“अविभक्त; विभक्त जैसे’
-आचार्यश्री राजेष
मंत्र:
चक्षुर्मुसलं काम उलूखलम्।
दितिः शूर्पमदितिः शूर्पग्राही वातोऽपाविनक्।।
(अथर्ववेद 11.3.3,4)
भावार्थ:
ओखली में ड़ालकर धान को मारते जैसे ब्रह्मजिज्ञासु इस ब्राहृाण्ड में ब्रह्म को देखने या समझने का परिश्रम करते है। पृथक करके धान से छिलके को निकालते जैसे सत्त्वबुद्धि द्वारा वह विराट शरीर में से परमात्मा को पृथक करके समझ लेता है।
भाष्य:
भगवद्गीता के क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग के सत्रहवाँ श्लोक में इसी अथर्ववेद मंत्र के बारे में ही बोल दिया है। "दितिः शूर्पं
अदितिः शूर्पग्राही’ ये मंत्रांश गीताश्लोक में "अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव स्थितं’- ऐसा विवरण किया है। "दितिः’ का मतलब विभाजन करने योग्य (विभक्तं) है और अविभजनीय पदार्थों को "अदितिः” शब्द से कहा गया है। ये दोनों शब्द “दो अवखण्डने’ - धातु से निष्पन्न हुआ है। ये मंत्र क्या बता रहा है? मंत्र में से "शूर्पं’ शब्द देखिए, पाणिनीय धातुपाठ में "शूर्प माने’ - ऐसा धात्वर्थ को देख सकता है। परिमेय व्यक्त पदार्थों को शूर्प शब्द से कहा गया तो वे अपरिमेय एवं अव्यक्त ब्रह्म को ही शूर्पग्राही समझना चाहिए। क्योंकि सूर्यचन्द्रादि सब पदार्थ वे प्रभु में ही आधारित हैं। वे ब्रह्म विविध वस्तुओं में विविध रूप में प्रकट होते हैं। ऐसे अविभक्त परमात्मा विभक्त जैसा स्थित है। यही गीता श्लोक में भी कहा जाता है। लेकिन बहुत सारे लोग गीताश्लोक को अपनी-अपनी मनमाने ढंग से व्याख्यान किया है। घट, आकाश आदि उदाहरण लेकर अज्ञानरूपी उपाधी से ब्रह्म जीव हो जाता है- ऐसा कहे गये हैं। ये तो ठीक नहीं, क्योंकि इस अथर्वमंत्रों का पूर्व मंत्र में ऐसा कहा है कि "द्यावापृथिवी श्रोत्रे सूर्याचन्द्रमसावक्षिणी’ - अर्थात् द्युलोक और पृथिवीलोक उनके कानों तथा सूर्यचन्द्रादि उनके आँखें हैं। इससे सुव्यक्त होता है कि इधर प्रपंच रूपी विराट् शरीर का वर्णन किया है, मनुष्य शरीर का नहीं। वेदों पर आधारित किये बिना गीता श्लोकों को भाष्य लिखने पर ही ऐसा खलत अर्थ भगवद्गीता श्लोकों पर आरोपित होता है।
from Tumblr http://ift.tt/2dl5eXn
via IFTTT
No comments:
Post a Comment