ओ३म्
“अनादि से अनन्त काल की यात्रा में जीवात्मा कर्मानुसार अनेक प्राणी योनियों में विचरता रहा है और आगे भी विचरेगा”
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यदि हम आर्यसमाज की बात न करें और इतर मनुष्यों व समुदायों की बातें करें तो हम देखते हैं कि मनुष्य को जड़ व चेतन का भेद व उसका तत्वार्थ ज्ञात नहीं है। मनुष्य का जन्म होता है, माता-पिता उसका पालन करते हैं, स्कूल व कालेजों में पढ़ने के लिए उसे भेजा जाता है, वहां जो पढ़ाया जाता है वह पढ़ता है, उसके बाद वह अपने भविष्य के कार्य व व्यवसाय को चुनता है और उसके लिए जो करना होता है, उसे करते हुए वह अपने मुकाम व लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है। मुकाम प्राप्त हो जाये तो सुख मिलता है, नहीं तो वह कुछ दुःखी व चिन्ता में रहते हुए अपना जीवन व्यतीत कर देता है। वृद्धावस्था आती है, कुछ को रोग हो जाते हैं, उपचार चलता है और 50 से 80 के बीच अधिकांश स्त्री व पुरुषों की जीवनलीला समाप्त होकर मृत्यु हो जाती है। यदि इनमें कोई बचता है तो वह कुछ वर्ष बाद चल बसता है। जीवित व मृतक मनुष्य कहां से आये थे यह उन्हें पता नहीं होता। कहां जाना है व मरकर गये, इसका पता न उनको था न माता-पिता व परिवार के लोगों को ही होता है। परिवार के छोटे व बड़े लोग हैं, वह भी अपने कार्यों में लगे हुए सुखों को भोगने की इच्छा रखते हुए व प्रयास करते हुए अपने जीवन को आगे बढ़ाते रहते हैं और जब तक मृत्यु न आये यही क्रम चलता है। प्रायः सभी लोग इसी को जीवन मानते हैं। उनके अनुसार जीवन का और कोई विशेष लक्ष्य आदि नहीं है। वेद से इतर अनेक मत-मतान्तर हैं, सबकी अपनी अपनी मान्यतायें हैं। कुछ बातें सत्य हैं तो बहुत सी मिथ्या व अविवेकपूर्ण भी हैं। वह सब अपने अपने अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
वैदिक धर्मियों के पास सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा दिया गया वेदेां का सत्य ज्ञान है जिसमें मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को तो बताया ही गया है, उसकी प्राप्ति के साधनों ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, पितृयज्ञ आदि सहित परोपकार व सेवा आदि के कामों का विधान भी किया गया है। वेदों के अनुसार यह संसार ईश्वर, जीव व प्रकृति इन तीन मौलिक सत्ताओं व तत्वों से मिलकर बना है। ईश्वर व जीव चेतन तत्व हैं। ईश्वर सर्वज्ञ एवं जीव अल्पज्ञ है, ईश्वर सर्वव्यापक है तो जीवात्मा एकदेशी, अल्पपरिमाण, ससीम, कर्मानुसार जन्म व मृत्यु के बन्धनों में बंधा हुआ है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप होने से सदा-सर्वदा आनन्द से युक्त रहता है। वह सर्वान्तर्यामी होने से जीवात्मा के अन्दर व बाहर सर्व़व्यापक है। जीवात्मा सच्चित (सत्य$चेतन) है, आनन्द से युक्त नहीं है जैसा कि ईश्वर है। चेतन सत्ता होने के कारण इसे आनन्द वा सुखों की अभिलाषा रहती है। अज्ञान के कारण यह भौतिक पदार्थों की ओर अपना मुख करता है। भौतिक पदार्थों में सीमित व