંદજી ના અને આર્ય સમાજ નાં ઉપકારોને ધ્યાન માં રાખીને અને પોતાના સ્વતંત્ર વિચારો, મતભેદ સાથે રજુ કરેલ છે. વાંચન કરવા જેવું પુસ્તક છે.

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स्वामी सच्चिदानन्द आर्य समाज के सदस्य या अनुयायी न होते हुए भी महर्षि दयानन्द जी के प्रति आदर भाव रखते हैं | इस जीवन चरित्र में स्वामी दयानन्द जी के और आर्य समाज एक उपकारों को ध्यान में रख कर लेखक ने अपने स्वतन्त्र विचारों, मतभेदों सहित प्रस्तुत किया है | पुस्तक पठनीय है |

http://mavjibhai.com/EB…/Maharshi%20Dayanand%20Saraswati.pdf

http://mavjibhai.com/ebooksection.htm

http://www.mavjibhai.com/EBOOKS/Maharshi%20Dayanand%20Saraswati.pdf?fbclid=IwAR1MUyX-fveSiHqbFMCStmAorKjSdOn1Lo3Ho3Jurl1CmNUgPf6VOWEfAg0

સાદર

વિશ્વપ્રિય વેદાનુરાગી


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Thursday, November 15, 2018

आश्चर्यजनक, दुखद लेकिन सत्यपुष्टिमार्ग के संस्थापक श्री वल्ल्भाचार्य जी के पूज्य पिताजी श्री लक्ष्मण...

आश्चर्यजनक, दुखद लेकिन सत्य

पुष्टिमार्ग के संस्थापक श्री वल्ल्भाचार्य जी के पूज्य पिताजी श्री लक्ष्मण भट्ट जी/दीक्षितजी के दो पत्नियां थीं, जिनमें से एक पत्नी यल्लामागारू, अपने पति के निधन के बाद सती हुई थीं ।

श्रीवल्ल्भदिग्विजयम् नामक पुस्तक में लिखा है कि :- “विद्यानगर के राजपुरोहित काश्यप गोत्री सुशर्मा जी की कन्या यल्लमागारू और इल्लमागारू के साथ आपका परिणयन हुआ।”

पूज्य वल्ल्भाचार्य जी का काल सन्न 1478-1530 है।

इसी पुस्तक के पृष्ठ 65 में लिखा है कि “और मकरार्क आने पर दीक्षित जी वैकुण्ठ को प्राप्त हुए। आपकी दूसरी पत्नी यल्लमा जी आपके ऊपर सती हुई।”

कितना आश्चर्य है की वेद के विद्वान् पति के पीछे एक विदुषी-पत्नी सती हुई ?

एक ही पत्नी सती क्यों हुई ? दोनों क्यों नहीं ?

या

कितना ही अच्छा होता यदि दोनों ही सती न होतीं ?

खैर जो भी हो लेकिन दुखद आश्चर्यजनक बात है |

संदर्भ प्रमाण- आधार साभार :- [[श्रीवल्ल्भदिग्विजयम्, (श्रीयदुनाथदिग्विजयनाम्ना प्रसिद्धम्), लेखक :- आदिषष्ठपीठाधीश्वराचार्य गोस्वामि-श्रीयदुनाथ-महाप्रभुणा प्रणीतम्, पृष्ठ 59-65, श्री वल्ल्भ पब्लिकेशन्स बड़ौदा-दिल्ली)

धन्यवाद

विदुषामनुचर

विश्वप्रिय वेदानुरागी

*(इस पोस्ट का उद्देश्य केवल जानकारी सांझा करना है, न की किसी व्यक्ति विशेष का अपमान करना है। )*


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◆ *गांधी और नाथूराम गोडसे*आज 15 नवम्बर है। आज ही के दिन नाथूराम गोडसे को फांसी दी गई थी। उन पर...

◆ *गांधी और नाथूराम गोडसे*

आज 15 नवम्बर है। आज ही के दिन नाथूराम गोडसे को फांसी दी गई थी। उन पर महात्मा गाँधी की हत्या का आरोप था। आज़ादी के बाद करीब 60 वर्षों गोडसे को एक “आतंकवादी” के रूप में प्रदर्शित किया गया, परंतु क्या गोडसे हिंसा का समर्थन करते थे? बिल्कुल नहीं। इस संदर्भ में गांधी के किन किन विचित्र विचारों तथा क्रियाकलापों की अंतिम परिणति उनकी हत्या में हुई, यह जानना भी नितांत आवश्यक है।

“मुझे पता हे इसके [ गांधी हत्या के ] लिए मुझे फांसी होगी; मैं इसके लिए भी तैयार हूँ।… यदि मातृभूमि की रक्षा करना अपराध हे तो मैं यह अपराध बार बार करूँगा, हर बार करूँगा।… जब तक सिन्ध नदी पुनः अखंड हिन्द में न बहने लगे तब तक मेरी अस्थियो का विसर्जन नहीं करना।… मुझे फ़ासी देते वक्त मेरे एक हाथ में केसरिया ध्वज और दूसरे हाथ में अखंड भारत का नक्शा हो।… मैं फ़ासी चढ़ते वक्त अखंड भारत की जय बोलना चाहूँगा हे "भारत माँ। मुझे दुःख हे मैं तेरी इतनी ही सेवा कर पाया।” - क्या ये शब्द किसी आतंकी के हो सकते है?

◆ गांधी हत्या के वास्तविक इतिहास और कारणों को जानबूझकर दबाकर नाथुराम गोडसे को एक “हत्यारा” और “आतंकी” (जिहादी आतंक के साथ संतुलन करने के लिए आजकल “हिन्दू हत्यारा” और “भगवा आतंकी”) के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है, यह पूरे घटनाक्रम का एक पहलू है। दूसरा पहलू और गांधी हत्या की वास्तविकता जानने के लिए पढ़े…

◆ *गांधी वध क्यों?* (गोपाल गोडसे)

https://drive.google.com/file/d/1Nv87G6KEqPwBsiiFZHKaSU2Lh1xsyk-Y/view?usp=drivesdk

◆ *अहिंसा का गांधी दर्शन* (डॉ. शंकर शरण)

https://drive.google.com/file/d/1H-znuOQiHkCXAvr2vLwMvdHr30wZ_ooe/view?usp=drivesdk

◆ *गांधी-जिन्ना-नेहरू* (डॉ. शंकर शरण)

https://drive.google.com/file/d/1CWxJv8E_DUF-VLCfw7Kr3zLJcvLGPPYy/view?usp=drivesdk

◆ *देश के प्रति गांधी के अपराध* (विजय कुमार सिंघल)

https://drive.google.com/file/d/1vy_gMI3ycg35Mx7sunF-zqK8WLmJCe-B/view?usp=drivesdk

◆ *आर्यसमाज और गांधी* (पं. चमूपति जी)

https://drive.google.com/file/d/1c2_ZfgALRNkZnqnitpohXbXc8zUALidO/view?usp=drivesdk

◆ *गोडसे की आवाज सुनो* (गोपाल गोडसे)

https://drive.google.com/file/d/1CXQybMWh7zleFlqmW5JH0F_AQtzXEb2t/view?usp=drivesdk

◆ *Gandhi, Khalifat and Partition* (Dr. N.S. Rajaram)

https://drive.google.com/file/d/10cpjZh7BFU_YkAypsJnaiYc7j9a9XQM3/view?usp=drivesdk

◆ *Gandhi and Godse* (Dr. Koenraad Elst)

https://drive.google.com/file/d/1lv0e-WSj8rWbqo-8SJq3vrjH7CrsBe5f/view?usp=drivesdk

◆ *Murder of Mahatma* (Justice G.D. Khosla)

https://drive.google.com/file/d/1bpYn-fSV1J5knibfsI3RJAWNDOwzsGv5/view?usp=drivesdk

◆ *ગાંધી હત્યા અને ગોડસે*

https://drive.google.com/file/d/1GNRXdC2HeAaRh4MJv6RdwJ1pnGkE2VrL/view?usp=drivesdk

◆ *ગાંધી: ભારત માટે અભિશાપ* (આંનદ પ્રકાશ મદાન)

https://drive.google.com/file/d/1q8kcML5fy9li3l8MB3nvrFHyZDeg2n6A/view?usp=drivesdk


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Tuesday, November 6, 2018

Wednesday, October 31, 2018

स्मरणांजलि ऋषि तुम आज के दिन चले गए !———————–- भावेश...

स्मरणांजलि

ऋषि तुम आज के दिन चले गए !

———————–

- भावेश मेरजा

135 वर्ष पूर्व आज के ही दिन आर्य समाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानन्द जी का अजमेर में देहावसान हुआ था – 30 अक्टूबर 1883, मंगलवार, दीपावली के पर्व की सन्ध्या काल की वेला।

जीवनचरितों के मतानुसार देहावसान के लगभग एक मास पूर्व 29 सितम्बर को स्वामी जी को उनके किसी एक पाचक ने – जिसका नाम धौड़मिश्र (जगन्नाथ नहीं) बताया जाता है जो शाहपुरा के नरेश ने उनकी सेवा में नियुक्त किया था – उसने दूध में विष दे दिया।

उसी रात को कष्ट होने पर स्वामी जी ने अपने अनुभव के आधार पर स्व-चिकित्सा की। पता नहीं, वे तुरन्त जान गए थे या नहीं कि उन्हें विष दिया गया है। दो दिनों से उनका स्वास्थ्य जुकाम या प्रतिश्याय के कारण वैसे भी कुछ ठीक नहीं चल रहा था।

दूसरे दिन से डॉ. सूरजमल की चिकित्सा आरम्भ हुई और तत्पश्चात् उसी दिन से डॉ. अलीमर्दान खां ने उपचार आरम्भ किया। डॉ. अलीमर्दान खां को बुलाना ठीक नहीं रहा। यहां स्वामी जी का कोई ऐसा हितैषी भी नहीं था जो सजगता का परिचय देता हुआ कुछ आवश्यक हस्तक्षेप करता।

डॉ. अलीमर्दान खां के द्वारा की गई चिकित्सा ने स्वामी जी को लगभग समाप्त-सा कर दिया। दो सप्ताह की इस विचित्र चिकित्सा से हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, केवल बिगाड़ ही होता चला गया। क्या किया जाए? अन्त में डॉ. अलीमर्दान ने डॉ. एडम से कुछ विमर्श कर स्वास्थ्य लाभ के लिए स्वामी जी को आबू पर्वत ले जाने का सुझाव दिया। स्वामी जी स्वयं इसके लिए कितने उद्यत थे, कुछ कह नहीं सकते। वे तो सम्भवतः मसूदा जाना चाहते थे।

स्वामी जी को आबू ले गए। इस यात्रा ने लगभग 5-6 दिन लिये होंगे। वहां के डॉ. लक्ष्मणदास के इलाज से कुछ लाभ के संकेत दिखाई दिए। परन्तु फिर नयी विपदा आई। इस भक्त डॉक्टर का स्थानान्तर अजमेर कर दिया गया। स्वामी जी को इस चिन्तनीय हालत में छोड़कर अजमेर जाने का मन नहीं था डॉ. लक्ष्मणदास का। त्यागपत्र तक लिख दिया उन्होंने, परन्तु स्वामी जी ने उसे फाड़ दिया।

डॉ. लक्ष्मणदास अजमेर आ गए। स्वामी जी आबू पर मात्र 6 दिन ही रहे होंगे । डॉ. लक्ष्मणदास से चिकित्सा कराने के उद्देश्य से स्वामी जी को भी अजमेर ले जाया गया। 27 अक्टूबर को स्वामी जी अजमेर पहुंचे। स्थिति भयावह थी।

ऐसी भीषण अवस्था में स्वामी जी को लगभग दस दिनों के अन्दर छः सौ किलोमीटर से अधिक की यात्रा रेल तथा पालकी के द्वारा करनी पड़ी। इसमें कितना कष्ट हुआ होगा उन्हें ! वे सब कुछ सहते रहे।

अजमेर में चिकित्सा की गई परन्तु कुछ फलदायी नहीं रही। 30 अक्टूबर का अन्तिम दिन आ ही गया। अपने कुछ अनुयायिओं तथा भक्तजनों की उपस्थिति में ध्यानस्थ होकर पुलकित भाव के साथ ईश्वर का स्मरण करते हुए और उसकी करुणामय व्यवस्था को विनम्र भाव से नतमस्तक होते हुए उन्होंने अपनी आखरी सांस ली। स्थान था - अजमेर की भिनाय कोठी। टंकारा का मूलशंकर दयानन्द सरस्वती के नाम से जगविख्यात होकर अपनी यात्रा का यहीं पर समापन कर आगे चल दिया।

प्रतिवर्ष आज के दिन का सन्ध्या काल हमारे जैसे सामान्य व्यक्तिओं के मन में कुछ शोक के भाव जगा ही जाता है।

वे चले गए, परन्तु हमारे लिए, समस्त मानवता के लिए कितनी अमूल्य विचार सम्पदा छोड़ गए हैं !

हमें उनके अपूर्व योगदान के स्वयं लाभान्वित होना है और अन्यों को भी इससे लाभ पहुंचाना है। यही बोध पाठ है हमारे लिए महर्षि दयानन्द के इस बलिदान दिवस का !


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अहोई अहोई = अ+होई अर्थात् जो कभी हुई ही नहीं । अब जो कभी हुई ही नहीं उसे क्या मानना मानो उसे जो हुई...

अहोई

अहोई = अ+होई

अर्थात्

जो कभी हुई ही नहीं ।

अब जो कभी हुई ही नहीं उसे क्या मानना

मानो उसे जो हुई हो …………जैसे आदि-शंकराचार्य जी की माँ को मानें , महर्षि दयानन्द जी की माँ को मानें , भगतसिंह की माँ को मानें, सुभाषचन्द्र बोस से लेकर वीर सावरकर या शिवाजी या महाराणा प्रताप की माँ को मानें ………….क्यों की ये सब हुई थीं |

.

आज अहोई अष्टमी है | आज महिलाएं संतान प्राप्‍ति और उनकी लंबी उम्र के लिए अहोई अष्‍टमी का व्रत रखती हैं।

.

मतलब चार दिन (चौथ/चतुर्थी) पहले पति की लम्बी आयु के लिए पूरा दिन भूखा रहो फिर अष्टमी के दिन सन्तान के लिए उपवास

इसे कहते हैं दोनों हाथों में लड्डू …….ओह्ह सॉरी ….दोनों कष्ट एक के ऊपर

.

कृपया अन्धविश्वास से बचें ।

धन्यवाद

सादर

विदुषामनुचर

विश्वप्रिय वेदानुरागी

यदि किसी के पास अहोई माता जी का इतिहास (जन्म व मृत्यु, उनके कार्यों का विस्तृत प्रमाणिक वर्णन) हो तो बतायें | अग्रिम धन्यवाद


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✍*अहोई अष्टमी पर*अहोई मतलब जो हुआ नहीं पर है अवश्य अर्थात जिसका जन्म नहीं होता वह अज परमात्मा ही...

*अहोई अष्टमी पर*

अहोई मतलब जो हुआ नहीं पर है अवश्य अर्थात जिसका जन्म नहीं होता वह अज परमात्मा ही अहोई है ऐसा जानना चाहिए,

हम सब उसकी संतान हैं

हमारी लालना पालना वह मातृवत पितृवत करता है इसलिए उसकी उपासना नैत्यिक और नैमित्तइक करनी ही

चाहिए। हो सकता है यह परम्परा जब बनी हो तब संतानें छोटी उम्र में मर जाती हों तो किसी ने कहा हो उस देव की उपासना करो जो कभी होता नहीं पर सबको बनाता है पालना करता है सबका रक्षक है।

उसकी उपासना कैसे हो तो उसकी वेदकथा

सुनकर शुद्ध ज्ञान कर ही हो सकती है शायद इसलिए ही कथा सुनने का विधान भी है वह अलग बात है कि आज विकृति विसंगति के चलते कथा का कोई सिर पैर नहीं। इसलिए आज के इस दिवस को उत्तम संतति कैसे बनाएं इस संकल्प अर्थात व्रत के साथ मनाना चाहिए जिसमें सामूहिक यज्ञ

का वृहद अनुष्ठान और संतति जनने वाली माताओं का संगतिकरण कर उत्तम शिक्षा लालन पालन हेतु,

और ऐसी जगह दान होना चाहिए जिनके बच्चे भूख से पीड़ित हों गरीबी की मार झेल रहे हों। अर्थात

यज्ञ - देवपूजा संगतिकरन और दान द्वारा।

इस तरह ही सभी सुखों की प्राप्ति कर सकते हैं समाज में आई हुई विकृतियों का रूप बदलें संस्कृति का स्वरूप नहीं।

हर पर्व उत्सव व्रत त्यौहार सब यज्ञों की विस्तृत धुआं से महकें तभी परम्पराओं की सार्थकता।

-विमलेश बंसल आर्या

🙏🙏🙏🙏🙏


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Tuesday, October 30, 2018

धर्मरक्षा के लिए सर्वाधिक जरूरत अगर किसी की है तो वह है *विवेक*अर्थात , जो जैसा है उसे वैसा ही समझना...

