वैश्वीकरण और भारत - श्री राजीव दीक्षित जी के शब्दों में
स्पष्ट कर दूँ कि मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी कभी नहीं रहा लेकिन एक आम आदमी के तौर पर इस वैश्वीकरण के बारे में मेरी जो समझ बनी है उसे आपको बताने की कोशिश करूँगा | भाषा आसान रहेगी ताकि किसी को समझने में परेशानी न हो | एक बात और कि इस लेख में जो आंकड़े हैं वो 1991 से लेकर 1997 तक के हैं, ऐसा इसलिए है कि इसी दौर में सबसे ज्यादा हल्ला मचाया गया था इस Globalisation /वैश्वीकरण का |
1991 के वर्ष से इस देश में Globalisation शुरू हुआ और इसका बहुत शोर भी मचाया गया | भारत से पहले साउथ ईस्ट एशिया में ये उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण (Globalisation, Liberalization, Privatization ) आदि शुरू किया गया था, उसके पहले ये उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण लैटिन अमेरिका और सोवियत संघ में भी शुरू किया गया था | ये उदारीकरण/ वैश्वीकरण का जो पॅकेज या प्रेस्क्रिप्सन है वो अगर कोई देश अपने अंतर्ज्ञान से तैयार करें तो बात समझ में आती है लेकिन ये पॅकेज dictated होता है वर्ल्ड बैंक और IMF द्वारा | मुझे कभी-कभी हँसी आती है कि 1991 के पहले हम ग्लोबल नहीं थे और 1991 के बाद हम ग्लोबल हो गए | खैर, ये जो वर्ल्ड बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रेस्क्रिसन होता है वो हर तरह के मरीज (देश) के लिए एक ही होता है | उनके प्रेस्क्रिप्सन में सब मरीजों के लिए समान इलाज होता है, जैसे….
पहले वो कहते हैं कि आप अपने मुद्रा का अवमूल्यन कीजिये |उसके बाद कहते हैं कि इम्पोर्ट ड्यूटी ख़त्म कीजिये |उसके बाद कहते हैं कि Social Expenditure कम करते-करते इसको ख़त्म कीजिये, क्योंकि उनका कहना है कि सरकार को Social Expenditure से कोई मतलब नहीं होता है |
उसके बाद विदेशी पूंजी निवेशकों के लिए दरवाजा खोल दिया गया | उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण के कुछ तर्क हैं, जैसे …….
पहला तर्क है कि भारत को पूंजी की बहुत जरूरत है और जब तक विदेशी पूंजी निवेश नहीं होगा, FDI (Foreign Direct Investment) नहीं आएगा तो देश का भला नहीं होगा |इस देश में तकनीक की बहुत कमी है और वो तभी आएगा जब आप अपना दरवाजा विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोलेंगे |आपके देश का एक्सपोर्ट कम है, जब तक आप बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नहीं बुलाएँगे तब तक आपका निर्यात नहीं बढेगा |आप उनको खुल कर खेलने की छुट दीजिये, उनपर कोई पाबन्दी मत लगाइए |यहाँ भारत में बहुत बेरोजगारी है, विदेशी कंपनियां आएँगी तो वो यहाँ रोजगार पैदा करेंगी, वगैरह, वगैरह |
अब मैं इस अवधि में पूंजी निवेश के आंकड़ों के ऊपर आता हूँ, 1991 से लेकर जून 1997 तक कितना विदेशी पूंजी निवेश हुआ भारत में ? जब ये प्रश्न किया गया लोकसभा में तो इस प्रश्न के जवाब में लोकसभा में सरकार का कहना था कि हमने जो विभिन्न MoU sign किये हैं इस अवधि में वो 94 हजार करोड़ का है | ये जवाब बहुत भ्रामक था, तो फिर इस प्रश्न को थोडा specific बना के पूछा गया कि Actual inflow कितना है इस अवधि में ? MoU तो आपने sign किये 94 हजार करोड़ के, लेकिन असल पूंजी आयी कितनी है ? तो पता चला कि उन्नीस हजार सात सौ करोड़ का असल निवेश हुआ है और ये डाटा रूपये में हैं न कि डौलर में | और ये मेरा जवाब नहीं है, वित्त मंत्री का लोकसभा में दिया हुआ जवाब है ये | और ये पूंजी आयी कितने सालों में है, तो 1991 से 1997 के बीच में, मतलब छः सालों में | मतलब इतना हल्ला मचाने के बाद आया क्या तो उन्नीस हजार सात सौ करोड़ | यानि प्रति वर्ष लगभग तीन, सवा तीन हजार करोड़ रुपया आया | और जो निवेश हुआ उसमे ज्यादा कैपिटल मार्केट में हुआ निवेश था, ये Financial capital से किसी देश में उत्पादकता नहीं बढ़ता, Financial capital से किसी देश में कारखाने नहीं खुलते, Financial capital से किसी देश में उत्पादन नहीं बढ़ता, Financial capital से कोई रोजगार पैदा नहीं होता, Financial capital से कभी अर्थव्यवस्था में कोई असर नहीं पड़ता | Financial capital तो आता है शेयर मार्केट में शेयरों का दाम बढ़ाने के लिए | और शेयर मार्केट में जो निवेश होता है वो स्थाई नहीं होता है, आज वो भारत में है, कल उसे पाकिस्तान में फायदा दिखेगा तो वहां चला जायेगा, परसों सिंगापूर चला जायेगा |