अल्प मात्रा में सुख हैं। उसी में यह उलज्ञ जाता है। भौतिक सुखों के लिए ही यह धन व द्रव्यों का संग्रह करता है। परिग्रही बनता है। धनोपार्जन व भौतिक सुखों में ऐसा लिप्त होता है कि ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप व इनके गुणों की उपेक्षा कर देता है। जीवात्मा को लक्ष्य का ज्ञान कराने में सबसे बड़ी बाधा मत-मतान्तर हैं। इसका कारण है कि इनमें ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ, तर्क व युक्तिसंगत ज्ञान नहीं है और न ही यह जानना चाहते हैं। इन मत-मतान्तरों की नींव अविद्या पर है। ऐसा नहीं कि सभी मत-मतान्तरों में शत प्रतिशत अविद्या ही हो, किसी में कम व किसी में अधिक भाग अविद्या का है परन्तु इनमें जितनी अविद्या है उसके कारण यह ईश्वर व जीवात्मा को भली प्रकार से जान नहीं पा रहे हैं। यह सभी मत-मतान्तर अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य ‘धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष’ तथा उसके साधनों को जानकर उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करते क्योंकि उन्हें इनका यथार्थ स्वरूप विदित नहीं है। संसार में अशान्ति का कारण भी अविद्या व मिथ्या ज्ञान ही सिद्ध होता है। यदि यह अविद्या व मिथ्याज्ञान समाप्त हो जाये तो संसार से दुःख व अशान्ति अपने आप दूर हो सकती है। संसार व जीवन विषयक सत्य स्थिति को जानकर कोई मनुष्य किसी के प्रति अन्याय व अत्याचार नही कर सकता। हिंसा व चोरी सहित धन व द्रव्यों का परिग्रह भी नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि उसे ज्ञात हो जाता है कि सृष्टि के सभी पदार्थों ईश्वर ने सभी मनुष्यों व प्राणियों के लिए बना रखे हैं और इन पर सबका समान अधिकार है। ईश्वर की आज्ञा ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ है कि मनुष्यों को सभी सांसारिक पदार्थों का भोग त्यागपूर्वक करना है। नहीं करेंगे तो दण्डनीय होंगे। यह दण्ड मनुष्य को इस जन्म व परजन्म में कब कैसे ईश्वर से प्राप्त होगा उसका ज्ञान ईश्वर ने आवश्यक न समझ कर वेदों में नहीं दिया है। फिर भी हम अपने अपने विवेक से व शास्त्रों में ऋषियों द्वारा किये गये विवेचन को पढ़कर कुछ कुछ जान सकते हैं।
ईश्वर, जीव व प्रकृति तीनों अनादि, अनुत्पन्न, सनातन, सदा रहने वाले, अनन्त काल तक रहने वाले, अमर व अविनाशी मौलिक पदार्थ हैं। ईश्वर अजन्मा होने से उसका जन्म व अवतार कभी नहीं होता। मनुष्य व अन्य प्राणियों के रूप में जीवात्मायें ईश्वरीय व्यवस्था से जन्म लेती हैं। इसका आधार पूर्व जन्म के कर्म होते हैं। ईश्वर हमारे पूर्व के सभी अनन्त जन्मों का साक्षी है। किसी जीवात्मा के जिन कर्मों का भोग करना शेष है, उनमें से कुछ व सभी कर्मों के आधार पर ईश्वर जीव को मनुष्य व अन्य योनियों में पक्षपातरहित होकर जन्म देता है। यही क्रम अनन्त काल तक आगे भी चलना है। इस जन्म में हम मनुष्य बने हैं। हमें अपने जन्म से अब तक घटी प्रायः सभी प्रमुख बातों का किसी का कम व किसी का पूर्ण ज्ञान है। जन्म से पूर्व