धर्मरक्षा के लिए सर्वाधिक जरूरत अगर किसी की है तो वह है *विवेक*

अर्थात , जो जैसा है उसे वैसा ही समझना और मानना , कल्पनाओं , कहानियों को सच मानकर उनके भरोसे रहने वाला मिट जाता है।

साईं बाबा एक जिहादी था, उसे जिहादी मानना ही *विवेक* है

मुसलमान , गैर मुसलमानों के शत्रु है , तो उन्हें ऐसा ही मानना *विवेक* है

मूर्ति जड़ होती है, ईश्वर चेतन होता है, मूर्ति को मूर्ति व ईश्वर को ईश्वर मानना *विवेक* है।

ईश्वर किसी की सहायता करने नही आता, धर्मरक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य है ऐसा मानना ही *विवेक* है

ईश्वर का ध्यान करने से ईश्वर अंतःकरण मे हमे प्रेरणा देता है , सद्बुद्धि देता है, कर्म हमे ही करना होगा, यह समझ जाना ही *विवेक* है।

गुरुकुलीय शिक्षा मे विवेक सिखाया जाता है , तभी राम, कृष्ण व चाणक्य जैसे वीरो का निर्माण होता है।

*हिन्दुओ , आओ गुरुकुल द्वारा आयोजित दो दिवीसीए सत्र करे*


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Monday, October 29, 2018

“आओ चलें वेदों की ओर”आज युवाओं का वेद पढ़ना तो दूर देखने के लिए भी नसीब नहीं होते. आज...

“आओ चलें वेदों की ओर”

आज युवाओं का वेद पढ़ना तो दूर देखने के लिए भी नसीब नहीं होते. आज युवा अपनी जिंदगी में वेदों का मतलब भी नहीं जान पाते, हालाँकि जिसने वेद नहीं पढ़े उसको वैदिक परंपरा के अनुसार ब्राह्मण कहलाने का हक नहीं लेकिन देश की व्यवस्था के अनुरूप जन्मना ब्राह्मण और कर्मना ब्राह्मण एक ब्राह्मण स्वरुप ही देखे जाते हैं.

ॐ अनंता वै वेदा : Vedas Are Limitless ॐ

1) वेद का सामान्य अर्थ:

“वेदो अखिलो धर्म मूलम ”, “वेद धर्म का मूल हैं”, राजऋषि मनु के अनुसार मूलतः वेद शब्द ‘विद’ मूल शब्द से बना है, जिसका अर्थ है ज्ञान.

2) कितने पुराणिक वेद:

वेद 1.97 बिल्लियन वर्ष पुराने हैं ,वेदों के अनुसार वर्तमान सृष्टि करीब 1 अरब, 96 करोड़, 8 लाख और लगभग 53000 वर्ष पुरानी है और इतने ही पुराने वेद भी हैं. ऋग्वेद मन्त्र 10/191/3 में कहा गया है कि यह सृष्टि, इससे पिछली सृष्टि के समान ही है और सृष्टि के चलने का क्रम शाश्वत है , इसलिए वेद भी शाश्वत हैं. वेदों का वास्तव में सृजन या विनाश नहीं होता, वेद केवल प्रकाशित और अप्रकाशित होते हैं. परन्तु, आदि शंकराचार्य “वेद अपौरुषेय हैं”.

3) वेद एवं वेद-पठन के फायदे:

वेद वास्तव में मात्र पुस्तकें नहीं हैं, बल्कि यह वो ज्ञान है जो ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित हुआ. 'ईश्वर’ वेदों के ज्ञान को सृष्टि के प्रारंभ के समय चार ऋषियों को देता है जो जैविक सृष्टि के द्वारा पैदा नहीं होते हैं. इन ऋषियों के नाम हैं ,अग्नि ,वायु, आदित्य और अंगीरा.

अ). अग्नि ऋषि ने ऋग्वेद को, जोकि सर्वशक्तिमान ईश्वर के ज्ञान को प्रदान करता है.

ब). वायु ऋषि ने यजुर्वेद को, जोकि कर्मों के ज्ञान को प्रदान करता है.

स). आदित्य ऋषि ने सामवेद को, जोकि आराधना ,योग और दर्शन को समझाता है. और

द). अंगीरा ऋषि ने अथर्ववेद को, जोकि औषधियों और ईश्वर के बारे में जानकारी देता है, प्राप्त किया.

इसके बाद इन चार ऋषियों ने दूसरे लोगों को इस दिव्य ज्ञान को प्रदान किया.

वेदों का ज्ञान अपार है, उदाहरण के लिए 6 ऋतुएँ, सूर्य, चन्द्र, जीवन के क्रम, मृत्यु के क्रम, आराधना, योग, दर्शन, आणुविक ऊर्जा, कृषि, पशुपालन, राजनीति ,प्रशासनिक कार्य, सौर्य ऊर्जा,व्यापार, पुरुष, स्त्रियाँ बच्चे, विवाह, ब्रह्मचर्य, शिक्षा, कपड़े आदि … “तिनके से लेकर ब्रह्मा तक” का ज्ञान…इन वेदों में निहित है.

[1] ऋगवेद:

ऋग्वेद दिव्य मन्त्रों की संहिता हैI इसमें 1017 ऋचाएं अथवा सूक्त हैं जो कि 10300 छंदों में पंक्तिबद्ध हैं. ये आठ “अष्टको” में विभाजित हैं एवं प्रत्येक अष्टक के क्रमानुसार आठ अध्याय एवं उप- अध्याय हैंI माना जाता है कि ऋग्वेद का ज्ञान मूलतः अत्रि, कन्व, वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदाग्नि, गौतम एवं भरद्वाज ऋषियों को प्राप्त हुआ,ऋग वेद की ऋचाएं एक सर्वशक्तिमान पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर की उपासना अलग अलग विशेषणों से करती हैं.

[2] सामवेद:

साम वेद संगीतमय ऋचाओं का संग्रह हैं I विश्व का समस्त संगीत सामवेद की ऋचाओं से ही उत्पन्न हुआ है, ऋगवेद के मूल तत्व का सामवेद संगीतात्मक सार हैं, प्रतिपादन हैं

[3] यजुर्वेद:

यजुर वेद मानव सभ्यता के लिए नीयत कर्म एवं अनुष्ठानों का दैवी प्रतिपादन करते हैं. यजुर वेद का ज्ञान मद्यान्दीन, कान्व, तैत्तरीय, कथक, मैत्रायणी एवं कपिस्थ्ला ऋषियों को प्राप्त हुआ.

[4] अर्थवेद:

'अथर्ववेद’ ऋगवेद में निहित ज्ञान को व्यावहारिक रूप से क्रियान्वयन प्रदान करता है ताकि मानव जाति उस परम ज्ञान से पूर्णतयः लाभान्वित हो सके.

अथर्ववेद जादू और आकर्षण के मन्त्रों एवं विद्या की पुस्तक नहीं है.

4) वेद में मूर्ति पूजा:

वेदों में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि वेदों में 'यज्ञ’ को ही ईश्वर के प्रति आस्था का मूल आधार माना गया है हालाँकि ब्रह्म तक योग द्वारा पहुँचने का 'मूर्ति पूजा’ एक जरिया है जरूर, बशर्ते 'मूर्ति पूजा’ एकांत में की जाए.

वेद: संरचना:

प्रत्येक वेद “संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् नामक चार भागों में विभाजित हैं.

ऋचाओं एवं मन्त्रों के संग्रहण से संहिता,

नियत कर्मों और कर्तव्यों से ब्राह्मण,

दार्शनिक पहेलू से आरण्यक एवं

ज्ञातव्य पक्ष से उपनिषदों का निर्माण हुआ है.

आरण्यक समस्त योग का आधार हैं. उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है एवं ये वैदिक शिक्षाओं का सार हैं.

वेद समस्त ज्ञान के आधार:

वैसे ये उनकी खुशकिस्मती है जो ब्राह्मण कुल में पैदा हुए तथापि बिना ज्ञान का ब्राह्मण किसी काम का नहीं. आज भले ही एक ब्राह्मण… डॉक्टर, इंजीनियर, सी.ए. आदि बन जाए पर असली जिंदगी मृत्यु के बाद शुरू होगी तब ब्राह्मण से पूछा जायेगा कि…

"आप अपने आप को ब्राह्मण बोलते रहे, ठीक है… ईश्वर ने पहले ही आपको ब्राह्मण वंश में जन्म देकर धरती पर भेजा था, उसको भुलाकर, स्वयं को सांसारिक कार्यो में लगाकर व वेदों के ज्ञान की अनदेखी कर, आपने अपने स्वार्थ के लिए सांसारिक डिग्री को सर्वोच्च महत्ता पदान करते हुए आपने जो भी नौकरी-पैसा अख्तियार किया, सो एक तरह से आपने पशु समान ही जिन्दगी जीकर जीवन निकाल दिया ! सो आप कैसे ब्राह्मण??? ”

अभी भी समय है, 'समस्त हिन्दू’ वेदों की ओर बढ़ें, और ब्राह्मणों के लिए तो यह नितांत आवश्यक है.


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Wednesday, October 24, 2018

*वेद किसने लिखे और वेदों का प्रकाश कब हुआ-* सृष्टि के आदि में सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक ज्ञानस्वरूप...

*वेद किसने लिखे और वेदों का प्रकाश कब हुआ-*

सृष्टि के आदि में सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ने अपने शाश्वत ज्ञान- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमश: अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के हृदयों में जनकल्याण हेतू प्रकाशित किया । इसको 1 अरब, 97 करोड, 29 लाख,49 हजार 119 वर्ष बीत चुके हैं और यह 120 वाँ वर्ष चल रहा है । सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर आज तक आर्य लोग दिन दिन गिनते और प्रसिद्ध करते चले आ रहे हैं और हर याज्ञिक कार्य में संकल्प कथन करते लिखते लिखाते रहे हैं जो बही खाते की तरह मान्य है । वेदों की उत्पत्ति परमेश्वर द्वारा ही होना वेदों में भी उल्लखित है :-

*तस्माद यज्ञात सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद यज्ञुस्तस्मादजायत।।* (यजु० 31.7)

उस सच्चिदानंद, सब स्थानों में परिपूर्ण, जो सब मनुष्यों द्वारा उपास्य और सब सामर्थ्य से युक्त है, उस परब्रह्म से ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और छन्दांसि - अथर्ववेद ये चारों वेद उत्पन्न हुए।

*यस्मादृचो अपातक्षन्* *यजुर्यस्मादपकशन।*

*सामानि यस्य लोमानी अथर्वांगिरसो मुखं।*

*स्कम्भं तं ब्रूहि कतमःस्विदेव सः।।*

(अथर्व० 10.4.20)

अर्थ : जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, उसी से (ऋचः) ऋग्वेद (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद (अंगिरसः) अथर्ववेद, ये चारों उत्पन्न हुए हैं।


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Tuesday, October 23, 2018

સત્યાર્થ-સૂત્ર-સંગ્રહ - ભાગ ૧/૮(સત્યાર્થપ્રકાશના ૧૧મા સમુલ્લાસમાંથી ચૂંટેલાં કેટલાંક અગત્યનાં...

સત્યાર્થ-સૂત્ર-સંગ્રહ - ભાગ ૧/૮

(સત્યાર્થપ્રકાશના ૧૧મા સમુલ્લાસમાંથી ચૂંટેલાં કેટલાંક અગત્યનાં વાક્યોનો સંગ્રહ)

—————

૧. વેદવિદ્યાહીન લોકોની કલ્પના બધી રીતે સત્ય તો કેવી રીતે હોઈ શકે છે ?

૨. ઈશ્વર સિવાય બીજા દિવ્ય ગુણવાળા પદાર્થો અને વિદ્વાનોને પણ ‘દેવ’ ન માનવા એ ઠીક નથી.

૩. જેવો સત્યોપદેશથી સંસારને લાભ પહોંચે છે, તેવી જ અસત્યોપદેશથી સંસારની હાનિ થાય છે.

૪. જા તમે પરમેશ્વરનું ભજન કરતાં હોત તો તમારો આત્મા પણ પવિત્ર હોત.

૫. જા તમે ભીતરથી શુદ્ધ હોત તો તમારાં બહારનાં કામ પણ શુદ્ધ હોત.

૬. ‘કલિયુગ’ તો સમયનું નામ છે. સમય નિષ્ક્રિય હોવાથી એ કંઈ ધર્મ-અધર્મ કરવામાં સાધક-બાધક બનતો નથી.

૭. આ બધાં (ગિરી, પુરી, ભારતી વગેરે સંન્યાસીઓનાં) દસ નામ પાછળથી કલ્પિત કરવામાં આવ્યાં છે; એ કાંઈ સનાતન નથી.

૮. મનુષ્યનું ખરી આંખ વિદ્યા જ છે. વિદ્યા-શિક્ષા વિના જ્ઞાન થઈ શકતું નથી.

૯. જેઓ બચપણમાં ઉત્તમ શિક્ષા - શિક્ષણ મેળવે છે, તેઓ જ ‘મનુષ્ય’ અને વિદ્વાન થાય છે.

૧૦. જે મનુષ્ય જ્ઞાની-ધાર્મિક સત્પુરુષોનો સંગી, યોગી, પુરુષાર્થી, જિતેન્દ્રિય અને સુશીલ હોય છે, તે જ ધર્મ-અર્થ-કામ-મોક્ષને પ્રાપ્ત કરીને આ જન્મ અને પરજન્મમાં હંમેશાં આનંદમાં રહે છે.

[સંપાદન - ભાવેશ મેરજા]


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મૂર્તિપૂજા પર શાસ્ત્રાર્થ(ફેસબુક પર એક ગ્રુપ બનાવી મહર્ષિ દયાનંદ અને આર્યસમાજ વિરુદ્ધ અપશબ્દો લખીને...

મૂર્તિપૂજા પર શાસ્ત્રાર્થ

(ફેસબુક પર એક ગ્રુપ બનાવી મહર્ષિ દયાનંદ અને આર્યસમાજ વિરુદ્ધ અપશબ્દો લખીને મૂર્તિપૂજાની વકિલાત કરનાર હિરેન ત્રિવેદીને આર્યસમાજના વિદ્વાન શ્રી ભાવેશભાઈ મેરજાએ બહુ જ ઉત્તમ રીતે જવાબ આપ્યો

અને કેટલાક તાર્કિક પ્રશ્નો પણ પૂછ્યા. જે નીચે પ્રસ્તુત છે.)