और इसी दौरान हमारे देश के लोगों का बचत कितना था तो वित्त मंत्री का ही कहना था कि हमारे GDP का 24% बचत है भारत के लोगों के द्वारा | मतलब, लगभग 2 लाख करोड़ रुपया बचत था हमारा प्रतिवर्ष जब हमारी GDP 8 लाख करोड़ रूपये की थी | जिस देश की नेट सेविंग इतनी ज्यादा हो उस देश को विदेशी पूंजी निवेश की जरूरत क्या है ? मतलब हम हर साल 2 लाख करोड़ रूपये बचत करते थे उस अवधि में घरेलु बचत के रूप में, और छः साल में आया मात्र 20 हजार करोड़ रुपया या हर साल तीन, सवा तीन हजार करोड़ रूपये और ढोल पीट-पीट कर हल्ला हो रहा था कि देश में उदारीकरण हो रहा है, वैश्वीकरण हो रहा है | किसको बेवकूफ बना रहे हैं आप |
विदेशी पूँजी आती है तो वो आपके फायदे के लिए नहीं आती है वो उनके फायदे के लिए आती है और दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं है जो आपके फायदे के लिए अपनी पूँजी आपके देश में लगाये | एक तो सच्चाई ये है कि 1980 से यूरोपियन और अमरीकी बाजार में भयंकर मंदी है और जितना मैं अर्थशास्त्र जानता हूँ उसके अनुसार उनको पूँजी की जरूरत है, अपनी मंदी दूर करने के लिए ना कि वो यहाँ पूँजी ले कर आयेंगे | ये छोटी सी बात समझ में आनी चाहिए और अमेरिका और यूरोप वाले इतने दयावान और साधू-महात्मा नहीं हो गए कि अपना घाटा सह कर भारत का भला करने आयेंगे | इतने भले वो ना थे और ना भविष्य में होंगे | और दुसरे हिस्से की बात कीजिये, मतलब 1991 -1997 तक विदेशी पूंजी आयी 20 हजार करोड़ लेकिन इसी अवधि में हमारे यहाँ से कितनी पूंजी चली गयी विदेश ? तो पता चला कि इसी अवधि में हमारे यहाँ से 34 हजार करोड़ रूपये विदेश चले गए | 20 हजार करोड़ रुपया आया और 34 हजार करोड़ रुपया चला गया तो ये बताइए कि कौन किसको पूंजी दे रहा है |
दुनिया में एक South South Commission है जो गुट निरपेक्ष देशों (NAM) के लिए बनाया गया था 1986 में | और 1986 से 1989 तक डॉक्टर मनमोहन सिंह इस South South Commission के सेक्रेटरी जेनेरल थे | उनकी वेबसाइट पर आज भी मनमोहन सिंह को ही सेक्रेटरी जेनरल बताया जाता है, और भारत के वित्त मंत्री बनने के पहले भारत के तीन-तीन सरकारों के वित्तीय सलाहकार रह चुके थे, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके थे, दुनिया में उनकी एक अर्थशास्त्री के रूप में खासी इज्ज़त है | जब डॉक्टर मनमोहन सिंह इस South South Commission के सेक्रेटरी जेनरल थे तो इन्होने एक केस स्टडी किया था, उस में उन्होंने दुनिया के 17 गरीब देशों के आंकड़े दिए थे जिसमे भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यांमार, इंडोनेशिया वगैरह शामिल थे | ये अध्ययन इस विषय पर था कि 1986 से 1989 के बीच में इन गरीब देशों में अमीर देशों से कितनी पूंजी आयी है और इन गरीब देशों से अमीर देशों में कितनी पूंजी चली गयी है, तो उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इन 17 देशों में 1986 से 1989 तक 215 Billion Dollars की पूंजी आयी जिसमे FDI ,Foreign Loan , Foreign Assistance और Foreign Aid शामिल है और जो चली गयी वो राशि है 345 Billion Dollars | अब जो आदमी एक अर्थशास्त्री के रूप में अपने केस स्टडी में ये कह रहा है कि विदेशों से पूंजी आती नहीं बल्कि पूंजी यहाँ से चली जाती है और जब इस देश का वित्त मंत्री बनता है तो 180 डिग्री पर घूम के उलटी बात करता है, ये समझ में नहीं आता | ऐसा क्यों हुआ, इसको समझिये ……
फिर से मैं उसी वैश्वीकरण पर आता हूँ ……..और इसी दौरान जब इस देश में वैश्वीकरण के नाम पर उन्नीस हजार सात सौ करोड़ रूपये का निवेश हुआ, हमारे देश में शेयर मार्केट के माध्यम से 70 हजार करोड़ रूपये की खुले-आम डकैती हो गयी और हमने FIR तक दर्ज नहीं कराई | शेयर मार्केट का वो घोटाला हर्षद मेहता स्कैम के नाम से हम सब भारतीय जाने हैं, लेकिन ये जान लीजिये कि हर्षद मेहता तो महज एक मोहरा था, असल खिलाडी तो अमेरिका का सिटी बैंक था और ये मैं नहीं कह रहा, रामनिवास मिर्धा की अध्यक्षता में गठित Joint Parliamentary Committee का ये कहना था, और रामनिवास मिर्धा कमिटी का कहना था कि जितनी जल्दी हो सके इस देश से सिटी बैंक का बोरिया-बिस्तर समेटिये और इसको भगाइए, लेकिन भारत सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि सिटी बैंक पर कोई कार्यवाही करे और सिटी बैंक को छोड़ दिया गया और हमारा 70 हजार करोड़ रुपया डूब गया |
आपने ध्यान दिया होगा या आप अगर याद करेंगे तो पाएंगे कि उस globalization के समय (1991 -1997 ) भारत में कई बदलाव हुए थे जैसे ….
