Friday, July 3, 2015

महर्षि दयानन्द का ऐतिहासिक उद्बोधन - Every Arya or a person who is connected with Arya Samaj should...

महर्षि दयानन्द का ऐतिहासिक उद्बोधन -

Every Arya or a person who is connected with Arya Samaj should read this very important message of Maharshi Dayananda

महर्षि दयानन्द सरस्वती का ऐतिहासिक उद्बोधन

(१८८० ई० में मेरठ आर्य समाज के उत्सव पर दिये गये अन्तिम व्याख्यान का अंश)

आर्यसमाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनेक बार मनोयोग पूर्वक पढ़ने योग्य महर्षि का अपूर्व सन्देश ।

आर्य समाज आज जिन आन्तरिक व बाह्य समस्याओं से झूज रहा है, उन समस्याओं का समाधान महर्षि के इस उद्बोधन में बताई बातों से ही सम्भव है।

“मुझे लोग कहते हैं - जो कोई आता है आप उसे ही भरती कर लेते हैं । मेरा इस विषय में स्पष्ट उत्तर है कि मैं वेद ही को सर्वोपरि मानता हूं । वेद ही ऐसी पुस्तक है कि जिसके झण्डे तले सारे आर्य आ सकते हैं । इसलिए जो मनुष्य कह दे कि मैं वेदों को मानता हूं और आर्य हूं उसे आर्य समाज में सम्मिलित कर लो । ऐसे विश्वासी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।

लोग भिन्न-भेद पर अधिक दृष्टिपात करते हैं, परंतु आप लोग परस्पर भेद-मूलक बातों की अपेक्षा मेल-मूलक बातों पर अधिक ध्यान दो । तुच्छ भेदों और विरोधों को त्याग कर मेल-जोल की बातों में मिलाप सम्पादित करो। आपस में मिलती बातों में मिल जाने से विरोध और भेद स्वयमेव मिट जाते हैं।

अब आपको अपना कर्तव्य आप पालन करना चाहिए । अपने जीवन को ऊंचा बनाओ और अपनी आवश्यकताओं को आप पूर्ण करो। इस समय तो यह अवस्था है कि जब कोई प्रबल प्रतिपक्षी आ जाता है तो आप तार पर तार देकर, मुझे ही बुलाते हैं। किसी संशय के उत्पन्न होने पर मुझ पर ही अवलम्बित रहते हो । उपदेश कराने हों तो मुझ पर ही निर्भर करते हो । जब कभी आपस में परस्पर की फूट, फूट निकलती है, वैमनस्य बढ़ जाता है, अनबन बढ़ने लगती है और वैर-विरोध उत्पन्न हो आता है, तो उसे मिटाने की चिन्ता मुझे ही करनी पड़ती है। मैं ही आकर आप में शान्ति स्थापन करता हूं । आपके अन्तःकरणों में अवनतिकारी अन्तर नहीं पड़ने देता । आपके पारस्परिक स्नेह के सुकोमल सूत्र को छीजने नहीं देता।

परन्तु महाशयो ! मैं कोई सदा नहीं बना रहूंगा । विधाता के नियम-न्याय में मेरा शरीर भी क्षणभंगुर है। काल अपने कराल पेट में सब को पचा डालता है। अन्त में इस देह के कच्चे घड़े को भी उसके हाथों टूटना है।

सोचो, यदि अपने पांव पर खड़ा होना नहीं सीखोगे तो मेरे आंख मीचने के पीछे क्या करोगे। अभी से अपने को सुसज्जित कर लो। स्वावलम्बन के सिद्धान्त का अवलम्बन करो। अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के योग्य बन जाओ। किसी दूसरे के सहारे की अपेक्षा अपने ही पर निर्भर करो।

मुझे विश्वास है कि आप में ऐसे अनेक सज्जन उत्पन्न होंगे जो उत्तमोत्तम कार्य कर दिखायेंगे । प्राणपण से अपने पवित्र प्रणों की पालना करेंगे। आर्य समाज का बड़ा विस्तार हो जायगा । कालान्तर में ये वाटिकायें हरीभरी, फूली-फली और लहलहाती दिखाई देंगी। ईश्वर कृपा से वह सब कुछ होगा, परन्तु मैं नहीं देख सकूंगा ।”


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