શ્રી હિરેન ભાઈ ત્રિવેદીને ઉત્તરઃ (કુલ ચાર ભાગમાં)

ભાગઃ ¼

મેં જે ત્રણ વેદમંત્રો ઈશ્વર સાકાર નથી અને તેની મૂર્તિ બની શકતી નથી આથી મૂર્તિપૂજા વેદ-વિરુદ્ધ છે, એ બતાવવા માટે સાર્થ ટાંક્યા હતા, એ તમને માન્ય નથી એ જાણ્યું. તમને એ કેમ માન્ય નથી એ પણ હું સમજું છું. તમે મારી એ કોમેંટ પર જે કંઈ લખ્યું છે તેનો અહીં ક્રમશઃ પ્રત્યુત્તર આપું છું. યથાયોગ્ય વિચાર કરશો -

1. તમે લખ્યું છે કે न तस्य प्रतिमा अस्ति આ યજુર્વેદ મંત્રનો “સાચો અર્થ થાય છે એની કોઈ ઉપમા (તુલના) નથી, કેમ કે એમનો મહિમા અનંત છે. એ સંપૂર્ણ સૃષ્ટિને પોતાના ગર્ભમાં ઘારણ કરવાવાળા (હિરણ્યગર્ભ) છે, સર્વ વ્યાપક છે (કણ કણમાં એમનો વાસ છે).” ભાઈ હિરેન, તમે આ જ વાત પર થોડો વિચાર કરો. જે સત્તા સર્વવ્યાપક અને કણ કણમાં વ્યાપ્ત હોત તે કદી ભૌતિક કે સાકાર હોય એ સંભવ છે? “વ્યાપ્ય” (pervaded) પદાર્થ કરતાં “વ્યાપક” (pervader) પદાર્થ હંમેશાં સૂક્ષ્મ હોય છે. અમારું પણ આ જ કહેવું છે કે ઈશ્વર સમસ્ત જગત તથા સર્વ જીવોમાં વ્યાપક છે. વેદમાં પણ કહ્યું છે – “ઈશા વાસ્યમિદં સર્વમ્ યત્કિંચ જગત્યાં જગત્…” (યજુ. 40.1) તથા “સ ઓતશ્ચપ્રોતશ્ચ વિભૂઃ પ્રજાસુ” (યજુ.32.8) આવો સર્વવ્યાપી ઈશ્વર નિરાકાર જ હોઈ શકે, હાથ-પગ આદિ અવયવો ધરાવતો ભૌતિક શરીરયુક્ત ન હોઈ શકે. આ તથ્યનો શાંતિથી વિચાર કરો. તમને પણ સારી રીતે સમજાઈ જશે, જો તમારો ઉદ્દેશ્ય સત્યને જાણવા-સમજવાનો હોય તો. આથી જ યજુર્વેદના न तस्य प्रतिमा अस्ति મંત્રમાં ઈશ્વરની “પ્રતિમા”નો નિષેધ કર્યો છે. પ્રતિમાનો અર્થ મૂર્તિ થાય છે એ નિર્વિવાદ છે. માનવું જ ન હોય તેનો કોઈ ઈલાજ ન હોઈ શકે. વાત પણ સરળતાથી સમજાઈ જાય એવી છે કે જે સત્તા સર્વત્ર વ્યાપક અને અનંત હોય તેની કોઈ મૂર્તિ, ચિત્ર, મોડલ, સાદૃશ્ય, આકૃતિ, પરિમાણ આદિ કદી બની કે હોઈ ન શકે. એ સર્વથા, સર્વદા નિરાકાર જ હોય. બસ, આર્યસમાજનું પણ આ જ કહેવું છે. શાંત મને વિચાર કરો, આ સમજાય જાય તેવું સત્ય છે. વેદમાં ઈશ્વરનું નિરાકારત્વ તથા સર્વવ્યાપકત્વ સમજાવવા માટે આકાશ (અનુત્પન્ન અનંત અવકાશ – space)ની હીન-ઉપમા આપવામાં આવી છે અને લખ્યું છે કે – “ઓમ્ ખમ્ બ્રહ્મ” (યજુ. 40.17). આમ, વેદની દૃષ્ટિએ ઈશ્વર આકાશની માફક અનંત વ્યાપક, નિરાકાર છે.

2. તમે न तस्य प्रतिमा अस्ति આ વેદમંત્રના સંબંધમાં લખ્યું છે કે – એ વખતે અવતાર થયેલા નહોતા એટલે પ્રતિમાનો અર્થ મૂર્તિ કરી જ ન શકાય. ભાઈ, વેદો તો સૃષ્ટિના આરંભમાં પ્રકાશિત થયા છે, પરંતુ તેમાં સર્વજ્ઞ પરમાત્માએ પોતાના સ્વરૂપનું તથા તેનું ધ્યાન-ઉપાસનાનું વિજ્ઞાન પણ પ્રકાશિત કર્યું છે. તેમાં આ મંત્ર દ્વારા આપણને જ્ઞાન આપ્યું છે કે - હું અદ્વિતીય છું, મારા જેવું કોઈ નથી, મારું કોઈ પ્રતીક, મૂર્તિ, પ્રતિમા આદિ પણ નથી. “પ્રાપ્ત-નિષેધ” અને “અપ્રાપ્ત-નિષેધ”ને સમજશો તો આ વાત તમને પણ સમજાય જશે. અવતારની કલ્પના પૌરાણિક છે; વેદ તથા વૈદિક ગ્રંથોમાં ક્યાંય અવતારનો ઉલ્લેખ નથી. જ્યારથી ઈશ્વરનું વેદોક્ત સ્વરૂપ ભૂલાયું ત્યારથી આવા અવૈદિક તથા તર્ક-વિરુદ્ધ ખ્યાલો પ્રચલિત થયા. પતંજલિ મુનિએ તેમના યોગદર્શનમાં ઈશ્વર સાક્ષાત્કારના વૈદિક વિજ્ઞાનનો પ્રકાશ કર્યો છે અને અસંપ્રજ્ઞાત સમાધિ અને મોક્ષની પ્રાપ્તિ પર્યંતની વિદ્યા સૂત્રાત્મક શૈલીમાં પ્રસ્તુત કરી છે, પરંતુ તેમાં તેમણે ક્યાંય મૂર્તિ, અવતાર, મંદિર આદિનો કોઈ જ ઉલ્લેખ કર્યો નથી. આ તથ્ય પર પણ વિચાર કરો. પતંજલિ મુનિ આર્યસમાજી નહોતા !

(ક્રમશઃ)

શ્રી હિરેન ભાઈ ત્રિવેદીને ઉત્તરઃ (કુલ ચાર ભાગમાં)

ભાગઃ 2/4

3. તમે “स पर्यगाच्छुक्रमकायम्” આ વેદ મંત્રના સંબંધમાં લખ્યું છે કે - ઈશ્વર સર્વવ્યાપી છે, સર્વવ્યાપક છે, આમાં મૂર્તિપૂજાનો વિરોધ ક્યાં છે, વગેરે. ભાઈ હિરેન, જે સર્વવ્યાપી અને સર્વવ્યાપક હોય તે એકદેશી અને આકારયુક્ત ન જ હોય એ જ્ઞાન તો અર્થાપત્તિથી સિદ્ધ થાય છે. આ મંત્રમાં ઈશ્વરને “અકાયમ્” (bodyless) લખ્યા છે, ઈશ્વરના શરીરનો સ્પષ્ટ નિષેધ કર્યો છે. એ તરફ ધ્યાન ન ગયું? જેને શરીર નથી તેની મૂર્તિઓ બનાવવાનું અને તે મૂર્તિઓને પૂજવાનું છે કોઈ ઔચિત્ય?

4. તમે લખ્યું છે કે - ઈશ્વર નિરાકાર છે તો ઋગ્વેદ મંડળ 10 સૂક્ત 91માં વર્ણિત “દિવ્ય પુરુષ” કોણ છે? ભાઈ, તમે સૂક્ત સંખ્યા લખવામાં ભૂલ કરી છે, 91ને બદલે 90 લખવું જોઈતું હતું. હશે, ભૂલ થઈ ગઈ હશે. ઋગ્વેદનું આ 90મું સૂક્ત ‘પુરુષ સૂક્ત”ના નામે સુપ્રસિદ્ધ છે. અન્ય વેદમાં પણ આ સૂક્ત આવે છે. આ સૂક્તમાં ઈશ્વરને માટે “પુરુષ” શબ્દનો પ્રયોગ થયેલો જોઈ એમ સમજી લેવું કે ઈશ્વર આપણા જેવા પુરુષ (Male human being) છે, બહુ જ સ્થૂળ બુદ્ધિનો પરિચય આપે છે. વૈદિક શબ્દો યૌગિક હોય છે, રુઢિ નથી હોતા. વેદની ભાષાનું આ વૈશિષ્ટ્ય સમજવું જ રહ્યું. અહીં ઈશ્વરને માટે આ પુરુષ શબ્દ પણ યૌગિક અર્થમાં જ પ્રયુક્ત થયો છે - પુરિ સર્વસ્મિન્સંસારેઽભિવ્યાપ્ય સીદતી વર્ત્તત ઇતિ. યઃ સ્વયં પરમેશ્વર ઇદં સર્વ જગત્ સ્વરૂપપેણ પૂરયતિ વ્યાપ્નોતિ તસ્માત્સ પુરુષઃ; પુરુષં પુરિશય ઇત્યાચક્ષીરન્ (દ્ર. મહર્ષિ યાસ્ક રચિત નિરુક્ત 1.13) આમ, ઈશ્વર આ સંપૂર્ણ ‘પુર’ અર્થાત્ બ્રહ્માંડમાં, આપણાં શરીર તથા આત્મામાં પણ અંતર્યામી રૂપે વ્યાપક હોવાથી ‘પુરુષ’ કહેવાય છે. આવા ઈશ્વરમાં સર્વજ્ઞતા, સર્વવ્યાપકત્વ, સર્વસામર્થ્ય આદિ અનેક દિવ્ય ગુણો હોવાથી તે દિવ્ય પુરુષ છે. આથી પુરુષ સૂક્તમાં આવતા પુરુષ શબ્દથી ઈશ્વરને સાકાર માની લેવા ઉચિત નથી.

5. તમે પ્રશ્ન કર્યો છે કે – ઈશ્વર સર્વવ્યાપક છે તો મૂર્તિમાં કેમ નહીં? ભાઈ, તે મૂર્તિમાં પણ વ્યાપક છે, પરંતુ એથી મૂર્તિ ઈશ્વર નથી થઈ જતી. વ્યાપક અને વ્યાપ્યનો ભેદ તો સમજવો જ રહ્યો. વ્યાપક અને વ્યાપ્ય ભિન્ન-ભિન્ન પદાર્થ હોય છે, તે અભિન્ન નથી હોતા. મૂર્તિ તો ભાંગી જાય છે, ચોરાઈ જાય છે, પડી પણ જાય છે. પરંતુ ઈશ્વર ન તો ભાંગી જાય છે, ન તો કોઈ તેને ચોરીને લઈ જઈ શકે છે અને ન તો તે પડી જાય છે. તે તો અનાદિ કાળથી જેવો છે તેવો ને તેવો અનંત કાળ સુધી વર્તમાન રહે છે. આપણું કર્તવ્ય છે કે આપણે તેના યથાર્થ સ્વરૂપને સમજીએ. બીજું, ઈશ્વર તો સર્વવ્યાપક હોઈ મૂર્તિમાં પણ વિદ્યમાન છે, પરંતુ મારો કે તમારો આત્મા તો આપણાં શરીરમાં જ બદ્ધ છે. માટે આત્મા ઈશ્વરનો સાક્ષાત્કાર પોતાના હૃદયપ્રદેશમાં જ કરી શકે છે કે જ્યાં બંને ઈશ્વર અને આત્મા મોજૂદ હોય છે.

(ક્રમશઃ)

શ્રી હિરેન ભાઈ ત્રિવેદીને ઉત્તરઃ (કુલ ચાર ભાગમાં)

ભાગઃ ¾

6. તમે પ્રશ્ન કર્યો છે કે – ઈશ્વર દયાળુ છે, ન્યાયકારી છે, તો શરીર વિના ન્યાય કેવી રીતે કરે? ભાઈ, ન્યાય, દયા આદિ કરવા માટે તે સર્વશક્તિમાન છે. તે નિરાકાર હોવા છતાં સમસ્ત બ્રહ્માંડની રચના કરી શકે છે, તો પછી ન્યાય, દયા આદિ કરવામાં, સૃષ્ટિનું સંચાલન કરવામાં એ ચેતન, સર્વવ્યાપક, અંતર્યામીને શરીર જેવા કોઈ ભૌતિક ઉપકરણની બિલકુલ આવશ્યકતા નથી હોતી. તેની કર્મફળ વ્યવસ્થા તથા સર્વ જીવો પ્રત્યે દયા અનાદિ કાળથી ચાલ્યાં આવે છે અને સદૈવ બની રહેશે, કારણ કે એ તે અનાદિ, અનુત્પન્ન, નિત્ય સત્તા છે. તેનાં ગુણ-કર્મ-સ્વભાવ નિત્ય અનાદિ છે.

7. તમે લખ્યું છે કે - હજારો માથાં, હજારો હાથ, હજારો પગ શરીર વિના છે? ભાઈ હિરેન, તમે વેદનું કાવ્યત્વ અને તેની પ્રતિપાદન શૈલી પર વિચાર કરશો તો આવા પ્રશ્ન નહિ થાય. પુરુષ સૂક્તના આ પ્રથમ મંત્રમાં ઈશ્વરની વ્યાપકતાનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે અને એ બતાવવા માટે કે તેની સત્તામાં, તેની વ્યાપ્તિમાં અસંખ્ય માથાં, અસંખ્ય આંખો, હાથ વગેરે સ્થિત છે. આ મંત્રમાં ઈશ્વરને સહસ્રશીર્ષા, સહસ્રાક્ષ, સહસ્રપાત્ વગેરે તે અનંત છે, એ બતાવવા માટે છે. બાકી તો જો તમારી કલ્પનાને અનુસરીએ તો પ્રશ્ન થાય કે આ તે કેવો ઈશ્વર છે કે જેને માથાં તો 1000 છે, પરંતુ આંખો અને પગ 2000-2000 હજાર નથી, પરંતુ 1000-1000 હજાર જ છે ! આવું કેમ? શું જવાબ આપશો આવા પ્રશ્નનો? વિચાર કરો.

8. આર્યસમાજનો ઈશ્વરવાદ વેદોક્ત છે. તેને સમજવાનો પ્રયાસ કરો, નાહકનો વિરોધ ઉચિત નથી. માટે વિનંતી છે કે ઉપરોક્ત વાતો પર ખુલ્લા મને વિચાર કરશો. અને સંસ્કાર-પ્રબળતા, આર્યસમાજ પ્રત્યેના તીવ્ર પૂર્વાગ્રહ કે અન્ય કોઈ કારણસર જો હજુ પણ સાકારવાદ અને મૂર્તિપૂજાનો આગ્રહ કરવો જ હોય તો તમારી સેવામાં “તમારા માથામાં વાગે તેવા” કેટલાક પ્રશ્નો નીચે લખ્યા છે, તેના યોગ્ય જવાબ શોધવાનો પ્રયાસ કરશો. (ક્રમશઃ)

શ્રી હિરેન ભાઈ ત્રિવેદીને ઉત્તરઃ (કુલ ચાર ભાગમાં)

ભાગઃ 4/4

પ્રશ્નઃ

1. કોઈ પણ સાકાર વસ્તુ અથવા સાકાર પદાર્થ ઈશ્વરના આશ્રય વગર ટકી શકતો નથી. માટે જો ઈશ્વર સાકાર હોય તો એ બતાવવામાં આવે કે તે શાના આશ્રયે ટકેલો છે ?

2. સાકાર વસ્તુ રંગ-રૂપ ધરાવતી હોય છે. જો ઈશ્વર સાકાર હોય તો એ બતાવો કે તેનો રંગ કેવો છે ?

3. સાકાર વસ્તુ હંમેશાં સીમિત (એકદેશી – મર્યાદિત) હોય છે, એ સર્વવ્યાપક હોઈ શકતી નથી. જો ઈશ્વર સાકાર હોય તો તે સર્વવ્યાપક શી રીતે હોઈ શકે ?

4. સાકાર વસ્તુનું વજન, માપ, લંબાઈ વગેરે હોય છે. જો ઈશ્વર સાકાર હોય તો તેનું વજન, માપ, લંબાઈ વગેરે બતાવશો ?

5. ચારેય વેદોમાંથી ‘મૂર્તિપૂજા’ શબ્દ શોધી બતાવશો ?

