आषाढ़ कृ. ९ 10 जुलाई 15
😶 “धन का प्रयोग! ” 🌞
🔥🔥ओ३म् पृणीयादित्राधमानाय तव्यान् द्रीघीयांसमनु पश्येत पन्थाम् । ओ हि वर्तन्ते रथ्येव चक्रान्यमन्यमुप तिष्ठन्त राय: ।। 🍂🍃
ऋ० १० । ११७ । ५
शब्दार्थ:- धन से बढ़े हुए समृद्ध पुरुष को चाहिए कि वह माँगनेवाले सत्पात्र को दान देवे ही , सुकृत मार्ग को दीर्घतम देखे। इस लम्बे मार्ग में धन-सम्पतियाँ निश्चय से रथ-चक्रों की भाँति ऊपर-नीचे घूमती रहती हैं, बदलती रहती हैं और एक को छोड़कर दूसरे के पास जाती रहती हैं।
विनय:- धन को जाते हुए कितनी देर लगती है? व्यापार में घाटा हो जाता है, चोर-लुटेरे धन लूट ले जाते हैं, बैंक टूट जाते हैं, घर जल जाता है आदि सैकड़ों प्रकार से लक्ष्मी मनुष्य को क्षणभर में छोड़कर चली जाती है। वह मनुष्य कितना मूर्ख है जो यह समझता है कि बस, यदि मैं दूसरों को धन दान नहीं करूँगा तो और किसी तरह मेरा धन मुझसे जुदा नहीं हो सकेगा। अरे, धन तो जब समय आएगा तो एक पलभर में तुझे कंगाल बनाकर कहीं चला जाएगा। इसलिए
हे धनी पुरुष!
यदि इस समय तेरे शुभकर्मों के भोग से तेरे पास धन-सम्पत्ति आई हुई है तो तू इसे यथोचित-दान में देने में कभी संकोच मत कर। सच्चा दान करना, सचमुच जगत्पति भगवान् को उधार देना है जो बड़े भारी दिव्य सूद के साथ फिर वापस मिलता है। जो जितना त्याग करता है वह उससे न जाने कितना गुणा अधिक प्रतिफल पाता है, यह ईश्वरीय नियम है। यदि इस संसार की गति को हम ज़रा भी ध्यान के साथ देखें तो पता लगेगा कि धन-सम्पत्ति इतनी अस्थिर है कि यह रथचक्र की भाँति घूमती फिरती है-आज इसके पास है तो कल दूसरे के पास है, पर हम अति क्षुद्र दृष्टि वाले हैं और इसीलिए इस ‘आज’ में ही इतने ग्रस्त हैं कि हम 'कल’ को देखते हुए भी देखते नहीं हैं। यदि हम मार्ग को विस्तृत दृष्टि से देखें तो इन धनागमों और धननाशों को अत्यंत तुच्छ बात समझें। यदि संसार में प्रतिक्षण चलायमान, घूमते हुए, इस धन-चक्र को देखे, इस बहते हुए धनप्रवाह को देखेँ, तो हमें धन जमा करने का ज़रा भी मोह न रहे।
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ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे
🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚
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