हम थे या नहीं, थे तो कहां थे और नहीं थे तो इस जन्म में हमारी आत्मा जो कि एक चेतन सत्ता है, जो सुख, दुःख, हानि, लाभ, मान, अपमान, ईष्र्या व द्वेष का अनुभव व व्यवहार करती है, वह कहां से व कैसे इस मानव शरीर में आ गई। इन सभी प्रश्नों का समुचित निभ्र्रान्त उत्तर मत-मतान्तरों के ग्रन्थों व आचार्यों से नहीं मिलता, केवल वेद और वैदिक साहित्य में मिलता है। पुराण आदि ग्रन्थ इस विषय में परस्पर विरोघी व अविश्वसनीय बातें करते हैं। इस जन्म से पूर्व सुख व दुख का अनुभव करने वाली हमारी आत्मा का अस्तित्व नहीं था, इसका किसी के पास कोई भी प्रमाण नहीं है। बिना प्रमाण के ही हम यह मानते रहते हैं कि हमारा अस्तित्व नहीं था। हमें तो यह व्यवहार बुद्धिहीनता व मूर्खता का प्रतीत होता है। हम जीवात्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप, गुण-कर्म-स्वभाव व उत्पत्ति विषयक प्रश्नों को जानने का भी प्रयास नहीं करते। यदि हमारा इस जन्म से पूर्व अस्तित्व न होता अर्थात् हमारा पूर्वजन्म न होता तो संसार के सभी मनुष्य व प्राणियों में, जिनके शरीरों में एक-एक चेतन आत्मा है, किसी भी प्रकार का भेद नहीं होना चाहिये था। सबकी आकृति, प्रकृति, संवेदनायें, ज्ञान व कर्म तथा परिवेश एक जैसे होने चाहिये थे। दो व अधिक मनुष्यों के देश, काल व परिस्थितियों तथा गुण-कर्म व स्वभाव में भेद ‘कर्मफल सिद्धान्त व पूर्वजन्म’ को सिद्ध करता है। हमारा पूर्वजन्म था, हमारे कर्म अलग अलग थे, उसी के अनुसार पुरस्कार व दण्ड स्वरूप हम मनुष्यों व इतर प्राणियों को नाना प्रकार के शरीर व अच्छी-बुरी परिस्थितियां ईश्वर द्वारा हम सभी को दी र्गइं हंै। हमारा कर्तव्य है कि हम ईश्वर, जीव व प्रकृति के स्वरूप पर विचार व चिन्तन-मनन करें। जिन प्रश्नों के उत्तर न मिले उसके लिए हमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेद, दर्शन व उपनिषद् आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। अन्धविश्वास के आधार पर किसी ग्रन्थ की कोई बात न मानें। जो तर्क व युक्तिसंगत हो, सृष्टिकर्म के अनुकूल हो तथा जिसे अपनी आत्मा स्वीकार करे, उसी बात को ही मानना चाहिये। ऐसा करके जीवात्मा के सत्य, स्वतन्त्र, अनादि, अनुत्पन्न, जन्म-मरण धर्मा, कर्मानुसार सुख व दुखों को भोगने वाले चेतन स्वरूप का निभ्र्रान्त ज्ञान होता है। ईश्वर व प्रकृति के सत्यस्वरूप सहित अपने लक्ष्य, उसकी प्राप्ति के साधनों व कर्तव्यों का ज्ञान भी हो जाता है।
मनुष्य के रूप में हम विद्यमान है। हमारा अस्तित्व चेतन जीवात्मा व मरणधर्मा शरीर का एक संयुक्त जीवन्त रूप है। सभी लोगों की जीवनयात्रा अनादि काल से चल रही है। लक्ष्य दुःखों से सर्वथा मुक्ति है जिसे मोक्ष कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर का सत्य ज्ञान व उपासना से उसका साक्षात्कार करना आवश्यक है। साक्षात्कार तभी होता है जब जीवात्मा अपने पूर्व अशुभ कर्मों को प्रायः भोग लेता है और सद्कर्मों को करके आत्मा को पवित्र व दोषरहित कर लेता है। हमें लगता है कि उपासना