6. જો મૂર્તિપૂજા વૈદિક અર્થાત્‌ વેદ-વિહિત હોય તો કોની મૂર્તિ, કેટલી મૂર્તિ, કેવા પ્રકારની મૂર્તિ બનાવવી જાઈએ તે, અને તેના પૂજનની શી વિધિ હોવી જોઈએ – આ બધું વેદોમાંથી શોધી બતાવશો ?

7. એક જ સમયે કોઈ પણ પદાર્થમાં બે પરસ્પર વિરોધી ગુણો સાથે ન રહી શકે. તો પછી એક જ સમયે ઈશ્વર સાકાર અને નિરાકાર બંને શી રીતે સંભવી શકે ?

8. ઈશ્વર મૂર્તિમાં વ્યાપક છે કે નહિ ? જો છે, તો પછી પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા શા માટે કરો છો ? ઈશ્વર પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કર્યા પહેલાં મૂર્તિમાં હોય છે કે પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કર્યા બાદ જ મૂર્તિમાં આવે છે ? શું પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કર્યા બાદ મૂર્તિમાં કોઈ વિશેષ શક્તિ આવી જાય છે ?

9. જો પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કર્યા બાદ મૂર્તિમાં કોઈ વિશેષ શક્તિ આવી જતી હોય તો એ મૂર્તિ પોતાની ઉપરથી ઉંદર વગેરેને કેમ દૂર નથી કરી શકતી ?

10. અને જો પ્રાણ-પ્રતિષ્ઠા કરવાથી મૂર્તિમાં કોઈ વિશેષ શક્તિ આવી જતી ન હોય તો પછી એક સામાન્ય પથ્થર અને મૂર્તિમાં શો ફરક રહ્યો ?

(સંપૂર્ણ)


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Wednesday, September 12, 2018

यह ई पुस्तकालय है, जिसमें दर्जनों अमूल्य ग्रंथों के PDF सहेजे गए हैं, ताकि यह अधिक से अधिक लोगों के...

यह ई पुस्तकालय है, जिसमें दर्जनों अमूल्य ग्रंथों के PDF सहेजे गए हैं, ताकि यह अधिक से अधिक लोगों के काम आ सकें, धर्म और राष्ट्र संबंधी विषय पर PDF में अमूल्य पुस्तकें इन लिंक में संग्रहित हैं, आप विषय देखकर लिंक खोलें तो बहुत सी पुस्तकें मिलेंगी, सभी पुस्तकें आप निशुल्क download कर सकते हैं, इन लिंक्स में सैकड़ों किताबें हैं, जो कई पीढ़ियों की मेहनत का फल हैं:

*Swami Dayananda - स्वामी दयानंद रचित :-*

https://drive.google.com/folder/d/0B1giLrdkKjfRZnUxOEpPSVBHVzQ/edit

*Aadi Shankaracharya - आद्य शंकराचार्य :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRallkZ0VIWnRPVjA

*Sri Aurobindo - श्री अरविंदो :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRSWktaVFPa2tSa2s

*Swami Vivekanand - स्वामी विवेकानन्द :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRMFAtTi1yUFAzdW8

*Swami Ramteerth - स्वामी रामतीर्थ :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRNGlYZzhqTEQtcU0

*Sitaram Goel - सीताराम गोयल :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRT19aT3pnZ0tvODA

*Veer Savarkar -*

*वीर सावरकर :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRbE0wQng5YVZmb1E

*Swami Shivanand - स्वामी शिवानंद :-* 

https://drive.google.com/open? id=0B1giLrdkKjfRYXJDclQwYTBfWFk

*हिन्दू, राष्ट्र व हिन्दुराष्ट्र :-*

https://drive.google.com/folder/d/0B1giLrdkKjfRNW1scHdGMHQzZ0U/edit

*Basic Hinduism -* 

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRTXdpN29OTUQ0Q3c

*Hindutva and India :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRNzh0MXhyRVpiVEE

*Autobiography -* *आत्मकथाएं :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRbEpPUGcydTZlWDQ

*धर्म एवं आध्यात्म -* 

https://drive.google.com/folder/d/0B1giLrdkKjfRRzViUEdGMnI2Smc/edit

*यज्ञ Yajna -* 

https://drive.google.com/folder/d/0B1giLrdkKjfRUThPYWlldEd6NVE/edit

*Brahmcharya - ब्रह्मचर्य :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRNzJmbWpSYmg5bjQ

*Yog - योग :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRcWZ1NzBoWER2Tkk

*Upanishad - उपनिषद :- *

https://drive.google.com/folder/d/0B1giLrdkKjfRNDJiQVFDbVFjbGc/edit

*Shrimad Bhagvad Geeta -* *श्रीमद्भगवद्गीता :-*

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRWk9KVno2V3NNLXM

Manu and pure Manusmriti - महर्षि मनु व शुद्ध मनुस्मृति :-

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRTXlYQUJhUXNWM00

Valmeeki and Kamba Ramayan - वाल्मीकि व कम्ब रामायण :-

https://drive.google.com/open?id=0B1giLrdkKjfRa18yTE5EM1Z3Zk0

*Books on Vedas -* *वेदों पर किताबें :-*

https://drive.google.com/folder/d/0B1giLrdkKjfRSU9OVzBfbENTcDg/edit

Maharshi Dayananda - महर्षि दयानंद समग्र :-

https://drive.google.com/folder/d/0B1giLrdkKjfRN2RzYVdFZWI1a0U/edit

————-Complete commentaries on Veda - सम्पूर्ण वेद भाष्य ——–

Introduction to the Commentary on the 4 Vedas - ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका :-

https://drive.google.com/folder/d/0B1giLrdkKjfRejNEaUo1RERJdFE/edit

RigVeda - ऋग्वेद सम्पूर्ण - 


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Tuesday, September 11, 2018

🌺🌼 *।।ओ३म्।।* 🌼🌺ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।यद् भद्रं तन्न आसुव।।1।।*तू सर्वेश सकल...

🌺🌼 *।।ओ३म्।।* 🌼🌺

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।

यद् भद्रं तन्न आसुव।।1।।

*तू सर्वेश सकल सुखदाता शुद्धस्वरूप विधाता है।*

*उसके कष्ट नष्ट हो जाते जो तेरे निज आता है।।*

*सारे दुर्गुण, दुर्व्यसनों से हमको नाथ बचा लीजै।*

*मंगलमय गुण कर्म पदार्थ प्रेम सिन्धु हमको दीजै।।*

ओ३म् हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।

स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।2।।

*तू ही स्वयं प्रकाशक, सुचेतन, सुखस्वरूप शुभ त्राता है।*

*सूर्य-चन्द्र लोकादिक को तो तू रचता और टिकाता है।।*

*पहिले था अब भी तू ही है घट-घट में व्यापक स्वामी।*

*योग, भक्ति, तप द्वारा तुझको, पावें हम अन्तर्यामी।।*

ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।

यस्यच्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।3।।

*तू ही आत्मज्ञान बल दाता, सुयश विज्ञजन गाते हैं।*

*तेरी चरण-शरण में आकर, भवसागर तर जाते हैं।।*

*तुझको ही जपना जीवन है, मरण तुझे विशराने में।*

*मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु, तुझसे लगन लगाने में।।*

ओ३म् यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव।

य ईशेSअस्य द्विपदश्चतुश्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।4।।

*तूने अपनी अनुपम माया से जग की ज्योति जगाई है।*

*मनुज और पशुओं को रचकर निज महिमा प्रगटाई है।।*

*अपने हिय-सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं।*

*भक्ति-भाव से भेंटें लेकर शरण तुम्हारी आते हैं।।*

ओ३म् येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।।

योSअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।5।।

*तारे, रवि, चन्द्रादि बनाकर निज प्रकाश चमकाया है।*

*धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख लखाया है।।*

*तू ही विश्व-विधाता, पोषक, तेरा ही हम ध्यान धरें।*

*शुद्ध भाव से भगवन्, तेरे भजनामृत का पान करें।।*

ओ३म् प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।

यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोSअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।।6।।

*तूझसे बडा न कोई जग में, सबमें तू ही समाया है।*

*जड चेतन सब तेरी रचना, तुझमें आश्रय पाया है।।*

*हे सर्वोपरि विभो, विश्व का तूने साज सजाया है।*

*धन दौलत भरपूर दूजिए यही भक्त को भाया है।।*

ओ३म् स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।।7।।

*तू गुरु है, प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फलदाता है।*

*तू ही सखा-बन्धु मम तू ही, तुझसे ही सब नाता है।।*

*भक्तोंको इस भव-बन्धन से, तू ही मुक्त कराता है।*

*तू है अज, अद्वैत, महाप्रभु सर्वकाल का ज्ञाता है।।*

ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।8।।

*तू है स्वयं प्रकाश रूप प्रभु, सबका सिरजनहार तू है।*

*रसना निशि-दिन रटे तुम्हीं को, मन में बसता सदा तू ही।।*

*कुटिल पाप से हमें बचाते रहना, हरदम दयानिधान।*

*अपने भक्त जनों को भगवन्, दीजै यहीं विशद वरदान।।*

_*इतीश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाप्रकरणम्*_

ओ३म्!!


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नमस्ते,महर्षि कणाद ने वैशेषिक में 13 गुणों को विशेष स्वीकार किया है- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या,...

नमस्ते,

महर्षि कणाद ने वैशेषिक में 13 गुणों को विशेष स्वीकार किया है- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथकत्व,संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व और संस्कार।

👆🏻क्या ये सही है?


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Friday, September 7, 2018

नमस्ते जीआज हम द्रव्य के पश्चात गुण के लक्षण सूत्र के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे।जिसे गुण का...


नमस्ते जी

आज हम द्रव्य के पश्चात गुण के लक्षण सूत्र के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे।

जिसे गुण का गुणों से साधर्म्य और द्रव्य गुण से वैधर्म्य भी कह सकते है। अर्थात समानता और विशेषता।

*द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोग विभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्।।१६।।(१-१)*

सूत्र में जो पदों को समास में बताया गया है,उन्हें समास से पदों में विच्छेद करके देखेंगे तो सूत्र इसप्रकार बनेगा।

*द्रव्याश्रयी, अगुणवान, संयोगविभागेषु,अकारणम् अनपेक्ष: इति गुणलक्षणम्।।*

सूत्र ऐसे विचित्र होते है, की उनको समझने के लिए पुर्णतः एकाग्रता बनानी पड़े।

हमने गत पाठ में देखा कि, किसी भी पदार्थ के लक्षण को किस प्रकार से निर्दुष्ट लक्षित किया जाता है।

हमने देखा कि यदी चिह्नित किया गया लक्षण; अव्याप्त,अतिव्याप्ति और असम्भव दोषों से रहित हो तो वह उद्देशित पदार्थ ही होगा।

जैसे गाय के लक्षण में बताया कि, सिंग वाली हो वह गाय होती है,ऐसा लक्षण बताने से अतिव्याप्ति हो रही थी,क्योंकि सिंग तो भैंस और बकरी के भी होते है,तो यहां लक्षण दूषित हुआ।

फिर कहा स्वर्ण वर्ण की हो वह गाय है,तो यंहा अव्याप्त दोष हुआ क्योंकि गाय तो काली और सफेद (धोली ) भी होती है। फिर कहा एक्शफ वाली हो अर्थात बीच में से खुर फटा हुआ न हो तो यंहा असम्भव दोष हुआ।

कुल मिलाकर सार यह निकला कि उक्त तीनों दोषों से रहित असाधारण धर्म का नाम *लक्षण* है।

अब विषय के साथ जुड़तें हुए, जो जो लक्षण गुण के लिए चिह्नित किये गए उन्हें एक एक करके देखते चले।

प्रथम लक्षण बताया कि १)द्रव्याश्रयी= अर्थात जो द्रव्य के आश्रित हो और द्रव्य जिनका आधार हो वह गुण है।

ऐसा कहने से अतिव्याप्ति दोष आता है,क्योंकि कार्यद्रव्य,और कर्म भी तो द्रव्याश्रित रहते है।

तब ऐसा लक्षण क्यों कहा ? तो यंहा कारणद्रव्य को कार्यद्रव्य, गुण, और कर्म से हटाने के लिए कहा कि *द्रव्याश्रयी* अर्थात कारणद्रव्य किसी अन्य द्रव्य के आश्रित नही रहता;प्रत्युत अन्य कार्यद्रव्य,गुण,कर्मादि का आधार है।

यह चाहे हम वैशेषिक की मान्यता के आधार पर परमाणु में देखें या सांख्य की दृष्टि से सत्व,रजस,तम पर्यन्त देखें।

केवल द्रव्याश्रयी इतना कहने पर गुण का लक्षण नही होगा क्योंकि द्रव्य में तो कार्यद्रव्य,और कर्म भी रहते है। तो अतिव्याप्ति अब भी बनी हुई है उसे हटाने के लिए दूसरा लक्षण कहा *अगुणवान*=गुण में गुण नही रहता ऐसा कहकर कार्यद्रव्य को भी हटा दिया। क्योंकि कार्यद्रव्य में गुण रहते है,प्रत्युत गुण में गुण न रहने से कार्यद्रव्य जो द्रव्यआश्रित होते हुए अतिव्याप्ति दोष में आता था, वंहा से अगुणवान कहकर हटा दिया।

कोई भी कार्यद्रव्य में जो गुण कारण द्रव्य में होते है, वही गुण व अन्य गुण कार्यद्रव्य में होने से वह गुणवान है अर्थात गुणवाला है,जबकि गुण में गुण नही रहते इसलिए वंहा लक्षण किया अगुणवान।

अब कारणद्रव्य और कार्यद्रव्य दोनों हट गए,द्रव्याश्रयी से कारणद्रव्य हट गया कारणद्रव्य आश्रित नही होता अपितु आधार होता है। और अगुणवान कहकर कार्यद्रव्य को भी हटा दिया। अर्थात समवाय सम्बन्ध से गुण न रहते हो, वह गुण होता है। गुण में समवाय से गुण नही रहता;अपितु कार्यद्रव्य में गुण रहता है; अतः कार्यद्रव्य द्रव्याश्रयी होता हुआ भी अगुणवान् अर्थात गुणों का अनाश्रय नही है,प्रत्युत गुणों का आश्रय है।

जैसे तन्तु में स्थित रूपगुण वस्त्र के रूपगुण का कार्य है,न कि रूपका आश्रय क्योंकि गुण में गुण नही रहता।

इसप्रकार द्रव्याश्रयी,अगुणवान कहकर कारण,और कार्यद्रव्य को तो हटाया, तब भी कर्म से तो अतिव्याप्ति बनी हुई है।

क्योंकि कर्म भी द्रव्याश्रयी होता है,और कर्म में भी गुण नही रहते।

क्रमशः


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Thursday, September 6, 2018

*BARIA TREKKING FESTIVAL2018* Save forests save Wildlife.Beat Plastic Pollution.Baria Forest...


*BARIA TREKKING FESTIVAL2018*

Save forests save Wildlife.

Beat Plastic Pollution.


Baria Forest division with JFMC welcomes its participants and nature lovers to take part in trekking festival 2018.


_Trekking trails are located near the Ratanmahal Wildlife sanctuary._

Kindly fill below form to participate:

https://goo.gl/forms/tDtebDYtAWMUOOS42


TrekDetails:

Trek 1.“ Beauty of Satmatar Waterfall ” Date : 02-09-2018 GPS 22.57817 , 73.98876

https://goo.gl/maps/RgHRSZJPH7G2


Trek 2.“ Feel The WoodLand ” Date: 16-09-2018 GPS 22.57817 , 73.98876

https://goo.gl/maps/LzgnDdJZH9F2


Note : Registration will be closed before 24 hours of trekking date.


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बच्चों के मन में डालने वाली जरूरी बातें।*बच्चों को स्मरण करवाने योग्य वाक्य -**( क ) ईश्वर के गुण...

