Wednesday, June 21, 2017

*महर्षि पतञ्जलि ने योग को ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध’ के रूप में परिभाषित किया है।...

*महर्षि पतञ्जलि ने योग को ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध’ के रूप में
परिभाषित किया है। योगसूत्र में उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक,
मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार
से बताया है। अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला
मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों
का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:

*'यम’ : पांच सामाजिक नैतिकता

*अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना

*सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना

*अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना

*ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं:

* चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
* सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना

*अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की
इच्छा नहीं करना

*'नियम’: पाच व्यक्तिगत नैतिकता
*शौच – शरीर और मन की शुद्धि

*संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना

*तप – स्वयं से अनुशाषित रहना

*स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना

*इश्वर-प्रणिधान – इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा

*'आसन’: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण

*'प्राणायाम’: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण

*'प्रत्याहार’: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना

*'धारणा’: एकाग्रचित्त होना

*'ध्यान’: निरंतर ध्यान

*'समाधि’: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था


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