प्रत्येक आर्य को इस बात का स्वाभिमान होना चाहिए कि वह एक ऐसे संगठन का सदस्य है जिसके कारण वह अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियों और अनेक गलत मान्यताओ से दूर है। उसे परमात्मा के ज्ञान को पढने, समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यदि वह इस समाज से नहीं जुड़ता तो उसका खानपान, व्यवहार सब अलग होता, अन्धविश्वास के दलदल में फंसा रहता, न जाने कहा-कहा भटकता रहता। ऋषि ऋण चूका कर आर्य समाज की गरिमा को ऊँचा करें।
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