बच्चों के मन में डालने वाली जरूरी बातें।

*बच्चों को स्मरण करवाने योग्य वाक्य -*

*( क ) ईश्वर के गुण -*

१.सच्चिदानंदस्वरुप, २. निराकार ३.सर्वशक्तिमान, ४. न्यायकारी ,५. दयालु ६.अजन्मा ७.अनन्त |

*ईश्वर का मुख्य नाम ओ३म् है,*

( नोट:-बडे बच्चों को कुछ अन्य गुणवाचक नाम भी स्मरण करवाये जा सकते हैं- ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टि-कर्ता, सृष्टिहर्ता और मोक्ष दाता है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, महादेव, विराट, अग्नि, विश्व, हिरण्यगर्भ, वायु, तैजस, ईश्वर, आदित्य, प्राज्ञ, परम पुरुष, मनु, प्रजापति, इन्द्र, प्राण, ब्रह्म, रूद्र, कालाग्नि, दिव्य, सुपर्ण, गुरुत्मान्, मातरिश्वा, भूमि, आदि सब उसी एक ही ईश्वर के नाम हैं )

*( ख ) -ईश्वर के कार्य -*

१. ईश्वर सृष्टि की रचना करते हैं।

२. ईश्वर सृष्टि का पालन करते हैं|

३. ईश्वर सृष्टि का संहार करते हैं

४. ईश्वर वेदों का ज्ञान देते हैं।

५. ईश्वर अच्छे-बुरे कर्मों का फल देते हैं |

६. ईश्वर योगियों को मोक्ष प्रदान करते हैं |

*( ग ) ईश्वर के उपदेश -*

१. वेद पढो, वेद पढ़ाओ ।

२. सन्ध्या करो, हवन करो ।

३. सदा सच बोलो, मीठा बोलो ।

४. झूठ बोलना पाप है ।

५ . मांस अंडा खाना पाप है ।

६. पशुबलि पाषाण पूजा पाप है ।

*( घ ) ईश्वर से हमारा सम्बन्ध-*

१. ईश्वर हमारी माता है हम उसके पुत्र हैं।

२. ईश्वर हमारा पिता है हम उसके पुत्र हैं।

३. ईश्वर हमारा गुरू है हम उसके शिष्य हैं।

४. ईश्वर हमारा राजा है हम उसकी प्रजा हैं।

५. ईश्वर उपास्य है हम उसके उपासक हैं।

६. ईश्वर व्यापक है हम व्याप्य हैं।

*( ङ ) ईश्वर से प्रार्थना -*

१. हे ईश्वर ! हमें सद्बुद्धि दो।

२. हे ईश्वर हमारे सब दु:ख दुर्गुण दूर कर दो।

३. हे ईश्वर ! हमें सब बन्धनों से मुक्त कर दो।

४. हे ईश्वर ! सब सुखी हों, सबका मंगल हो।

५. हे ईश्वर ! सब ओर शान्ति ही शान्ति हो।

६. ओ३म् असतो मा सदगमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

मृत्योर्मा अमृतंगमय

••••••••••••••••••••••••••

( च ) -साधारण ज्ञान-

१.अनादि वस्तुएं - ईश्वर, जीव और प्रकृति। ( God ,Soul,Matter )

२. सृष्टि काल- चार अरब बतीस करोड़ वर्ष।

३. प्रलय काल- चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष।

४. मोक्ष काल- ३१ नील, १० खरब, ४० अरब वर्ष।

५. हमारे देश का मूल नाम – आर्यावर्त्त

६. अनादि का अर्थ- नित्य, शाश्वत ( eternal )

७.वेद संस्कृत में ही क्यों- क्योंकि संस्कृत को सीखने के लिये सबको एक जैसी मेहनत करनी पडती है और यह सबसे समृद्ध व वैज्ञानिक दैवी भाषा है।

•••••••••••••••••••••••••••••••

*माता पिता और गुरु जन अपने बच्चों को उपरोक्त वाक्य स्मरण करवाएं, बहुत अच्छे संस्कार पडेंगे |*


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Wednesday, September 5, 2018

नमस्ते जीगत पाठ में हम द्रव्य का गुण- कर्म से वैधर्म्य अर्थात विशेषता को जानने-समझने का प्रयत्न कर...

नमस्ते जी

गत पाठ में हम द्रव्य का गुण- कर्म से वैधर्म्य अर्थात विशेषता को जानने-समझने का प्रयत्न कर रहे थे; की द्रव्य न तो कारण का वध करता है,और न कार्य का। और न गुण का और न ही अपने समवायिकारण और असमवायिकारण का।

द्रव्यपदवाच्यं वस्तु ( कार्य कारणं च न वधति ) स्वीकार्य स्वान्वयि द्रव्यं कार्यभूतम्।

अर्थात जो भी वाच्य कारण द्रव्य अपने कार्य द्रव्य अर्थात जिन अवयवों से अवयवी कार्य है, उनका और अवयवों का नाश नही करता। तथानुगतगुणं और उनमे स्थित गुण को भी नष्ट नही करता।

अब गुणों का द्रव्य- कर्म से वैधर्म्य अर्थात विशेषता बताते है।

*उभयथा गुणा:।।१३।। ( १-१ )*

गुण में दोनों प्रकार देखे जाते है, अर्थात गुण अपने कार्य और कारण दोनों का नाश कर भी देते है,और नही भी करते। द्रव्य तो कार्य - कारण को नष्ट नही करता यदि गुण भी वैसे होता तो १२ सूत्र में समाविष्ठ कर देते।

यह गुणों में परस्पर साधर्म्य और द्रव्य गुण से वैधर्म्य है।

१) अब हम दृष्टान्त से देखें तो हल्दी और चुना पित, और श्वेत रूप के होते है उनसे जो भी कार्य गुण उत्पन्न होगा वह अपने कारण गुण पित और श्वेत को नष्ट कर देता है।

अब नही करता का देखें।

२) श्वेत तन्तु से वस्त्र बना; इसमें तन्तु में स्थित श्वेत रूप कारण गुण और उन तन्तु से बना वस्त्र में श्वेत रूप कार्यगुण।

अब यह वस्त्र में स्थित कार्यगुण अपने कार्यगुण को नाश नही करता।

तो यंहा कार्य से कारण का नष्ट होते हुए भी देखा गया और न होते हुए भी देखा।

अब कार्यगुण अपने कारण गुण का वध करते हुए देखेंगे।

१) आद्य: शब्द: कारणभूत: स्वानन्तरं कार्य न हन्ति, संयोगाजजायमान: शब्द: स्वकारणास्य संयोगस्य स्थितत्वान्नश्यति हि।।

अर्थात जो आरम्भ का शब्द संयोग आदि से उत्पन्न होकर आगे उत्पन्न होने वाले शब्द का कारण होता है, इसी प्रकार कारणभूत प्रथम शब्द, कार्यभूत अपने अनन्तर उत्पन्न हुए शब्द को नष्ट नही करता। किन्तु संयोग से उत्पन्न होने वाला कार्यरूप शब्द जब शब्द सन्तति से उत्पन्न होते होते जो अन्तिम शब्द होता है वह उपान्त्य अर्थात अन्तिम से पहले शब्द का नाश कर देता है। अर्थात दोनों एक दूसरे का नाश कर देते है।

इससे ज्ञात होता है,की गुण दोनों प्रकार के है, कार्यगुण अपने कारण का वध करता भी है,और नही भी करता; कारण गुण अपने कार्य का वध करता भी है,और नही भी करता।


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नमस्ते जीयंहा हमने ऋषि कणाद के सूत्रों के माध्यम से जाना कि, जो गुण जिस द्रव्य का हो, उसी द्रव्य के...

नमस्ते जी

यंहा हमने ऋषि कणाद के सूत्रों के माध्यम से जाना कि, जो गुण जिस द्रव्य का हो, उसी द्रव्य के आश्रित रहता है; अर्थात जो गुण समवायिकारण से जिस द्रव्य में होगा, उस गुण को जो साधन से ग्रहण किया जाता होगा उसी से ग्रहण होगा और उनके माध्यम से आत्मा अनुभूति कर सकती है, वंहा तक ठीक है, किन्तु *शब्द* को आत्मा के गुण में आरोपित करना व कहना दोष है।

अर्थात यह विपर्यय ज्ञान होने से, हमारा व्यवहार समीचीन न होकर अनुचित होगा जिसका विपाक दुःखों से युक्त होगा।

अतः हमें यथार्थज्ञान प्राप्त करवाने हेतु सूत्रकार महर्षि कणाद ने सूत्र के माध्यम से बताया कि :- *परत्र समवायत् प्रत्यक्षत्वाच्च नात्मगुणों न मनो गुण:।। २६ ।। ( २ - १ )*

अर्थात अन्यत्र समवेत ( एकत्र, संचित ) होने से और प्रत्यक्ष होने से शब्द न तो आत्मा का गुण है; न ही मन का गुण है।

यदि शब्द आत्मा का गुण होता, तो “ मैं सुखी हूँ”, ’ मैं दुःखी हूँ,’ इत्यादि अनुभूतियों के समान ‘मैं बज रहा हूँ,’ 'मैं शब्द वाला हूँ’ इत्यादि अनुभव होता। परन्तु ऐसा अनुभव नही होता; अपितु बाजा बज रहा है, घंटी बज रही है, रेडियो बज रहा है, व्हिसल बज रही है, इत्यादि अनुभव होता है।

यदि शब्द और आत्मा में समवाय होता तो आत्मा की अनुभूति उक्त प्रकार नही होती।

अतः शब्द आत्मा से अन्य द्रव्य में समवेत रहने से आत्मा का गुण नही मानना चाहिए।

यदि शब्द आत्मा का गुण हो, तो बधिर अर्थात जिसकी श्रोत्रन्द्रिय नष्ट हो गई हो ऐसे व्यक्तियों को भी शब्द उपलब्ध होना चाहिए जैसे सुख - दुःख की अनुभूति आत्मा को होती है।

यदि शब्द मन का गुण होता तो उसका प्रत्यक्ष न होता, क्योंकि मन का कोई गुण मन के महत् परिमाण वाला न होने से प्रत्यक्ष नही होता। जबकि *शब्द बाह्यकरण अर्थात बाह्य साधन श्रोत्रन्द्रिय से गृहीत होता है।

सूत्र में महर्षि ने *नात्ममनसोर्गुण:* समासयुक्त पाठ न करके अलग अलग पढ़ने से प्रत्यक्षत्वात् इस तुल्य हेतु से *दिशा* और *काल* में भी शब्द गुण के समवायिकारण का *निषेध* समझना चाहिए।


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नमस्ते जीउक्त आशंका का समाधान के लिए महर्षि भूमिका बांधते है; क्योंकि उक्त द्रव्यों में...

नमस्ते जी

उक्त आशंका का समाधान के लिए महर्षि भूमिका बांधते है; क्योंकि उक्त द्रव्यों में व्याप्य-व्यापक प्रत्यक्षपूर्वक है, इसलिए उन्ही सिद्धान्त से अप्रत्यक्ष गुणी के गुण को जान सकते है।

जो सूत्र के माध्यम से सूत्रकार महर्षि कणाद सिद्धान्त स्वरूप भूमिका में बताते है कि :- *कारणगुणपूर्वक: कार्यगुणो दृष्ट:

अर्थात कारण के गुण के अनुसार कार्य में गुण देखा गया है।

अर्थात कार्यद्रव्य में जो गुण होता है, वह कारण के गुणों के अनुसार होता है। जैसा तंतुओं का होगा, तदनुरूप वस्त्र का वैसा ही होगा। अर्थात वस्त्र के सफेदरूप का समवायिकारण वस्त्र है, असमवायिकारण तन्तुओं का सफेदरूप है।

अर्थात जिस अवयव से अवयवी के रूप में आता है तब अवयवीकार्य का समवायिकारण उनका अवयव और उन अवयवों का संयोग असमवायिकारण होता है शेष सब निमित्तकारण जानना चाहिए।

अर्थात तन्तुकारणगत सफेदरूप कार्य वस्त्र में अपने समानजातीय सफेदरूप का आरम्भक होता है।

यह स्थिति कार्यगुण कारण गुणपूर्वक होती है।

इसव्यवस्था के अनुसार इसके अनुरूप यदि वीणा आदि में श्रुयमाण शब्द ( सुनाई देता हुआ ) कारणगुणपूर्वक माना जाय, तो वीणा आदि के कारण-अवयवों में उसीका समानजातीय शब्द अभिव्यक्त होना चाहिये। पर उन अवयवों में ऐसा शब्द अभिव्यक्त किया जाता अनुभव में नही आता। तात्पर्य यह यदि रूपादि गुणों के समान शब्द पृथिवी आदि चार द्रव्यों में से किसी का गुण होता, तो जैसे कार्यगत रूपादि गुणों के समान कारण में गुण उपलब्ध होते है; वैसे ही वीणा आदि कार्यो में उपलब्ध शब्दगुण के समान ही शब्द वीणा आदि के कारण अवयवों में उपलब्ध होता; अपितु ऐसा नही होता, इसलिए शब्द को स्पर्शवाले पृथिवी आदि चार द्रव्यों में से किसीका गुण नही माना जासक्ता। यह स्पष्ट है वीणा आदि के कारण अवयव शब्द रहित होते हुए वीणा आदि कार्यों के आरम्भक होते है। तब कार्यगुण के कारणगुणपूर्वक होने के नियमानुसार पृथिवी आदि के चार द्रव्यों का लिङ्ग शब्द को नही कहा जासकता।

इसके अतिरिक्त पृथिवी आदि के रूपादि गुण से जब तक कार्यद्रव्य बना रहता है तब तक एक समान उपलब्ध होते है।

जैसे वस्त्र का सफेदरूप जब तक वस्त्र बना रहता है; तब तक एक- सा प्रतीत होते रहता है; उसमें तारतम्य ( विचित्रता ) प्रतीत नही होता। किन्तु वीणा आदि के द्वारा अभिव्यक्त शब्द मन्द, मन्दतर,म मन्दतम तथा तार, तारतर, तारतमरूप में उपलब्ध होता है; यद्यपि वीणागत रूप सदा समान बना रहता है। इससे स्पष्ट होता है, जैसे वीणा आदि का रूप गुण उसका अपना है, ऐसे शब्द गुण उसका अपना नही है।

तब शब्द किसका गुण होसक्ता है, यह अन्वेषण करना चाहिए।


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नमस्ते जीयंहा हम आकाश में निष्क्रमण प्रवेशन लिङ्ग आकाश के समवायिकारण व असमवायिकारण को लेकर आशंका कर...

नमस्ते जी

यंहा हम आकाश में निष्क्रमण प्रवेशन लिङ्ग आकाश के समवायिकारण व असमवायिकारण को लेकर आशंका कर रहे थे; तो यंहा हमने गत सूत्रों के माध्यम से जाना था कि विभु द्रव्यों में क्रिया नही होती और चेतन आत्मा में की भी अपनी स्वयं की क्रिया नही है तो फिर हम उसे द्रव्य कैसे जाने ?

