33 करोड़ देवों का भ्रम तोड़िए, वैदिक परिभाषा को शेयर कीजिए
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जनक के दरबार में देवों की संख्या पर चर्चा हुई. विदग्ध मुनि ने याज्ञवल्क्य से पूछा- शास्त्र कहते हैं जो देता है वह देवता है. दिव्य शक्तियों से युक्त सभी जड़ और चेतन भी देव हैं. सूर्य, चंद्र, नक्षत्र से लेकर माता-पिता, गुरू, आचार्य और अतिथि को भी देव कहा जाता है. तो देवता हैं कितने? उनकी कोटि कितनी है?
याज्ञवल्क्य बोले- आठ वसु, 12 आदित्य, 11 रूद्र, इंद्र व प्रजापति. वेदों में इन्हीं 33 कोटि के जड़-चेतन देवताओं के बारे में कहा गया हैं.
-अग्नि, पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष, सूर्य, द्युलोक, चंद्रमा और नक्षत्र- ये आठ वसु हैं.
-दस प्राण व 11वीं आत्मा- ये ही एकादश रूद्र हैं. इनके शरीर त्यागने पर शरीर व्यर्थ हो जाता है, बंधु-बांधव रोने लगते हैं.अतः इन्हें रूद्र(रोने वाला) कहा जाता है.
– साल के 12 मास ही बारह आदित्य हैं. ये मास मनुष्य की आयु कम करते हैं अतः आदित्य कहे गए हैं.
-गर्जना करने वाला बादल ही इंद्र है. अतः इंद्र को वर्षा का देवता कहा जाने लगा.
-यज्ञ को ही प्रजापति समझना चाहिए.
याज्ञवल्क्य ने आगे बताया- देवताओं की संख्या अन्य प्रकार से भी बताई गई है.
-अग्नि, वायु, अंतरिक्ष, सूर्य, पृथ्वी और द्युलोक को षट्देव कहा गया है.
-अन्न और प्राण दो देवता कहे गए हैं.
-प्राण रूपी परमात्मा को एकमात्र देव या परमदेव कहा जाना चाहिए.
याज्ञवल्क्य ने देवों की संख्या की वेद आधारित सरल व्याख्या की तो जनक सभा में मौजूद सभी विद्वानों से इसे स्वीकारा.
33 कोटि के देवताओं के बारे में यही सबसे प्रमाणिक व्याख्या है. कोटि के दो अर्थ होते हैं- वर्ग और करोड़. इसलिए देवताओं की 33 कोटि या प्रकार है न कि 33 करोड़ की संख्या.
(प्रश्न उपनिषद से)
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