में देर से सफलता मिलने का एक कारण हमारे जन्म जन्मान्तर के अशुभ कर्म व उनका पूर्णतया भोग कर उन्हें समाप्त करना है। जब तक अशुभ कर्मों का भोग पूरा नहीं होता, प्रयत्न व पुरुषार्थ करने पर भी जीवात्मा को ईश्वर साक्षात्कार नहीं होता। यदि अशुभ कर्म अधिक होंगे तो उपासना आदि साधनों को करने पर भी ईश्वर साक्षात्कार में विलम्ब हो सकता है। अतः मनुष्य जीवन में वेदाध्ययन से सत्य ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर की उपासना व सद्कर्मों पर ध्यान देना चाहिये। अशुभ कर्म पूर्णतः बन्द कर देने चाहिये। ऐसी अवस्था बना लेने पर भी भोग के लिए बचे हुए पूर्व के अशुभ कर्मों के कारण जीवन में दुःख आ सकते हैं। ऐसा होने पर दुःखी न होकर अपने मोक्ष के साधनों के अनुसार कर्तव्य पथ का अनुसरण व अनुगमन करते रहना चाहिये। ईश्वर का साक्षात्कार हो या न हो, हमें लगता है कि शुभ कर्म व उपासना आदि साधनों का सही प्रकार से सेवन करने से हम उपासना व ईश्वर-साक्षात्कार में आगे बढ़ते हैं। इसे जारी रखना चाहिये और स्वयं को ईश्वर में समर्पित रखना चाहिये। ऐसा होने पर हम तीव्र गति से आगे बढ़ सकते हैं। यह विश्वास रखना चाहिये कि हम ईश्वर द्वारा वेदों में कही गई ईश्वर की प्राप्ती की यात्रा पर सही दिशा में चल रहे हैं तो मंजिल कभी न कभी तो आयेगी ही। मंजिल दूर है अतः समय लग सकता है। यह जरूरी नहीं की हमें हमारी मंजिल मोक्ष इसी जन्म में मिल जाये। हमारे ऋषि व विद्वान बताते हैं कि मोक्ष प्राप्ति में अनेक जन्म भी लग सकते हैं। इसके लिए धैर्य की आवश्यकता है। शायद इसी लिए धैर्य को धर्म का प्रथम लक्षण बनाया गया है।
जीवात्मा अनादि काल से जन्म मरण के बंधनों में बंधता व छूटता आ रहा है। हमारा अनेक बार मोक्ष भी हुआ है और अनेकानेक, अनन्त बार जन्म व मरण भी हुआ है। हम संसार में दृष्टिगोचर होने वाली प्रायः सभी योनियों में एक व अनेक बार हम रह आये हैं और आगे भी यह क्रम जारी रहेगा। हम व अन्य कोई जीव दुःख नही चाहता। इन अनचाहे सभी दुःखों से बचने का एकमात्र उपाय केवल मोक्ष के साधनों का सेवन व व्यवहार है। मोक्ष को प्राप्त होकर जीवात्मा बहुत लम्बी अवधि, 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक, मुक्ति में दुःखों से सर्वथा मुक्त रहेंगे और ईश्वर के सान्निध्य से उसके आनन्द को भोगेंगे। उसके बाद पुनः जन्म, मरण, पुनर्जन्म होगा और देर में व शीघ्र फिर मुक्ति हो सकती है। यह वेद व शास्त्रों का ज्ञान है। इसमें वेद सहित हमारे दर्शन व उपनिषदकार आप्त ऋषि प्रमाण हैं जो असत्य व अनुचित कथन व शब्द प्रयोग कभी नहीं करते। अतः इस पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिये। हम यह भी बता दें कि हम कोई बड़े साधक नहीं है। हमने जो पढ़ा, विचार किया व हमें उचित लगा, उसे हमने इस लेख में दिया है। हमें लगता है कि हमारे विद्वान हमसे इन विषयों में पूर्णतः व कुछ सीमा तक सहमत होंगे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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