तो क्रियावान में एक तो जिसकी क्रिया हो वह क्रियावान है, और जिसमें क्रिया हो वह भी क्रियावान है इस नियम से आकाश भी क्रियावान है।

जैसे मोटरगाड़ी की अपनी स्वयं की क्रिया नही किन्तु उनमें क्रिया है, परमात्मा में क्रिया नही किन्तु परमात्मा की क्रिया है, अथवा ऐसे जाने परमात्मा क्रिया होना सम्भव नही क्योंकि परमात्मा विभु होने से न तो वह स्वयं क्रिया कर सकता है, और न उसमें क्रिया करवाई जा सकती है, क्योंकि जिस किसी द्रव्य में क्रिया होती तब वह द्रव्य देशान्तर को प्राप्त होता है, अर्थात किसी एक निश्चिन्त स्थान से दूसरे निश्चिन्त स्थान पर गमन होने को क्रिया कहते है, चाहे स्थान की दूरी शर के बाल की नोक के बराबर हो।

किन्तु परमात्मा में वह भी सम्भव नही क्योंकि वह सर्वत्र व्यापक होने से परमात्मा में क्रिया न होकर परमात्मा की प्रेरणा से अन्य द्रव्यों को क्रिया कराने में समर्थ है।

वैसे ही आकाश, काल, और दिशा *में* क्रिया होती है, न कि आकाश, दिक्, काल *की* क्रिया ऐसा जानना चाहिए।

अब जब *में* क्रिया हो तो अन्य द्रव्य *की* क्रिया है, जिसका जितना सामर्थ्य होगा उतने काल तक क्रिया होगी तद्पश्चात; अर्थात जब तक कोई अवरोधक सामने नही आता, वंहा कारणों की अक्षमता क्रिया की समाप्ति का हेतु होता है।

हाथ से या बन्दूक से फेंके जाने की क्षमता सीमित होती है। उसके रहने तक क्रिया होती रहेगी न रहने पर समाप्त हो जाती है।

कार्य के अनेक कारणों में से जिस कारण के भाव का प्रभाव, व संयोग नही रहता अर्थात अक्षम हो जाता है, तो वह कार्य नही रहता।

आकाश या कोई अन्य असमग्र कारण न तो कार्य के आरम्भक है, और न ही उसे सुरक्षित रखने के आश्रय है।

अर्थात आकाश न तो कार्य को उत्पन करता है, और न ही सुरक्षित रख सकता है।

तो यंहा केवल आकाश को लेकर यह आशंका उठाई जाती है, की उसके कारण मानने पर अर्थात आकाश के रहने पर क्रियानिरन्तर बनी रहनी चाहिए; पर जिस द्रव्य में क्रिया समवेत है, उसके बने रहने पर जब तक वह बना रहे; क्रिया निरन्तर क्यों नही होती रहती ?

तो स्पष्ट है, की अन्य किसी कारणों की अक्षमता क्रिया को समाप्त कर देती है।

अतः निष्क्रमणादि क्रियाओं का आकाश निमित्तकारण है, उसी रूप में यह आकाश के लिङ्ग है।


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नमस्ते जीपूर्वपक्ष ने निष्क्रमण और प्रवेशन का आकाश के लिङ्ग में अन्वय और व्यतिरेक व्याप्ति से निषेध...

नमस्ते जी

पूर्वपक्ष ने निष्क्रमण और प्रवेशन का आकाश के लिङ्ग में अन्वय और व्यतिरेक व्याप्ति से निषेध किया उनका सूत्रकार समाधान करते हुए बताते है कि :- *संयोगादभाव: कर्मण:।। २३ ।। ( २ - १ )*

अर्थात संयोग से कर्म का अभाव होता है।

अतः आकाश किसी मूर्त द्रव्य की निष्क्रमणादि क्रिया का निमित्तकारण ही होता है।

अर्थात किसी भी द्रव्य का एक स्थान से वियोग या विभाग होकर अन्य स्थान से संयोग हो जाना ही क्रिया है। और यह संयोग - विभाग आकाश के बिना सम्भव नहीं हो सकते, अर्थात आकाश में ही संयोग या विभाग रूप क्रिया सम्भव है।

अतः मूर्तद्रव्य, क्रिया का समवायिकारण; आघात, संयोगादि असमवायिकारण; शेष सब साधन निमित्तकारण रहते है।

इसप्रकार काल,आकाश, दिशा आदि कार्यमात्र के निमित्तकारण माने जाते है।

तो यहां शंका होती है कि यदि आकाश कार्यो का निमित्तकारण है, तो धनुष से छोड़ा हुआ बाण, बंदूक से छुटी हुई गोली हाथ से फेंका गया पत्थर इत्यादि की क्रिया आकाश के नित्य एवं व्यापक होने से कभी समाप्त नही होनी चाहिए।

तो यंहा जानना चाहिए कि,प्रत्येक कार्य के अनेक कारण होते है; कोई भी आघात व नोदन की अपनी एक सीमा होती है, और प्रतिरोधक द्रव्यों से भी क्रिया समाप्त हो जाती है।

इससे क्रिया के प्रति आकाश की निमित्तकारणता में कोई बाधा नही आती


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*ईश्वर और अल्लाह एक नहीं हैं।* १) ईश्वर सर्वव्यापक (omnipresent) है, जबकि अल्लाह सातवें आसमान पर...

*ईश्वर और अल्लाह एक नहीं हैं।*

१) ईश्वर सर्वव्यापक (omnipresent) है, जबकि अल्लाह सातवें आसमान पर रहता है.

२) ईश्वर सर्वशक्तिमान (omnipotent) है, वह कार्य करने में किसी की सहायता नहीं लेता, जबकि अल्लाह को फरिश्तों और जिन्नों की सहायता लेनी पडती है.

३) ईश्वर न्यायकारी है, वह जीवों के कर्मानुसार नित्य न्याय करता है, जबकि अल्लाह केवल क़यामत के दिन ही न्याय करता है, और वह भी उनका जो की कब्रों में दफनाये गए हैं.

४) ईश्वर क्षमाशील नहीं, वह दुष्टों को दण्ड अवश्य देता है, जबकि अल्लाह दुष्टों, बलात्कारियों के पाप क्षमा कर देता है.

५) ईश्वर कहता है, “मनुष्य बनों” *मनु॑र्भव ज॒नया॒ दैव्यं॒ जन॑म् - ऋग्वेद 10.53.6*,

जबकि अल्लाह कहता है, *मुसलमान बनों.* _सूरा-2, अलबकरा पारा-1, आयत-134,135,136_

६) *ईश्वर सर्वज्ञ है*, जीवों के कर्मों की अपेक्षा से तीनों कालों की बातों को जानता है, जबकि *अल्लाह अल्पज्ञ है*, उसे पता ही नहीं था की शैतान उसकी आज्ञा पालन नहीं करेगा, अन्यथा शैतान को पैदा क्यों करता?

७) ईश्वर निराकार होने से शरीर-रहित है, जबकि अल्लाह शरीर वाला है, एक आँख से देखता है.

_ऐसे तो अनेक प्रमाण हैं, किन्तु इतने से ही बुद्धिमान लोग समझ जायेंगे की ईश्वर और अल्लाह एक नहीं हैं._

प्रेषक-

सुमन कुमार वैदिक, आर्यावर्त केसरी (पाक्षिक)


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Friday, August 31, 2018

◼️महर्षि ने क्या किया? क्या दिया?◼️✍🏻 लेखक - स्वामी सत्यानंद जी स्वामी दयानन्द महाराज समय...

◼️महर्षि ने क्या किया? क्या दिया?◼️

✍🏻 लेखक - स्वामी सत्यानंद जी

स्वामी दयानन्द महाराज समय की आवश्यकता की मूर्ति थे। इस कारण उनका कार्य अत्यन्त सच्चा तथा उत्तम था। उन्होंने अपने जीवन काल में जो कार्य बड़े बल से किया था उसके चार भाग हैं। उनके कार्य का प्रथम भाग एक अखण्ड निराकार ईश्वर का विश्वास जनता में उत्पन्न करना था। इस कार्य को उन्होंने अपनी समस्त शक्ति से किया था। ईश्वर विषयक जितनी भ्रान्तियाँ फैली हुई थीं उनको दूर करने में उन जैसा कोई विरला ही मनुष्य हुआ होगा जिसने भ्रम-भञ्जन के लिए इतना प्रयत्न, ऐसा उद्योग किया हो। जन साधारण की तथा सुपठित लोगों की यही धारणा था कि वेदों में अनेक देवी-देवताओं का पूजन पाया जाता है। वेद अनेक देवताओं की आराधना का वर्णन करते हैं।

◼️ वेद का ईश्वर एक है, एक है और एक ही हैः- परन्तु यह शोभा श्री स्वामी जी को ही प्राप्त हुई कि उन्होंने वेद के प्रमाणों से तथा वैदिक साहित्य के उदाहरणों से यह सिद्ध कर दिखाया कि वेद अनेक नामों से एक ही परमात्मा का गुणगान करते हैं। वेद में एक ही ईश्वर का वर्णन है। वेद एक ही परमदेव का आराधन बताते हैं तथा एक ही ब्रह्म की उपासना का उपदेश देते हैं।

◼️ वेद में एकेश्वरवाद सिद्ध करने में सफल रहेः- जो विद्वान् वेद में देवताओं के अनेक नामों को देखकर यह मानते हैं। कि वेद में अनेकेश्वरवाद है उनको चाहिए कि वे स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों का मनन करें। उनकी युक्तियों को जाँचे-परखें। उनकी शैली को समझें। मेरे विचार में स्वामी जी महाराज अपने कार्य के इस भाग में अपने जीवन काल में ही सफल हो गये थे।

◼️ जगत् मिथ्या को भ्रान्त मतः- स्वामी जी के कार्य का दूसरा भाग नाना आत्मवाद है। जीव असंख्य हैं, यह वैदिक मान्यता है। यह युग दार्शनिक युग है यह विज्ञान का युग है। यह कल्पना का युग है। इस युग में नाना आत्मवाद को (जीव की स्वतन्त्र सत्ता तथा जीव असंख्य हैं) सिद्ध करना श्री स्वामी जी

का ही कार्य था। शंकर आदि महामान्य आचार्यों के तथा पश्चिमी विद्वानों के विचारों को देखकर जनता मोहित हो रही थी। ऐसे समय में त्रैतवाद का मण्डन करना बड़ा कठिन कार्य है परन्तु श्री स्वामी जी ने कुछ ऐसी सहज युक्तियाँ सत्यार्थप्रकाश में दी हैं जिन्हें समझकर नवीन वेदान्त का (शांकर मत-जगत् मिथ्या) का सकल दुर्ग आप ही भ्रान्ति रूप में देखने लग

जाता है।

◼️ वैदिक सभ्यता का उद्धारः- स्वामी जी महाराज का तीसरा बड़ा कार्य वैदिक सभ्यता का उद्धार था। यह कार्य आपने अत्यन्त वीर भाव से किया। इस कार्य में उनको देशियों व विदेशियों (अपनों तथा परायों) दोनों के विरोध का सामना करना पड़ा। महाराज के जीवन काल में लोगों का अधिक निश्चय यही था कि वर्तमान काल ही स्वर्ण युग है। सब दृष्टियों से यह समय सुन्दर है। यह युग प्रत्येक प्रकार से उत्तम युग है। यह युग प्रत्येक प्रकार से आदर के योग्य है। महाराज ने ऐसे निश्चय के विरुद्ध एक सैनिक की भाँति संग्राम किया तथा एक विजेता की भाँति वे आदर से देखे गये। आर्य जाति के जीवन की जड़ को दृढ़ करने के लिए स्वामी जी का यह कार्य अमृत के समान सिद्ध हुआ।

स्वामी जी के कार्य का चौथा भाग सामाजिक सुधार था। इस कार्य को करते हुए महर्षि को घोर विरोध का सामना करना पड़ा। समाज सुधार के-कुरीति निवारण के लिए संग्राम करते हुए उनको घरेलू वाद-विवाद में बहुत ही समय बिताना पड़ा। ऐसा जान पड़ता है कि जाति ने उनके सुधार कार्य को अपना लिया है। आज सुधार की चर्चा सर्वत्र विराट् रूप धारण कर रही है।

[ विशेष टिप्पणीः- स्वामी जी का यह लेख ‘प्रकाश’ के ऋषि-निर्वाण अंक पृष्ठ 7 पर 8 नवम्बर सन् 1931 में प्रकाशित हुआ था। ‘जिज्ञासु’ ]

लेखक - स्वामी सत्यानंद जी (📖पुस्तक - सत्योपदेशमाला)

साभार - प्रो० राजेंद्र जिज्ञासु जी (अनुवादक)

॥ओ३म्॥

🔥वैचारिक क्रांति के लिए “सत्यार्थ प्रकाश” पढ़े🔥

🌻वेदों की ओर लौटें🌻

प्रस्तुति - 📚आर्य मिलन


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Thursday, August 30, 2018

नमस्ते जीकल के प्रश्न में जिज्ञासा थी कि निष्क्रमण और प्रवेशन का समवायिकारण आकाश नही है तो क्या...

नमस्ते जी

कल के प्रश्न में जिज्ञासा थी कि निष्क्रमण और प्रवेशन का समवायिकारण आकाश नही है तो क्या असमवायिकारण है ?

तो उक्त शंका का समाधान करते हुए सूत्रकार महर्षि कणाद ने सूत्र के माध्यम से बताया कि :- *कारणान्तरानुक्लृप्तिवैधर्म्याच्च।। २२ ।। ( २ - १ )*

अर्थात उक्त दोनों कर्मो का कारण नहीं, क्योंकि उसमें कारण का लक्षण नही पाया जाता।

*समवायिकारणादन्यत्कारणं कारणान्तरम्* अर्थात जिसमें समवाय सम्बन्ध से कारण उत्पन्न होता है उसका नाम *समवायिकारण* तथा उससे भिन्न कारण का नाम *कारणान्तर* है, और कारणान्तर के लक्षण को *कारणान्तरानुक्लृप्ति* कहते है। जैसे निष्क्रमण और प्रवेशनरूप कर्म का आकाश में समवाय न होने से वह उनका समवायिकारण नहीं वैसे ही आकाश में कारणसामान्य का लक्षण न होने से वह उन कर्मों का कारणान्तर भी नही हो सकता अर्थात असमवायिकारण कारण भी नही होता क्योंकि असमवायिकारण कारण कभी भी द्रव्य नही होता और आकाश द्रव्य है।

अतः उक्त दोनों कर्म उसकी सिद्धि में लिङ्ग नहीं अर्थात कारण का कार्य अथवा कार्य का कारण लिङ्ग होता है, जिनका परस्पर कार्य-कारणभाव नहीं उनका परस्पर *लिङ्ग लिङ्गीभाव* नहीं होसक्ता और कारण लक्षण से विरुद्ध धर्मवाला होने के कारण आकाश उक्त दोनों कर्मो का कारण नहीं, इसलिए वह कार्यरूप से उसकी सिद्धि में लिङ्ग भी नहीं।

यंहा कहने का भाव यह है कि अन्वय और व्यतिरेक द्वारा ही कार्य -कारणभाव का निश्चय होता है, अन्यथा नहीं, कारण के होने का नाम *अन्वय* तथा कारण के न होने से कार्य का न होने का नाम *व्यतिरेक* है अर्थात भाव और अभाव जो अपने कार्य की उत्पत्ति के अव्यवहित पूर्वक्षण में विद्यमान हो उसको *कारण* कहते है।

उक्त अन्वय व्यतिरेक का पदार्थो के कार्य-कारण भाव में अव्यभिचारी नियम है, परन्तु उक्त नियम के अनुसार निष्क्रमण तथा प्रवेशन रूप कार्य के प्रति आकाश का अन्वय व्यतिरेक नही पाया जाता, क्योंकि जैसे वह कार्य की उत्पत्ति क्षण से पूर्व विद्यमान है वैसे ही कार्योत्पत्ति के अनन्तर क्षण में भी विद्यमान है,इसलिए उसका कार्य के प्रति अन्वय नही होसक्ता और व्यतिरेक के न होने में कारण यह है कि जैसे *मृदभावेघटाभाव:* अर्थात मृतिका के न होने से घट का अभाव होता है इस प्रकार मृत्तिका के अभाव की घटाभाव के साथ व्याप्ति पाईजाती है वैसे *यत्राकाशाभावस्तत्र निष्क्रमणाद्यभाव:*

अर्थात जहां आकाशभाव है,वंहा निष्क्रमण तथा प्रवेशन कर्म का भी अभाव है, अर्थात उसप्रकार आकाशभाव की निष्क्रमणादि कर्मों के अभाव के साथ व्याप्ति नही पाईजाती, क्योंकि सर्वदा सर्वत्र समान बने रहने से आकाश का अभाव नहीं, इसप्रकार अन्वय व्यतिरेक रूप कारणधर्म से विरुद्ध धर्मवाला होने के कारण आकाश उक्त दोनों कर्मो का कारण नही होता।

अतः वह कार्यरूप से उसकी सिद्धि में लिङ्ग भी नही है।


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**** आत्मीकोन्नति होने से खुशी, शांति और सुख मिलता है. यदि त्रिगुण को संयम करेगा तो त्रिकरण शुद्ध...