शेयर बाज़ार बहुत तेजी से बढ़ा और बहुत से लोगों ने उस दौर में शेयर में पैसा लगाया था और कुछ लोगों ने पैसा भी बनाया लेकिन ज्यादा मध्य वर्ग के लोग बर्बाद हुए | और market manipulation और media management कैसे किया जाता है ये थोडा सा दिमाग लगायेंगे तो आपको पता लग जायेगा |Satellite Television Channel आना शुरू हुए, हमारे मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि प्रचार दिखा कर दिमाग में बकवास भरने के लिए और आपको याद होगा कि दूरदर्शन के दिनों में हम बिना ब्रेक के सीरियल और फिल्म देखा करते थे | लुभावने प्रचार दिखा-दिखा कर भारत के लोगों को प्रेरित करने की कोशिश की गयी ताकि हम बचत पर नहीं खरीदारी पर ध्यान दे और ज्यादा से ज्यादा पैसा बाज़ार में आये और वो पैसा विदेशों में जाये |बैंकों ने बचत पर इंटेरेस्ट रेट कम कर दिया ताकि लोग बैंक में पैसा जमा नहीं कर के खरीदारी करे, पैसा बाज़ार में इन्वेस्ट करें | क़र्ज़ लेने पर इंटेरेस्ट रेट बढ़ा दिया गया |इसी दौर में कई city developer और builder पैदा हुए जो घर और फ्लैट का सपना दिखा कर लोगों का पैसा बाहर निकालना शुरू किये और अगर पैसा नहीं है तो बैंकों ने होम लोन का सपना दिखाना शुरू किया | बैंकों के मार्फ़त हाऊसिंग लोन और कार लोन को बढ़ावा दिया गया, ताकि लोग कर्ज लेकर गाड़ी और घर खरीदें |
इन सब के पीछे एक ही मकसद था कि पैसा ज्यादा से ज्यादा बाहर निकले, बचत की भावना कम हो लेकिन भारतीय संस्कृति ऐसी है जहाँ लोग निवेश भी करते हैं तो बचत करने के बाद | अमेरिका और भारत में ये मूल अंतर है जो समझना होगा | हमारे देश में ऐसे ही एक महात्मा हुए थे जिनका नाम था “चारवाक” और उनका कहना था यावत् जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत, ………अर्थात जब तक जियो सुख से जियो और जरूरत पड़े तो कर्ज लेकर भी घी पियो मतलब मौज मस्ती करो…….. और ये भारत का उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण भी हमें यही सिखाता है |
भारत के बुद्धिजीवियों द्वारा विदेशी निवेश को लेकर भारत में भ्रम फैलाया जाता है, तो मैं आपको बता दूँ कि विदेशी कम्पनियाँ आज भी निवेश नहीं करती है, क्योंकि उनके पास निवेश करने के लिए कुछ भी नहीं है | यूरोप और अमेरिका के बाजारों में 1980 से मंदी चल रही है और ये मंदी इतना जबरदस्त है कि खुद उनको अपनी मंदी दूर करने के लिए पूँजी की जरूरत है | जब कोई कंपनी निवेश करती है तो उनका जो Initial paid -up capital होता है उसका सिर्फ 5% ही वो लेकर आती हैं और बाकी 95% पूँजी वो यहीं के बाजार से उठाती हैं, बैंक लोन के रूप में और अपने शेयर बाजार में उतार कर | इसलिए उनके निवेश पर भरोसा करना दुनिया की सबसे बड़ी बेवकूफी है | एक बात को दिमाग में बैठा लीजिये कि कोई भी देश, विदेशी पूँजी निवेश से विकास नहीं करता चाहे वो जापान हो या चीन | जापान और चीन ने भी अपने घरेलु बचत बढ़ाये थे, तब वो कुछ कर सके | हमारी सालाना घरेलु बचत जब 2 लाख करोड़ की है तो हमें विदेशी पूँजी निवेश की जरूरत कहाँ है ? और उन्होंने 6 -7 सालों में जो 20 हजार करोड़ का निवेश किया उसके बदले में हमने कितना गवाँ दिया इसकी चर्चा ये बुद्धिजीवी कभी नहीं करते |
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