**** आत्मीकोन्नति होने से खुशी, शांति और सुख मिलता है.

यदि त्रिगुण को संयम करेगा तो त्रिकरण शुद्ध होते हैं, तो आत्मा का वुन्नति होती है।

त्रिगुण 1: सत्वगुण = जिन में सत्वगुण होता है वे सभी लोगोंसे मधुर भाषण करता है. सोच-समज के बात करता है. बूढी अच्छी काम करती है. ज्ञान से परमात्मा से जुड़े रहते है.

2 राजोगुण : कठिन से बात करते है. अनवसर बाते ज्यादा करते है. भुद्धि और ज्ञान कम। परमात्मा से जुड़े रहना आलस्य होता है.

3 रजोगुण : सब लोगोंकी गलतियों की गिनती रहती है। सब लोगोंकी गलतियों की लिस्ट बना के रख के हमेशा वो लिस्ट देखते सोचते रहते है.

दूसरोंके बात तीसरेको बोलते- तीसरे के बात दूसरे को बोलते रहते है. इसमें इनको राक्षस आनंद मिलता है.

अनवसर भाषण ज्यादा करते है. अभूत कल्पन, भ्रम के बात करते है. सबसे कठिन व्यवहार करते है. यिन को भुद्धि और ज्ञान नहीं रहता. इनको परमात्मा मिलना दुर्लभ है.

**त्रिकरण शुद्धि. मनमे क्या सोच रहे है वही बातों में रहना- बातों में क्या बोली वही काम करना.

**इस लिए महर्षि दयानन्द कहा…

हर दिन १ घंटा ध्यान करना.

हर दिन संध्या करना.

ध्यान और संध्या करने वालोंको द्वेष ही नहीं रहता.

**संध्या करने वाले के मुँह में प्रसन्नता और ब्रह्मत्व रहता।

**संध्या करने वाले सबसे प्रीतिपूर्वक व्यवहार करता है. हसमुख रहता.

**मधुर भाषा होती.

**संध्या करने वाले कभी कपट व्यवहार नहीं करता.

——हरिदास आर्य

वैदिक पुरोहित, योगाचार्य, नित्याग्निहोत्री,

आयुर्वेद और नीति विद्या बोधक.

इन्दुर (निज़ामाबाद, ), तेलंगाना.

सेल : ९८४९२ ५९०११

*****आर्यों से विनती है… की हमारा घर में वेद, शास्त्र, वउपनिषद आदि पुस्तक है. आप सबको सादर आह्वान.


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Wednesday, August 29, 2018

◙ *दुनिया में इतनी अशांति / धांधली क्यों है?* _____________________________ईसाई जगत की मान्यता रही...

◙ *दुनिया में इतनी अशांति / धांधली क्यों है?*

_____________________________

ईसाई जगत की मान्यता रही है कि बाईबल “ईश्वरीय वचन” है, और वे इसे परमेश्वर के शुभ समाचार के रूप में ही प्रचारित करते रहे है. बाईबल स्वयं भी कहती है कि, “All scripture is inspired by God…” अर्थात् “समस्त धर्मशास्त्र (बाईबल) की रचना परमेश्वर की प्रेरणा से हुई है…” (2 Timothy 3:16) जैसे मुसलमान लोग “इस्लाम शांति का मजहब है”, “मजहब के मामले में कोई जबरदस्ती नहीं” आदि टाईप के “अल-तकिया” का इस्तेमाल कर इस्लाम के वास्तविक चरित को छुपाकर गैर-मुस्लिमों में भ्रम फैला रहे है, उसी तरह “पर्वत पर उपदेश” (Sermon on the Mount) वाले यीशु के कुछ वचनों की आड में ईसाई लोग ठिक वही करते रहे है. “But I say to you, ‘Do not resist an evildoer. But if anyone strikes you on the right cheek, turn the other also…’” अर्थात् “किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि दुष्ट का विरोध मत करो, वरन् जो तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड मारे तो उसके आगे दूसरा गाल भी फेर दो…” (Matthew 5:39) और “If anyone strikes you on the cheek, offer the other also; and from anyone who takes away your coat do not withhold even your shirt.” अर्थात् “यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड मारे तो उसके आगे दूसरा गाल भी धर दो, और यदि कोई तुम्हारा कोट छिन ले तो उसे तुम्हारा शर्ट भी दे दो”. (Luke 6:29)

ये उपदेश अव्यवहारू (impractical) होने के बावजूद, निस्सन्देह एक सीमा तक अहिंसा के लिए यह अच्छा उपदेश है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि ये वचन यीशु के अपने मौलिक है क्योंकि यीशु से सदीयों पूर्व लाओ-त्से और महात्मा बुद्ध द्वारा भी यही कहा गया था. और वैसे भी यीशु के इन वचनो का उनके ईसाई / मसीही अनुयायीयों ने कितना पालन किया इसका साक्षी पिछले 2000 सालों का ईसाईयत का काला व् क्रूर इतिहास है!! सवाल यह भी है कि क्या स्वयं यीशु ने भी इन उपदेशों का पालन किया था? यदि यीशु वास्तव में अहिंसा, प्रेम, सद्भाव और शांति की प्रतिमूर्ति था, जैसा कि प्रचारित किया जाता है, तो निम्नलिखित वचन किसके है?

▪ “I came to bring fire to the earth, and how I wish it were already kindled! Do you think that I have come to bring peace to the earth? No, I tell you, but rather division! From now on five in one household will be divided, three against two and two against three; they will be divided: father against son and son against father, mother against daughter and daughter against mother, mother-in-law against her daughter-in-law and daughter-in-law against mother-in-law.” अर्थात् “मैं पृथ्वी पर आग लगाने आया हूँ, और मैं चाहता हूँ कि यह अभी सुलग जाए. क्या तुम समझते हो कि मैं पृथ्वी पर शांति स्थापित करने आया हूँ? मैं कहता हूँ ‘नहीं’, वरन् विभाजन करने आया हूँ. क्योंकि अब से एक ही परिवार के पांच सदस्य एक-दूसरे के विरुद्ध हो जाएगे – दो के विरुद्ध तीन और तीन के विरुद्ध दो. वे एक-दूसरे का विरोध करेंगे - पिता पुत्र का और पुत्र पिता का, माता पुत्री का और पुत्री माता का, सास बहू का और बहू सास का (विरोध करेंगे). (Luke 12:49,51-53)

▪ “Do not think that I have come to bring peace to the earth; I have not come to bring peace, but a sword. For I have come to set a man against his father, and a daughter against her mother, and a daughter-in-law against her mother-in-law; अर्थात् “यह न समझो कि मैं पृथ्वी पर शांति स्थापित करने आया हूँ; मैं शांति स्थापित करने नहीं आया हूँ, वरन् मैं विभाजन करने वाली तलवार के साथ आया हूँ. मैं पुत्र को अपने पिता के विरुद्ध, पुत्री को अपनी माता के विरुद्ध, और बहू को अपनी सास के विरुद्ध खडा करने आया हूँ. (Matthew 10:34-35)

और सम्भवतः लोगों कि बीच यह फुट डालने के और एक-दूसरे दुश्मन बनाने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही आगे और उपदेश दिए है…

▪ “And the one who has no sword must sell his cloak and buy one” अर्थात् “और जिसके पास तलवार नहीं है उसे अपना वस्त्र (अंगरखा) बेचकर भी तलवार मोल लेनी चाहिए”. (Luke 22:36)

▪ “Whoever is not with me is against me” अर्थात् “जो मेरे साथ नहीं वह मेरे विरोध में है”. (Luke 11:23)

“वस्त्र (अंगरखा) बेचकर भी तलवार मोल लेनी चाहिए!!” – पर क्यों? सब्जी काटने के लिए?, और “जो मेरे साथ नहीं वह मेरे विरोध में है!!” – कैसे? क्या “किसी के साथ न होना / किसी का साथ न देना” और “उनके विरोध में होना” एक ही बात है?

ईसाई जगत में यीशु विषयक और यीशु की भविष्यवाणीयों के बारे में बडे बडे दावे किये जाते रहे है, लेकिन इस विषय के विद्वानों ने, विशेषकर पिछले 200-250 वर्षों में, उन तथाकथित भविष्यवाणीयों की असलियत दुनिया के सामने रख दी है, लेकिन ईसाई लोग इस तथ्य पर बिना किसी विरोध का सामना किए अपना दावा कर सकते है कि उपर दिए गए Luke 12:49, 51-53 और Matthew 10:34-35 वाले उद्धरणों में यीशु द्वारा कहे गए शब्द शत प्रतिशत सच साबित हुए है!! प्रारम्भ से लेकर आधुनिक काल तक ईसाईयत का पूरा इतिहास इस तथ्य का ठोस गवाह है।


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Tuesday, August 28, 2018

सूर्य पर जीवन का सिद्धांत =================1. “एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्र, अनेक भूमियो...

सूर्य पर जीवन का सिद्धांत

=================

1. “एक भूमि के पास एक चन्द्र और

अनेक चन्द्र, अनेक भूमियो के मध्य में एक सूर्य रहता है।“

देखिये यहाँ पर महर्षि दयानंद ने स्पष्ट रूप से सौर मंडल का चित्रण किया है।

और एक नहीं अनेक सौर मंडलों का वर्णन किया है।

जबकि अन्य किसी भी धर्म/ सम्प्रदाय की पुस्तक में अन्य सौर मंडलों की तो छोड़िये

सूर्य के अतिरिक्त अन्य किसी सूर्य की कल्पना भी नहीं की गयी है।

2. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इनका नाम वसु इसलिए है क्योंकि इन्ही में सब पदार्थ और प्रजा वसती है और ये ही सबको वसाते हैं।

इन वसुओ में ही सब पदार्थ और प्रजा वसती है। इनके अतिरिक्त किसी स्थान पर नहीं।

इन्ही सब पदार्थो से प्रजा (प्रकृति और जीव का सम्मिलन) उत्पन्न होते हैं।

3. जब पृथ्वी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र हैं, पश्चात् उनमे इसी प्रकार (मनुष्य आदि) प्रजा के होने में क्या सन्देह ?

इस बात को समझने के लिए एक उदहारण लेते हैं।

एशिया आदि महाद्वीपों में हाथी आदि जंगली जीव बसते हैं

इसका अभिप्राय यह नहीं कि पुरे एशिया में हाथी बसते हैं। इसका अभिप्राय यह भी नहीं कि सभी महाद्वीपों में हाथी बसते हैं।

ईरान, अफगानिस्तान, रूस आदि में हाथी नहीं पाए जाते। अमरीका, यूरोप आदि में भी नहीं पाए जाते। परन्तु अन्य जंगली जीव बसते हैं।

उसी प्रकार विभिन्न वसुओं पर विभिन्न योनि के जीव बसते हैं।

4. यहाँ पर यह प्रश्न उठता है

कि सूर्य पर 5500 डिग्री से अधिक तापमान है तो वहां प्रजा कैसे हो सकती है।

उत्तर : यह कोई आवश्यक नहीं कि सूर्य, मंगल, बृहस्पति, टाइटन आदि वसुओ पर पृथ्वी के स्वरूप में ही प्रजा हो।

बहुत संभव है कि विभिन्न पाप-पुण्य कर्मो स्तर वाले जीवो को वहां पर भोगने हेतु जन्म मिलता हो।

जैसे महासागरो में हाथी तो जन्म नहीं मिलता और वन में व्हेल मछली को नहीं ।

5. पृथ्वी के महासागरो में कई किलोमीटर नीचे रंगहीन जंतु पाए गए हैं।

उनको देखे जाने से पहले कोई सोच भी नहीं सकता था

कि बिना हाइड्रोकार्बन की उपलब्धता के भी जीवन संभव है।

जब मनुष्य सूर्य आदि पर पहुँचने का सामर्थ्य हासिल कर लेगा तो अवश्य ही उन जन्तुओ को देख पायेगा।

अभी तक तो पृथ्वी के ही 97% महासागरो का ही अन्वेषण बाकि है।

हाल ही में विश्व की सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक संस्था नासा के वैज्ञानिकों ने सूर्य पर जीवन होने के सिद्धांत को स्वीकार किया है और अरबों डालर खर्च करके इस सिद्धांत पर शोध हो रहा है।

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

http://science.nasa.gov/science-news/science-at-nasa/2008/07nov_signsoflife/

जबकि महर्षि दयानंद ने लगभग 150 वर्ष पहले इस सिद्धांत को प्रस्तुत कर दिया था।

Scientists Theorize Sun Could Support Fire-Based Life

theonion.com


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*🔥 ओ३म् 🔥**चाणक्यनीतिदर्पण**_सप्तदशोऽध्यायः, श्लोक सं.-20_**व्यालाश्रयाऽपि विफलापि सकण्टकाऽपि...

*🔥 ओ३म् 🔥*

*चाणक्यनीतिदर्पण*

*_सप्तदशोऽध्यायः, श्लोक सं.-20_*

*व्यालाश्रयाऽपि विफलापि सकण्टकाऽपि ।*

*वक्राऽपि पङ्किल-भवाऽपि दुरासदाऽपि ।*

*गन्धेन बन्धुरसि केतकि सर्वजन्तोर्*

*एको गुण: खलु निहन्ति समस्तदोषान् ।।२०।।*

*भावार्थ*―हे केतकि! यद्यपि तू साँपों का घर है, फल से रहित है, काँटों से युक्त है, टेढ़ी भी है, उत्पन्न भी कीचड़ में होती है, प्राप्त भी कठिनता से होती है―इतना सब कुछ होने पर भी तू केवल अपने गन्ध के गुण के कारण सब प्राणियों के मन को मोह रही है। इससे निश्चय होता है कि एक भी गुण सारे दोषों को दूर कर देता है।

*विमर्श*―मनुष्य को अपने जीवन में गुणों का विकास करना चाहिए। एक भी गुण मनुष्य को पूज्य बना देता है।

★★★★★★★★★★★★★★★★★

*यह चाणक्यनीतिदर्पण का आर्यभाषानुवाद में सत्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।।१७।।*

[ *अनुवादक: _स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती_* ]

*एक प्रकार का सुगन्धित पुष्प है–केतकी।*


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*◙ बाईबल में यीशु की एक भविष्यवाणी की समीक्षा* *बेकग्राउन्ड / भूमिका:* बाईबल के पुराने करार (Old...

*◙ बाईबल में यीशु की एक भविष्यवाणी की समीक्षा*

*बेकग्राउन्ड / भूमिका:*

बाईबल के पुराने करार (Old Testament) में Jonah नामक एक पुस्तक सम्मिलित है, जिसमें *योना (Jonah)* नामक एक पयगम्बर / नबी / प्रोफेट की कहानी है. उसमें लिखा है कि एक दिन योना एक जलयान में यात्रा कर रहे थे. मार्ग में तूफान आने पर नाविकों ने योना को समुद्र में फेंक दिया. तब प्रभु के आदेश पर एक बडा मच्छ योना को निगल जाता है. योना *तीन दिन और तीन रात तक* उस मच्छ के पेट में पडा रहता है. योना मच्छ के पेट में अपने प्रभु परमेश्वर से प्रार्थना करता है और अन्त में प्रभु परमेश्वर के आदेश पर वह मच्छ पयगम्बर योना को समुद्र के तट पर उगल देता है. (Jonah 1:1-17)

*यीशु की एक भविष्यवाणी:*

कहा जाता है कि यीशु की मृत्यु के पश्चात उनके शव को एक कब्र में रखा गया था, जहाँ से वे कुछ समय पश्चात पुनर्जीवित होकर गायब हो गए थे. इस सम्बन्ध में स्वयं यीशु के वचनों (Mathew 12:39-40) को ईसाईयों द्वारा एक भविष्यवाणी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यीशु कहते है कि “यह पीढी दुष्ट है; अपने प्रभु के प्रति निष्ठावान नहीं है. यह पीढी चिन्ह (sign) मांग रही है, परंतु इसे नबी योना के चिन्ह के अतिरिक्त अन्य कोई चिन्ह नहीं दिया जाएगा. यीशु आगे कहता है, “For just as Jonah was three days and three nights in the belly of the sea monster, so for *three days and three nights* the Son of Man will be in the heart of the earth” अर्थात् “जैसे योना *तीन दिन और तीन रात* तक उस समुद्री जीव के पेट में रहा था, उसी प्रकार मानव-पुत्र भी *तीन दिन और तीन रात* तक भूमि के भीतर रहेगा”. (Mathew 12:40)

इस सम्बन्ध में बाईबल के इन वचनों और घटनाक्रम पर ध्यान देना अत्यन्त जरूरी है:

* …सुबह में नौ बजे यीशु को क्रूस पर चढाया गया. (Mark 15:25)

* …दोपहर होने पर समस्त देश में अन्धकार छा गया, और यह अन्धकार तीन बजे तक रहा. (Mark 15:33)

* …लगभग तीन बजे यीशु ने उच्च स्वर में कहा, “Eloi, Eloi, lema sabachthani?” अर्थात् “My God, my God, why have you forsaken me?” अर्थात् “मेरे प्रभु, मेरे प्रभु, तुने मुझे क्यों छोड दिया?” (Mark 15:34) और अंत में यीशु ने प्राण त्याग दिया. (Mark 15:37)

* …अब संध्या हो गई थी, यह “विश्राम दिन” (Sabbath/शनिवार) के “पूर्वतैयारी का दिन” (शुक्रवार) था. (Mark 15:42)

* …पिलात (Pilate) ने यूसुफ को यीशु का शव दे दिया. यूसुफ ने मलमल के कपडे में यीशु के शव को लपेटकर चट्टान में खुदी हुई कबर में उसको रख दिया और कबर के द्वार पर एक भारी पत्थर लुढका कर लगा दिया. (Mark 15:45-46)

* …विश्राम दिन समाप्त होने पर मरियम मगदलीनी, जेम्स की माता मरियम, और सलोमी ने सुगन्धित द्रव्य मोल लिए ताकि वे जाकर यीशु के शरीर पर लगा सके. (Mark 16:1)

* …सप्ताह के पहले दिन (अर्थात् रविवार को) सवेरे सवेरे जब सूर्य उदय ही हुआ था तब वे कबर के पास गई. (Mark 16:2)

* …पर कबर पर पहुंचकर देखा कि कबर के द्वार से पत्थर हटा हुआ था (Mark 16:4)

* …कबर के भीतर प्रवेश करने पर पाया कि सफेद वस्त्र पहने हुए एक युवक दाहिनी ओर बैठा था. (Mark 16:5)

* …पर उस युवक ने उन स्त्रीयों से कहा, आश्चर्यचकित मत हो, तुम यीशु को ढूंढ रही हो. वह जीवित हो उठे है; वह यहाँ नहीं है… (Mark 16:6)

* …सप्ताह के पहले दिन (अर्थात् रविवार को) प्रातःकाल जी उठने पर यीशु ने सर्वप्रथम मरियम मगदलीनी को दर्शन दिया… (Mark 16:9)

यीशु स्वयं यहूदी थे, और यहूदी परम्परा के अनुसार “विश्राम दिन” (Sabbath) कहते है शनिवार को. विश्राम दिन से पूर्व तैयारी का दिन अर्थात् शुक्रवार, और सप्ताह का पहला दिन अर्थात् रविवार. यहूदी और ईसाई परम्परा के अनुसार परमेश्वर यहोवा ने रविवार से शुक्रवार तक छ: दिनों में सृष्टि की रचना की और सप्ताह के सातवें / अन्तिम दिन (शनिवार को) थक कर विश्राम किया. प्रारम्भ में ईसाई लोग भी शनिवार को “विश्राम दिन” (Sabbath) मनाकर पूजा-अर्चना करते थे, पर कालान्तर में यहूदीयों से अलग अस्तित्व के रूप में, और विशेषकर यीशु के कबर में से जी उठने (resurrection) के कारण सप्ताह का पहला दिन रविवार प्रार्थना-आराधना के लिए विशेष महत्वपूर्ण हो गया. (देखें Acts 20:7, 1 Corinthians 16:2, आदि)

अब इस पूरे घटनाक्रम पर पुन: दृष्टिपात कर विचार कीजीए…

(1) विश्राम दिन के पूर्वतैयारी के दिन (अर्थात् शुक्रवार के दिन) दोपहर तीन बजे के पश्चात यीशु ने प्राण त्याग दिए और उसी दिन सन्ध्या के पश्चात शव को कब्र में रखा गया.

(2) दुसरा दिन (अर्थात् शनिवार) “विश्राम दिन” होने से कुछ नहीं हुआ.

(3) अगले दिन अर्थात् रविवार को जब सूर्य अभी उदय ही हुआ था और महिलायें कबर पर पहुंची उससे पहले यीशु कबर में नहीं थे, अर्थात् पुनर्जीवित हो उठे थे !!

संक्षेप में कहा जाए तो यीशु शुक्रवार की रात्री से लेकर अधिकतम रविवार की प्रातःकाल तक कब्र में रहे. “अधिकतम” शब्द इस लिए कि शनिवार के दिन तो कबर पर पहरा लगा दिया गया था. विश्राम/ शनिवार के दिन महापुरोहितों और फरीसियों ने पिलात के पास जाते है और कहते है, “Sir, we remember what that impostor said while he was still alive, ‘After three days I will rise again’.” अर्थात् “हमें याद है कि जब वह ढोंगी (यीशु) जीवित था तब उसने कहा था, ‘तीन दिन के पश्चात में मैं पुन:जीवित हो उठुंगा’.” अत: आज्ञा दिजिए कि तीन दिन तक कबर पर पहरा दिया जाए, कहीं ऐसा न हो कि उसके चेलें उसके सव को चुरा ले जाए और लोगों से कहने लगें, ‘वह मृतकों में से जीवित हो उठा है’. यदि ऐसा हुआ तो यह अन्तिम धोखा पहले धोखे से भी बुरा होगा. और इस तरह उन लोगों ने कबर के मुंह पर मुहर (seal) लगाकर वहाँ पहरेदारों को बिठा दिया और कबर को सुरक्षित कर दि गई थी. (देखें Mathew 27:62-65).

इस तरह शुक्रवार की रात्री से लेकर रविवार की सुबह तक कुल मिलाकर होते है – दो रात्री और एक दिन. (1) शुक्रवार की रात्री (2) शनिवार का दिन, और (3) शनिवार की रात्री, जिनका योग होगा लगभग छ्त्तीस घण्टे !!

अब कहाँ गई योना (Jonah) की तरह *तीन दिन और तीन रात* (अर्थात् बहत्तर घण्टे, छ्त्तीस का दो गुना) तक भूमि के भीतर रहने की भविष्यवाणी? अब कोई ईसाई / मसीही भाई/बहन कुछ मेथेमेटिकल कसरत करके इस पहेली को सुलझा देंगे तब हमारी जिज्ञासा शांत होगी. यदि योना के तीन दिन और तीन रात तक मच्छ के पेट में रहने की Mathew 12:40 वाली अविश्वसनीय और अन्धविश्वासपूर्ण बकवास वास्तव में स्वयं यीशु ने कही थी (अर्थात यीशु की मृत्यु के सालों बाद सुसमाचार/Gospel लिखने वाले लेखक ने ये शब्द बलात् यीशु के मुख में नहीं डाले थे) तो इससे हास्यास्पद और दुर्भाग्यपूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती!! और यदि योना वाली घटना वास्तव में घटी थी और यीशु ने भी उसे सत्य मानकर “तीन दिन और तीन रात तक” भूमि के भीतर रहने की भविष्यवाणी की थी तो स्पष्ट है कि वह भविष्यवाणी सही सिद्ध नहीं हुई थी!!


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Monday, August 27, 2018

नमस्ते जी*वायुसन्निकर्षेप्रत्यक्षाभावाद् दृष्टंलिङ्ग न विद्यते।। १५ ।। ( २ -१ )अर्थात त्वक् इन्द्रिय...

नमस्ते जी

*वायुसन्निकर्षेप्रत्यक्षाभावाद् दृष्टंलिङ्ग न विद्यते।। १५ ।। ( २ -१ )

अर्थात त्वक् इन्द्रिय के साथ वायु का सन्निकर्ष होने पर भी उसका प्रत्यक्ष नही होता, इसलिए उक्त स्पर्श दृष्टलिङ्ग नही है, किन्तु अदृष्टलिङ्ग है अर्थात लिङ्ग तथा लिङ्गी दोनों का प्रत्यक्ष लिङ्ग के दृष्ट होने में प्रयोजक है, जैसे गोव्यक्ति में गोत्त्व लिङ्गी तथा विषाणादि लिङ्ग के प्रत्यक्ष होने से विषाणादि दृष्टलिङ्ग तथा महानसादि ( पाकशाला व रसोईघर ) में धूम और वन्हि ( अग्नि ) के प्रत्यक्ष होने से धूम दृष्टलिङ्ग होता है वैसे स्पर्श नही होता, क्योंकि त्वक् इन्द्रिय से उसका प्रत्यक्ष होने पर भी लिङ्गी वायु का प्रत्यक्ष नही होता, अतः वह अदृष्टलिङ्ग है दृष्टलिङ्ग नही है।

भाव यह है कि *विषयतासम्बन्धेन वर्हिद्रव्यप्रत्यक्ष त्वावच्छिन्नम्प्रति समवायसम्बन्धेन महत्वविशिष्टोद्भूतरूपस्य कारणत्वं* अर्थात विषय के साथ इन्द्रिय के सम्बन्ध का नाम *विषयतासम्बन्ध* है, महत्परिमाण के साथ एक अधिकरण में रहनेवाले उद्भुत को *महत्त्वविशिष्टोउद्भुतरूप* कहते है, विषयतासम्बन्ध द्वारा घट-पटादि बाह्य द्रव्यों के प्रत्यक्ष में समवाय सम्बन्ध से महत्त्व विशिष्टो उद्भूतरूप कारण है अर्थात *यत्र यत्र समवायसम्बन्धेन वहिर्द्रव्यप्रत्यक्षत्वम्* अर्थात जंहा जंहा समवाय सम्बन्ध से महत्त्वविशिष्टोउद्भूतरूप होता है वंहा विषयता सम्बन्ध द्वारा बाह्यद्रव्य का प्रत्यक्ष होता है यह नियम है, जैसा कि *अयं घट:* यह घट है, इस प्रकार घट का प्रत्यक्षज्ञान आत्मा में समवायसम्बन्ध से और घट में विषयतासम्बन्ध से है, क्योंकि उक्त ज्ञान का समवायिकारण आत्मा तथा घट विषय है और घट में *महत्त्वविशिष्टोउद्भुतरूप* समवाय सम्बन्ध से रहता है, इसलिए वह घटरूप बाह्यद्रव्य के प्रत्यक्ष में कारण है परन्तु वायु में उक्त रूप के न होने से उसका प्रत्यक्ष नही होता और उसके प्रत्यक्ष न होने से वायुवृत्ति स्पर्श के प्रत्यक्ष होने पर भी दृष्टलिङ्ग नही होता।

तात्पर्य यह है कि चक्षु:, त्वक् तथा मन इन तीन इंद्रियों से द्रव्य का प्रत्यक्ष होता अन्य से नही अर्थात घ्राण,रसना तथा श्रोत्र से केवल गुण का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नही और बाह्यद्रव्य का प्रत्यक्ष चक्षु: वा त्वक् दोनों से होता है अर्थात जिस द्रव्य में “महत्त्वविशिष्टउद्भूतरूप” है उसका उक्त दोनों इंद्रियों से प्रत्यक्ष होता है अन्य का नही और वायु में उक्त दोनों के न पाये जाने से उसका चक्षु: वा त्वक् से प्रत्यक्ष नही होसक्ता किन्तु वह स्पर्शरूप अदृष्टलिङ्गद्वारा अनुमेय है, इसप्रकार वायु के प्रत्यक्ष न होने से उक्त स्पर्श के प्रत्यक्ष होने पर भी वह अदृष्टलिङ्ग है।


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नमस्ते जीकोई भी पदार्थ को लक्षित करके जब उनके लक्षणों को जानना हो तब सर्वदा स्मरण हो, कि उस लक्षण...

नमस्ते जी

कोई भी पदार्थ को लक्षित करके जब उनके लक्षणों को जानना हो तब सर्वदा स्मरण हो, कि उस लक्षण में अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोष तो नही है न ?

अव्याप्ति = जिस किसी पदार्थ में लक्षण किया हो और उसी जाति में अन्य व्याप्त न हो।

जैसे सुवर्ण वर्ण की हो उसे गौ कहते है। तो काली और सफेद गौ में अव्याप्ति होगी।

अतिव्याप्ति= जिस पदार्थ का लक्षण दिया वह अन्य जाति में न हो।

जैसे जिसके श्रृङ्ग हो उसको गौ कहते है।

श्रृङ्ग तो भैस बकरी के भी होते है।

असम्भव= जिस लक्षण का कोई अस्तित्व ही न हो।

जैसे जिसका एक खुर हो अर्थात बीच से फटा हुआ न हो उसको गौ कहते है।


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नमस्ते जीकल के सूत्र से हमने जानने -समझने का प्रयास किया कि, वायु अदृष्ट लिङ्गी है और उनका गुण...

नमस्ते जी

कल के सूत्र से हमने जानने -समझने का प्रयास किया कि, वायु अदृष्ट लिङ्गी है और उनका गुण स्पर्श लिङ्ग भी अदृष्ट है। तो यंहा प्रश्न यह होता है कि यदि वायु का ज्ञान होने में दृष्ट-लिङ्ग नही है,तो उसका अनुमान कैसे होता है ?

उपरोक्त आशंका का समाधान करते हुए महर्षि ने सूत्र के माध्यम से समाधान किया कि :-

*सामान्योतो दृष्टाच्चाविशेष:।। १६ ।। ( २ - १ )*

अर्थात सामान्योतोदृष्ट अनुमान द्वारा अविशेष: अर्थात सामान्यरूप से वायु की सिद्धि होती है।

अनुमिति के साधन को अनुमान कहते है अर्थात किसी वस्तु के व्याप्त गुणों के कारण गुणी द्रव्य का अनुमान करना।

अनुमान और लिङ्ग यह दोनों पर्याय शब्द है, *दृष्ट* तथा *सामान्योतोदृष्ट* से अनुमान का प्रकार जानना चाहिए, जिस अनुमान से लिङ्ग - लिङ्गी के प्रत्यक्षपूर्वक व्याप्तिरूप सम्बन्ध का प्रत्यक्ष होता है उसका नाम *दृष्ट* और तथा जिस में लिङ्ग के प्रत्यक्ष होने पर भी लिङ्गी के प्रत्यक्ष न होने से, उक्त सम्बन्ध का सामान्यरूप से ज्ञान होता है, उसका नाम *सामान्योतोदृष्ट* है।

जैसे पाकशाला में धूम-अग्नि की व्याप्ति का प्रत्यक्ष होने से अग्नि के अनुमान में धूम *दृष्ट* है और ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने पर भी उनके लिङ्गी आत्मा का प्रत्यक्ष नही होता, इसलिए यह सामान्य नियम देखाजाता है,कि प्रत्येक गुण, गुणी के आश्रित रहता है; गुणी को छोड़कर नही।

जब हम चलते फिरते, उठते बैठते हम त्वगिन्द्रिय से स्पर्श का अनुभव करते है तब उस स्पर्श गुण के साथ उसका आश्रयद्रव्य अवश्य होना चाहिए। उसके आश्रय द्रव्य के रूप में पृथिवी,जल, अग्नि द्रव्य उपस्थित नहीं, तब उस स्पर्शगुण के आश्रयभूत जिस गुणी अर्थात द्रव्य का अनुमान होता है, वह *वायु* है।

इसी प्रकार जब वस्त्र,पत्ते शाखा आदि में स्पन्दन आदि क्रियाओं में कोई आघातकारी निर्मित्त पार्थिव आदि नही दिखता, तो भी स्पन्दन आदि क्रियाएं होती है; तो उन कम्पन आदि क्रियाओं का प्रवर्तक अर्थात निर्मित होना ही चाहिए, और वह निर्मित्त वायु ही है। इसलिए सामान्योतोदृष्ट भी वायु की सिद्धि में सामान्य हेतु है।


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